जीवन धारिणी माँ गंगे
जीवन धारिणी माँ गंगे जीवन धारिणी माँ गंगे अमर जल जीवन धारिणी माँ गंगे , सकल थल के बंट गए ओर छोर । स्मृतियों के जल प्लावन में , हैं कैनवास पर टंगें लहर । धूल-धूसरित हो रहे तन के कोर-कोर । पसरता ताप बिखरता संताप रेत पर । रास्ते भटक गये जैसे टूट रहे घर-द्वार , अब भटक गया नदियों का पारावार , आँगन के आँगन में बनती जैसे दीवार , अतीत अंतस्थल के मुहानों पर बसते नगर , शिव ने कालकूट गरल लिया धर , बनाया मनुजता का अमृत सरोवर , शहर पनारों से भरपूर बहा रहा , ज़हर का नहर । बोझिल नदी दम तोड़ती जो कभी थी जीवों का घर । सैकत शैय्या पसरी श्वास प्रश्वास निसि - बासर , सुनी है सरसराहट भरी घुटती श्वास अक्सर , अल्प बसेरे खगकुल के , शान्त हो गया कल-कल , माँ की भला कोई आह सुने क्योंकर , गंगा सागर अपलक पाप गठरिया रही निहार , पुकार जह्नुसुता का रुधित हृदय बार-बार , सदियों से कर रही मानवता का संस्कार । कोई तो सुन ले माँ की प्रतीक्षित पुकार , मलिन घट-तट , घाट का कर दे उध्दार , सदियों से कर रही म...