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तू शहर बनों बनारस की

बनारस *****   तू शहर बनो बनारस की   मैं सांझ - सबेंरे भटकूं तुझमें ,   तू गली बनो घाटों   की ,   मैं सांझ - सबेरे भटकूं तुझमें ।   तू शहर बनो बनारस की ।।   तू फूल बनो बगिया की ,   मैं भौंरा बन बस जाऊं तुझमें ,   तू शहर बनो बनारस की ,   तू मृगदांव बनो तथागत की ,   तू शहर बनो बनारस   की ।।   तू लहर बनो गंगा माँ की ,   मैं हर - हर बहता जनजीवन में ,   तू असी बनो बनारस की ,   तू शहर बनो बनारस की ।।   तू नन्दी बन जा भोले की ,   मैं बेल पत्र रखूं करतल में ,   तू शहर बनो बनारस की ,   तू घंटी बन जा मंदिर की ।   तू शहर बनो बनारस की ।   रमता - जपता फकीर बनो ,   कूंचे   गलियों से घाटों की ,   तू शहर बनो बनारस की ,   धमक धूप और मंजीर की ,   तू शहर बनो बनारस की ।   मैं सांझ - सबेरे भटकूं तुझमें   तू शहर बनो बनारस की ।।            ******

अपनों से ही देश में हिन्दी हुई बेगानी

भा षा  संस्कार देती है सभ्यता और संस्कृति का विकास करती है यहाँ जिस देश की बात की जा रही है उस देश में कितनी भाषाएँ और कितनी बोलियाँ हैं उस पर चर्चा करें तो शायद जो समय निर्धारित किया गया है वह आज के लिए कम होगा उन्नीसवीं सदीं में जब हिन्दी ने आँखे खोली तो फोर्ट विलियम कालेज   कलकत्ता में विवाद हो गया कि हिन्दी का कौन सा रूप रखा जाय वह समय अंग्रेजों के युग का था एक पक्ष संस्कृत मिश्रित हिन्दी का था तो दूसरा अरबी फारसी मिश्रित हिन्दी के पक्ष में था विषय तदभव पर आकर अटक गया , यह तदभव संस्कृत मूलक था इसी लड़ाई से दूसरी भाषाओं के लिए भी अवसर मिल गया और उसने भी हिन्दी में अपनी घुसपैठ का रास्ता खोज निकाला परिणाम यह हुआ कि समय आगे बढ़ता चला गया लोगों को पता ही नहीं चल पाया कि कितने प्रकार की भाषा हिन्दी से जुड़ गयी देश की आजादी आते - आते हिन्दवी की बातें भी चलने लगीं और हिन्दी को बचाने के लिए पुरस्कार और प्रलोभन की शुरुआत भी