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जनवरी, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

Clay Drinking pot कुल्हड़

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☆☆☆☆☆ कुल्हड़ ☆☆☆☆☆ भारतीय संस्कारों में मिट्टी का सबसे उपयोगी पात्र कुल्हड़   रहा है, जीवन से जुड़ा प्रतिपल इसका उपयोग सबसे अधिक शुद्ध पात्र के रुप में मान्य और प्रतिष्ठा प्राप्त है। हमारे देश में ऐतिहासिक आंकड़ा तो नहीं है कि सबसे अच्छा कुल्हड़ कहाँ का है लेकिन अपने छह दशक के अनुभव से बनारस के कुल्हड़ ग्रामीण अंचलों का भरुका के आगे किसी दूसरे कुल्हड़ को नहीं स्वीकार कर पाता हूँ । उसका कारण भी है एक तो वजन में हलका होता है । दूसरा पतला होता है । तीसरा उसमें सुबह लोग चाय का लुफ्त तो शाम ठंडाई का आनन्द लेते है । यह रोजगार बाजार भी देता है पूरा परिवार रोजगार से जुड़ता है । इसमें अपने गंगा मईया की सोंथी माटी की सुगंध होती है जो कहीं नहीं मिलेंगी सिर्फ कुल्हड़ में मिलेगी बनारस में इसे पुरवा, भी कहते है कुछेक स्थान पर इसका उपयोग देशी मयखाने में भरपूर होता  है वहाँ इसे चुक्कड़ नाम से ख्याति प्राप्त है । बनारस में चाय पीते नहीं है चाय की चुस्की लेते है  और चुस्की कुल्हड़ में स्वाद देते है, उसके बाद असीम आनन्द की अनुभूति होती है, जिसे परमानन्द कहते है, फिर मंगाइयें कुल्हड़ और चाय पीकर देखिये फ

शैवाल गीत

 शैवाल -गीत  ~~~~~~ उकेरता हूँ, गीत शैवालों के , प्रीत , रीत के बिखेरता हूँ , शैवाल के वितान पर , नया, राग छेड़ जाता हूँ । बात, नयी छोड़ जाता हूँ , कसक, मीन की रह जाती है , कैलेण्डर चित्र सरीखे , अतीत हो चले शैवालों के । देखी किसने काई , सावन दादुर टेर भेजने के , केंचुआ विहीन मेड़ , छोड़ खेत की सीता देखता हूँ , पोखर छोड़ टिड्डीयाँ , लोहित शाम खोजता हूँ , शैवाल चादर थे, मीन की धरोहर , वही तल्प टिड्डी की, दादुर थे उसके चौकीदार , शरद सुहाते सिंघाड़े के, शैवाल हुए संघाती , प्रति-पर्वों की ऊपज, इसी से आती , पर जलमुर्गी खिंची लकीर सरीखी , प्रकृति की मार , शैवालों पर नीति के, नये रुप को उतारता हूँ । बने दरारों के खेत , शैवाल,सीप,मोती निहारता हूँ । रेत में छवि अतीत की, निज निखारता हूँ । शैवाल की ओट में निखरता हूँ उभारता हूँ । प्रीत बहोरता हूँ शैवालों के साथ, शोकाकुल पछताता हूँ, ताल-तलैया-पोखर के घहराते संकट में, गहराता जाता हूँ, यक्ष -प्रश्न ? सम्मुख शैवालों के, गीत बिम्बित ,प्रतिबिम्बित करता हूँ । खीचता,खरोचता हूँ , नित मीत शैवाल गीत सहेजता हूँ ।  ताल-तलैयों में निगराता हूँ । शैवालों के गीत ग

Do this is to be in Benaras

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 भरम न करा भईया, ~~~~~~~~~ हमरा के जाये के हव , ~~~~~~~~~ तोहरा के जाये के हव , ~~~~~~~~~~~ एक दिन धरती के कोरा , ~~~~~~~~~~~ भरम न करा भईया, ~~~~~~~~~~ ई दुनियाँ ना तोहरा हव ना हमरा ।। ~~~~~~~~~~~~~~~ यह उस साधु कबीर की पंक्ति है जिसे मैं सात बरस की आयु से अपनी माँ की अंगुली पकड़कर ग॔गा मईया के जल से नहान करने के लिए पिसनहरिया से दशाश्वमेध तक ब्राह्म मूहुर्त में लगभग चार बजे सुबह भोरहरी में हाफ नेकर और बुशर्ट पहनकर वह भी मेरी माँ ने ही मुझे ठीक ढंग से पहनायें है, नंगे पैर पूरे उत्साह के साथ नियमित अभ्यास की तरह आज भी निकल पड़ा । रास्ते भर की चाय भट्टी हमेशा की तरह कुछ सुलगाई जा रही थी कुछ पर चाय बन रही थी । हुकुलगंज में कहीं-कहीं मुर्गे की बांग सुनाई पड़ रही थी चौकाघाट पर शान्त माहौल,जगतगंज के बाद लहुराबीर पर चन्द्रशेखर आजाद की रौबदार मूछें मुझे उत्साह दे रही थी । एक ओर बसन्त बहार दूसरी ओर नियाग्रा के दोसे की याद आ गई । चेतगंज की सोंधी चाय की बात अलग है ,लेकिन आज बेनियाबाग के मोड़ पर बाबा कबीर दास के भजन की लाइन जब नहीं सुनाई पड़ी । तो मेरे कंठ बरबस फूट पड़े-यह जग ना तोरा है ना मोरा औ

मेहनाजपुर

                                  मेहनाजपुर                                    ¤¤¤¤¤¤¤ मेहनाजपुर में मैंने क्या ऐसा था कि मेरा साठ साल पहले का बाल मन एक बार फिर इस  कोरोना काल में अपने आप को ले जाकर  वैसे ही भ्रमणशील अवस्था में छोड़ दिया जहाँ मैं अपने आपको उसी रुप में आत्मिक रुप से देखता हूँ कि इस स्थान पर बायीं ओर राजकुमार साव की परचून की दुकान है जो बनारस पाण्डेयुर चौराहे के सरजू साव के सगे सम्बन्धी रहे दाहिनी ओर जूनियर हाई स्कूल मेहनाजपुर बड़े अहाते के साथ था। यहाँ कोई दो राहा तिराहा या चौराहा नहीं एकदम सीधा रास्ता सिधौली से तरवां की ओर जाता हुआ या चिरैयाकोट की बसें लगी मिलेंगी। वाहन चलाने वाले से लेकर टिकट लेने वाला भी सभी को अच्छी तरह से जानता था, कौन किस गाँव उतरेगा छोटा बच्चा है तो संभालकर उतारने की पूरी जिम्मेदारी लेता है । सभी सुरक्षित जाते आते है हमारी तो यादों में आज भी ऐसा ही मेहनाजपुर बसा हुआ है । जैसा हम अपने नानी के घर जाते समय बस स्टैंड परचून की दुकान उसके पीछे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और उसी से जुड़ी नहर के दोनों ओर के रास्ते बस बायें रास्ते पर चलें डीह बाबा से आगे बढ

Benaras and River Ganga

 बनारस और हमारी गंगा मईया  卐卐卐卐卐卐ॐ卐卐卐卐卐卐 समष्टिगत भावनाओं के बीच  चराचर जगत् का  सजीव जीवन वाला शहर बनारस विश्व की अनूठी मिसाल का है, सतत् घाटों की श्रृंखला का शहर, जहाँ मरने पर मोक्ष है, ज्ञान प्राप्त करने पर मोक्ष है, और सब कुछ ज्यों का त्यों त्यागने का पुण्य है, ऐसी सौहार्दपूर्ण भावना एक गमझाधारी, लुंगीधारी, पतलूनधारी से लेकर पायजामा और हाफ और फुल पोशाकधारी में सहज मिल जायेगी । पता नहीं क्या है, प्रसाद लेने से ज्यादा पानी का आचमन करने की भीड़ रखने वाले संकटमोचन में जाने के बाद पता चलता है कि तुलसी बाबा को यहाँ का पानी क्यों रास आया, इतनी मिठास कि पाचन शक्ति मजबूत ही नहीं अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमतावान भी है । ऐसे ही शहर में पिंगसन साहब को गंगा और घाट के किनारे का जीवन समझने में बनारस समझ आया कि रईसी क्या होती है और ठाठ क्या होता है । मैंने अपने बचपन के पृष्ठ को देखकर सोचा आखिर हम भी तो बहुत दूर निकल आये अपने  लोग चना चबेना गंग जल जो देवै करतार काशी कबहु न छोड़िये विश्वनाथ दरबार इस भाव को  सहेजने में लगे हुए है । लोग भले शहर में नया पत्थर लगा दें, पूजा तो जायेंगा वही जिसमें हमारी

Victoria Lamppost

  विक्टोरिया लैम्पपोस्ट  ^^^^^^^^^^^^^^^^^^ अइसन ज़िनगी ,  रस्ता, बस्ता, शेर,सियार, कुकुर,बिलार , कोयल,कौआ, पपीहा क पुकार। सब सुनत कट गईल  ,  डाड़ा,मेंड़ी, खेत खलिहान,  बिहान, दिन, दुपहर, सझियार, भयल अन्हियार, माई आजी जोगावें दियना तुलसी चौरा,  बाबू, डरे से रहे, सब काबू।  राशन, डिपो  तेल लाइन, जमा अदला-बदली असली-नकली,  छेदहा-तेलहा, व्यथा कथा , हिन्दुस्तान वैसे चलत हवै,  सांझ सियापा ओढ़े चादर,  धुआंसे लकीर सांझ सकारें,  खेलाड़ी मैदानें लौटे घरे दुआरे,  गाय-बछवा जैसे पुकारें , पांव पखारे , माई के अंगना डिबरी क बाती,  संझियाती जगमग आती।  कांच की शीशी सूती क बाती,   घासलेट से उजियार कर जाती ।  बरीसन बीत गईल , चूल्हा के आग में सोंधी रोटी, दुआरे नीमिया क पाती , अजुऔ भी सुहाती,  लाइन से ऑनलाइन जिनगी उरझा जाती । सझियारे दुआरे धूर उड़े माटी,  अंन्हियारे अतीत क परछाई देखत बाटी।  धीरे-धीरे पुरनका खड़हर दुआरे, विक्टोरिया लैम्पपोस्ट निहारे ।  रोज सझियारें येही बेचारा , लियावे उजियारा , मईया ,अईया के उजार,  जिनगी के बयार,  बेचारे क उजार , प्रगति क बहार ।  शहरी बाबू भी जान लें । ई हर दिन संझा बेरी, र

Mal,Item,Material, Smart,Good

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 माल , आइटम ,सामान ,स्मार्ट,बढ़िया  ^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^ पत्थर के घर्षण से निकली अग्नि , हिरण के सींग से उलझी अरणी  के घर्षण से उपजी अग्नि,ने मानवता को पेट से समृद्ध किया पत्थर की खरोच और बोलने की भांति - भांति की आवाजें मानवीय रिश्तों की  स्रोत बनीं । प्रगति पहियों के युग से बढ़ चला विष्णुगुप्त यानि चाणक्य ने सभी तरह से समाज को सुरक्षित रखने का शास्त्र दिया ।   घर की सामाजिक पूजा-अर्चना के शब्द में सामान, माल ,आइटम भी आ चुके है, पूजन सामग्री लुप्त हो रहे है। गीत संगीत भी आइटम के विषय और तराजू पर तौले जा रहे हैं। सजावट ब्यूटीफुल है। आने वाले स्मार्ट लोग थे, खाने में माल कहाँ का है। सब सामान्य प्रयोगमूलक शब्द है ।  वस्तु विनिमय प्रथा के देश में मानवतावाद को व्यापारवाद के शब्द समाज और परिवार के साथ ही भारतीय व्यवस्था को तार- तार कर देगें यह कभी सोचा नहीं जा सकता है, इसका कारण उन्मुक्त बाजारीकरण और डिजिटल इंडिया के उपादानों का प्रयोग है, अभी तक न लीले जाने योग्य यानि अश्लील साइट, एप से सरकार जूझ ही रही थी शब्दावली से भी जूझने की जरुरत आ पड़ी है । टी आर पी , से निकल नहीं पाये थे