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प्रभु रहना मेरे जीवन प्रांगण में

 प्रभु रहना मेरे जीवन प्रांगण में,  *********************** प्रभु चाहे रहो हिमगिरी या  सघन वन में , मैं रखता प्रतिपल  अपने मन में । निराकार साकार परब्रह्म   चिरन्तन में,  बसो नित ही  मेरे अन्तस्तल में । तुम्हीं अनमोल रतन इस जीवन में ,  पालक तारक मेरे  सुख दुःख के ।  जैसे भौरें पलते कुसुमित  वन में,  वैसे ही नित  बस जाते मेरे मन में । प्रभु आप ही सासों में संकल्पों में,  व्यवहार भरे जीवन के सुर तारों में । आप ही दिन में,  आप ही रातों में,  आप ही शक्ति में,  आप ही भक्ति में । दुखियारों के सारे  दुःख हरते हो , प्रतिपल रख लो अपनी ऑखों में । चराचर ब्रह्म जगत  विधाता आपही हो,  डूब रहे  के संकट तो  पल में  हरते हो । प्रभु चाहे रहो सागर में या  सघन वन में,  मैं सेवक रखता आपको प्रतिपल अपने मन में ।।                *******

गिरगिट का रंग

आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया । ना जाने कैसा वक्त आ गया । श्वान सम्बोधन से उकताया हुआ । माया,मद,मोह, लोभ,और प्रीति में छा गया । आदमी तन मन से गिरगिट में समा गया । आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया । सर्प, बिच्छू के दंश से उपचारित हो सके हैं । भय की बात कौन करता है यहाँ । उभय तो रोम -रोम समा गया । आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया । इस उभयवादी से सत्य भी छला गया । दलबदल की राजनीति कल की बात थी । तन्त्र अब दिल बदलने तक तो आ गया । आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया ।।                   *********

कल

दिनमान से पहले होता कलरव ,होता कल्लोल चित चपल ।  अब की सुधि कह गये कबीर , विचारों में त्यागें कल ।  युग दोष समाया जीवन में , मन्वन्तर युग में ही है कल ।  जन-जनमत के भेद को जान , मनुज नित निरख संभल । दिनमान से पहले होता कलरव ,होता कल्लोल चित चपल । अब की सुधि कह गये कबीर , विचारों में त्यागें कल ।  तटिनी गतिमान बनी रहती ,अहर्निश जन-मन हित प्रतिपल ।  तट आहट देती जन-जन को , हर क्षण कहती कल-कल ।  कल को आधार बना लें , सजालें स्वयं का जीवन सम्बल ।  अतीत की प्रतीति होती सुनीति,इसी से होता सब जन सफल ।  दिनमान से पहले होता कलरव ,होता कल्लोल चित चपल । अब की सुधि कह गये कबीर , विचारों में त्यागें कल ।  परिणति भाव भरे विनीत ,अनीति त्याग मन कर विमल ।  सोच कल को विषय विकार के , समाज का पी रहे गरल ।  एकाकी ही जन हर रहे ,शिवत्व भाव से हो रहे जन निर्मल।  मोह-माया भाव तिलांजली देकर ,स्नेहिल मन चलता चल । दिनमान से पहले होता कलरव ,होता कल्लोल चित चपल । अब की सुधि कह गये कबीर , विचारों में त्यागें कल ।  आत्मबल से हो सहज ,वर्तमान में कभी न कहें कल ।  सपनों में निर्झर बहा करे रहे ,उज्ज्वल हीरक और धवल । भूलें

बिजली की स्फूर्ति के महाराजा बिजली पासी

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बिजली की स्फूर्ति के महाराजा बिजली पासी ****************************** (यह आकाशवाणी एफएम वर्ष  2000 पर सजीव  स्वयं प्रसारण  के लिए श्रीमती रमाअरुण त्रिवेदी को किले से दी गई जानकारी के आधार पर तैयार किया गया है) महाराजा बिजली पासी लखनऊ के प्रसिध्द राजाओं में से एक थे ,उनकी स्मृति में आज भी धरोहर के रूप में पासी किला या बिजली पासी किला खण्डहर रूप में स्थित है,कहते है कि महाराजा बिजली पासी  की माता का नाम बिजना था, इसीलिए उन्होंने सर्वप्रथम अपनी माता की स्मृति में बिजनागढ की स्थापना की थी, जो कालांतर में बिजनौरगढ़ के नाम से संबोधित किया जाने लगा यह स्थान लखनऊ से कानपुर आजाद इन्जिनियरिग कालेज मार्ग पर है,बिजली पासी के कार्य में विस्तार हो जाने के कारण बिजनागढ में गढ़ी का समिति स्थान पर्याप्त न होने के कारण बिजली पासी ने अपने मातहत एक सरदार को बिजनागढ को सौंप दिया। इसके बाद उन्होंने अपनी पिता की याद में बिजनौर गढ़ से उत्तर तीन किलोमीटर की दूरी पर  नटवागढ़ की स्थापना की।यह किला काफी भव्य और सुरक्षित था। बिजली पासी की लोकप्रियता बढ़ने लगी और अब तक वह राजा की उपाधि धारण कर चुके थे। नटवागढ़ भी

मेरी काशी

              मेरी काशी            *********   माँ गंगा का मिलता रहें    आशीष     ऐसा हो निशि-दिन का प्रकाश   ,   जिस जन के मन में रहता श्वास   उसके पूरन    हो जाते सारे विश्वास   | |  माँ गंगा का मिलता    आशीष     भाग्य हमारा हम बसते काशी   , नव निर्माण सहेज कर लें   उपयोगी अपना जीवन आकाश   | |  माँ गंगा का मिलता रहें    आशीष     ऐसा हो निशि-दिन का प्रकाश   ,   जिस जन के मन में रहता श्वास   उसके पूरन    हो जाते सारे विश्वास   | |  तीन लोक से न्यारी में   ऐसा हो निशिदिन का प्रकाश   , दीन-दुःखी के कष्ट निवरते   देव-देवियों के आस   | |  माँ गंगा का मिलता रहें    आशीष     ऐसा हो निशि-दिन का प्रकाश   ,   जिस जन के मन में रहता श्वास   उसके पूरन    हो जाते सारे विश्वास   | |  निष्काम निष्पाप भावों    से   जिस जन के मन में रहता श्वास   , अविनाशी  योगी की साधना तीर्थ   सदा से करती रही विकास   | |  जिसके रज-कण में हरक्षण होता मन्दिर -मन्दिर बटते हैं मिठास ,   उन्मुक्त जीव रहें अविकारी विश्वासी   बाबा विश्वनाथ का आभास   | |  माँ गंगा

International Joke Day अन्तरराष्ट्रीय चुटकला दिवस

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 जब अपनी पैठ कहीं  न बन सकी । पुरखो के खड़े राहो के बैनर उठा  लायें । अब तो सड़कों की गर्मी भी बहुत है । पुरानी इबारत के गंध ही मिलती काफी है । चूहे , तिलचट्टे, झींगुर की महक भाते आये । लिखी कहीं ,गुमसाईन भी भली हो जाये । बयारों से ,जीवन दलदली हो चला है । पैठ बनाना भी ,अब एक कला है । क्या करता ,जमाने में शेखी भी है । दायें से बायें ,गर्दन फिराना भी कला है।  कहें तो हाँ में हाँ वाले ,हक्कारे भी उठा लाये । चुटकुले कहाँ रहे कुछ फुचकुल्ले बना लाये।  मुक्ता ,कविता की इज्जत देख ग़म  खा रहे है ।  ऑसू ,मेले का कैरेक्टर इज्जत उसकी बचा रहे है।  आखिर चुटकुला दिवस पर फुचकुल्ला सुना रहे है।।                  ------- अन्तरराष्ट्रीय चुटकुला दिवस का शोकगीत है ।

Thakur Gopal Sharan Singh:: Aristocrat to author

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 सामंत से साहित्य की ओर ::ठाकुर गोपाल शरण सिंह  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम से  द्विवेदी युग रखा गया है ।  द्विवेदी जी एक ऐसे साहित्यकार रहे, जो बहुभाषी होने के साथ ही साहित्य के इतर विषयों में भी समान रुचि रखते थे । अपने प्रकांड पाण्डित्य के कारण इन्हें ‘आचार्य’ कहा जाने लगा । वे महान ज्ञान-राशि के पुंज और आचार्य  थे । उनके प्रति श्रद्धा रखने वाले  युग के प्रतिनिधि कवि, खड़ी बोली के काव्य निर्माता,और अपनी भाषा संस्कृति व देश को सदैव गौरव प्रदान करने वाले कविवर ठाकुर गोपाल शरण सिंह की कविता में जिस सरसता और भावों की गूढ़ता के साथ भाषा की सरलता का समन्वय मिलता है,वह अन्यत्र पाना दुर्लभ है ।ठाकुर गोपाल शरण सिंह जी की बासठवीं वर्षगांठ  हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के संग्रहालय में ठाकुर रणंजय सिंह के सभापतित्व में मनाई जा रही थी वर्ष के हिसाब से  1953 का समय रहा होगा। पांच,महात्मा गाँधीमार्ग, सिविल लाइन, प्रयाग का बंगला अच्छा खासा है । कमरों में कालीन की बुनाई की टाइल्स लगी है, फुलवारी की शोभा उल्लेखनीय है  यही ठाकुर गोपाल शरण सिंह जी के आव

अपनों को ही भूलें

 अपनों को ही भूलें   ************** अनजाने में कितने मिलते ही गये हम अपनों  को ही भूलेंं । रस्ते ही रहे  हमने ही बदले सोचते हम भी है कितने पगले । भूलने की कोशिश में ना जाने कितनी बार पथ अपने ही बदले । सोचते-सोचते गुमसुम हो रही रातों की जम्हाई भरी करवटें । क्या छुप-छुपकर क्या लिख दूं सब कोर पड़ी दीख रही सिलवटें। अब छूटते यौवन में अपने का जीवन की भूलें बातें  सूझती लपटें। किससे कहें  कुछ बात जो लग जाय तो तुनक से भी हो हटके । निराशा डराती है इस पल उस पल उनींदी सी हो जैसे करवटें । जिन्दगी भूलें डगर पे डरा रही जैसे  जंगल से आती हवा की आहटें। तुम्हारी मौन हमें भयभीत कराती जैसे बियाबान की सनसनाहटें। टिकी है आस में नई सुबह होगी झुरमुट में जो अलकों से छिपीं हैं तेरी लटें । इक खोज का सिलसिला दिखा जाती हो नागफनी जैसे फूल हो खिले। उड़गन तो बहुत देखें हैं रात केअंधेरों मेंआज तारिका से जैसे यूँ ही मिलें। अनजाने में कितने मिलते ही गये हम अपनों को ही भूलें। बागबां होने की चाहत फुलवारी में  फूल भी देखे बहुतेरे  अलसाते  खिले।  तराशी सी मूरत से उठी किरकिरी पलक  में रह गये  बिन शिकवे गिले ।              

पानी Water

 पानी ****** पानी तो पानी है नैनों से  भावों को पढ़ कर  छलक गया । ऑखों का पानी बिन रुके सरक , होठों तक ढलक गया । पता नहीं क्यों संग मेरे, मन का खारापन झलक गया । या तो ऑखों से ऑसू रोक   लूं, ऐसा क्या हो गया । धडकन की बेचैनी से,छलनी मन को  क्या हो गया । बहनें देते हैं सब कुछ, सुबक सुबक रहने का हो गया । पर बिन चोट किये घायल, तन जैसा  मन मेरा हो गया । अतीत की बातें हैं एकाकी  में ऑसू  जैसे टपक गया । क्या कहूँ निगाहों का जीवन जैसे बियाबान वन हो गया ।                                   *****

Farmer

 किसान  ~~~~ ऊँचे नीचे खेत मेड़ की ले कमान,  कांधे कुदाली , खुरपे संग चले किसान । मेघ वायु में कर रहा घमासान ।  संचरित मेघों का क्रीड़ांगनआसमान । सूरज के हाथों बंधी ईख और धान । कुछ चमकारे , कुछ मटियारे दीख रहे निशान। प्रतिपल भाष्कर सिझराता , निगराता, किसान ।  धरती धानी चूनर ,मेघ रंग रंगीले धरे परिधान ।  मनुज खेतों में बैलों संग  नंगे तन । मानवता की खेती में लहलहाती फसल निसान ।  किसानी मेघ बयानी का जीवन । खेतों पर जनतोष लिए जाते हैं । क्या कहें अब दूब भी चुभती है । एक मन है, एक तन है ,एक जीवन है । हम काँटों का कारोबार किये जाते है । खेत कलेवा चिरुवा पानी पीते है । सुनते है प्रगति कर गये है दुर्गति है । अब कर्जदारी का कार्ड लिए फिरते है । कैसे कृषक पलता खेती की जाती है । और वे रात दिन मेडों पर कैसे कटते हैं । बारिश के मौसम ने सारे ऑसू धो डाले है ।  ऐसी बारिश हो मन के दु:ख  मिट जाये । ईश्वर ने ही जन्म दिया वही सब हरते है ।।                    ********