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काहें को रोना

  बाबा अब पूछते नहीं -   किससे मिलने गई थी , किससे बतिया रही थी  ?   अब बोलते भी नहीं  , शब्द अब गुम से हो गए हैं ।   ज़िन्दगी कैसी हो गई , उनकी उत्तेजना खो गई है।   झुंझलाते भी नहीं बस हमसे कुछ दूर से हो गए हैं।   बाबा अब पूछते नहीं -किससे मिलने गयी थी ।   बाबा बस हम दूर तुमसे हो गये है ...........   मोबाईल अंगुलियों सहारे    है बातें भी इसी इशारे है ।   कोई आवरण नहीं है , ज़िन्दगी    किताबी अक्षर हो गई है ।     बतियाती नहीं    मानों बातें गांव से शहर हो गयी है ।   सामने की छींक कहर हो गई , लरजती किलकारी कहां खो गयी है ।   तरसते अब अपनी खुशी को हैं , पुचकार ,  ठुमके    कहां गयी है ।   मुड़कर    भी    देखने की चाहत  , सब छूटी    अपनी पुरानी आदत ।   बाबा अब पूछते नहीं -किससे मिलने गयी थी  ?   कहां    किससे मिलने गयी थी  ,  कोई नहीं सब शून्य हो गया ।   आज फिर लग रहा    जैसे    शकुन्तला की अंगूठी मानों खो गई     ।   कहां    किससे मिलने गयी थी । शरमाना गुस्साना सब भूल गए ।   प्रश्न    मन को व्यथित करते कहाँ    गये  , किससे मिलने कोई पूछता नहीं है । व्यथित मन पूछ ही लिया बाबा काहें को रोना ।