Clay Drinking pot कुल्हड़


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कुल्हड़
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भारतीय संस्कारों में मिट्टी का सबसे उपयोगी पात्र कुल्हड़   रहा है, जीवन से जुड़ा प्रतिपल इसका उपयोग सबसे अधिक शुद्ध पात्र के रुप में मान्य और प्रतिष्ठा प्राप्त है। हमारे देश में ऐतिहासिक आंकड़ा तो नहीं है कि सबसे अच्छा कुल्हड़ कहाँ का है लेकिन अपने छह दशक के अनुभव से बनारस के कुल्हड़ ग्रामीण अंचलों का भरुका के आगे किसी दूसरे कुल्हड़ को नहीं स्वीकार कर पाता हूँ । उसका कारण भी है एक तो वजन में हलका होता है । दूसरा पतला होता है । तीसरा उसमें सुबह लोग चाय का लुफ्त तो शाम ठंडाई का आनन्द लेते है । यह रोजगार बाजार भी देता है पूरा परिवार रोजगार से जुड़ता है । इसमें अपने गंगा मईया की सोंथी माटी की सुगंध होती है जो कहीं नहीं मिलेंगी सिर्फ कुल्हड़ में मिलेगी बनारस में इसे पुरवा, भी कहते है कुछेक स्थान पर इसका उपयोग देशी मयखाने में भरपूर होता  है वहाँ इसे चुक्कड़ नाम से ख्याति प्राप्त है । बनारस में चाय पीते नहीं है चाय की चुस्की लेते है  और चुस्की कुल्हड़ में स्वाद देते है, उसके बाद असीम आनन्द की अनुभूति होती है, जिसे परमानन्द कहते है, फिर मंगाइयें कुल्हड़ और चाय पीकर देखिये फिर बतलाइये  । यह राष्ट्रीय सरोकार से जुड़ा हुआ है, पत्रकारीय नगरी का प्रतिनिधित्व मिठास, खटास सुख-दुःख सब कुछ में साझेदार कुल्हड़ ही  होता है, इसे बहुत संभाल कर पकड़े,भरें हाथों यह शोभायमान होता है और यह कुल्हड़ खाली  होते ही एक निर्धारित स्थान पर ढेर हो जाता है । यह पूरी  तरह से कबीरपंथी है, इसका सिद्धांत है कि माटी से आया था माटी में मिल जायेगा । 
दुर्भाग्य है, ताल-तलैयों के देश में अच्छी मिट्टी के अभाव है। वर्तमान समय में कुल्हड़ आकार-प्रकार मंहगाई से ग्रेड़ में बनने लगा है कट साइज से मीडियम और फुल हो गया है । प्लास्टिक के कप आने से प्रभावित कुल्हड़ धार्मिक कार्य तक सीमित हो रहे है,कुछ प्रदेश विशेष कर उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्य मंत्री अखिलेश यादव नेताल तलैया और उद्यम पर ध्यान दिया था, पूर्व रेलमंत्री लालू यादव ने ट्रेन में कुल्हड़ प्रयोग अनिवार्य किया था । आज आत्मनिर्भर भारत की बात होती है राज्यों का दायित्व बनता है ऐसे उद्योग विशेष रुप से शुरु हो कार्यालय में इन उत्पादनों की खपत भी की जाय । 
मोटे कुल्हड़ अधिक मिट्टी की खपत कराते है और  बेडौल आकार से चाय पीने पर कुल्हड़ का ऊपरी भाग नाक को आड़ता है । बिहार के मोहनिया ही नहीं जौनपुर में, इलाहाबाद या जहाँ भी विश्वविद्यालय छात्रसंघ या विश्वविद्यालय का चौराहा है वहाँ के लिए छोटे आकार के हाफ कट टी सप्लाई आर्ड़र के झमेले से बचने का कुल्हड़ भी उद्यम होता है,भारतीय राजनीति में कुल्हड़ वोटर को रिझाने का तरीका है और स्लोगन भी है जिसने चाय पिलाई है उसका टेम्पो हाई है। भारतीय बैंक इस दिशा में अच्छा सहयोग देते है, दुर्भाग्य है कि उद्यमी के पास अपना तालाब नहीं है । चेन्नई के कुल्हड़ गमले जैसे और कलाकृति के साथ मोटी परत के ऊंचाई लिए होते है पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी होते है किन्तु उनमें कलाकृति नहीं होती है । 
खबरों की जुगाली में कुल्हड़ बनाम कुल्हड़वाद लिखते समय आदरणीय  श्रीलाल शुक्ल जी लिखते है कुल्हड़ अच्छी बात है कुल्हड़वाद मर्यादा की बात है । ट्रेन से प्लास्टिक हटाना अच्छाई का प्रतीक मानते है । मल्टीनेशनल कम्पनियों के दौर ने प्लास्टिक उत्पाद कर पत्तेदार खेतों वाले वृक्षों से लेकर  गाँव  की जमीन की मिट्टी पर घेरा बंदी कर दी, परिणामस्वरुप कागज़ में चिपके प्लास्टिक और और गरम पानी चाय हमारे साथ हमसे जुड़ाव रखने वाले पालतू पशु को अधमरा किया यहाँ तक कि हमारी गौ माता के प्राण घातक पात्र का काम  किया,ये प्लास्टिक मल्टीनेशनल के गुणों से सम्पन्न चमकदार अवगुणों से युक्त जानलेवा  अवतार का काम करने लगे  । धीरे-धीरे जनमानस ने अपने पर्यावरण के साथ गोवंश, श्वान विनाश  अपने ग्रामीण सुरक्षा के केन्द्र बिन्दु मुंशी प्रेम चंद की कथा "पूस की रात "की कथा के पात्र कुत्ते को गांवों में लुप्तप्राय पाया तो कारण समझ आने लगा कि हमारा पर्यावरण हमसे छीन सा गया और जिस दशक में यह प्लास्टिक पात्र उपजा था उसी दशक के अंत तक औधे मुँह गिर पड़ा कुछ लोग हेकड़ीवश या कामचलाऊ व्यवस्था में  चला रहे है अन्यथा समाज पारम्परिक व्यवस्था की पटरी पर आत्मनिर्भर होने की तैयारी करने की ओर अग्रसर हो चला है और पलाश ( टेशु, ढाक ) के दिन फिर बहुर गये है , और सचेत समाज अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को तैयार  हो गया है । इस क्रम में कुल्हड़ हाथों-हाथ स्वीकार्य हो चुका है । रसगुल्ला, रबड़ी,से दही मट्ठा ठंडाई, चाय से पानी और भगवान् का प्रसाद चरणामृत तक कुल्हड़ की शोभा का विषय है  । 
इसे अतीत के रोजगार समृद्धि से वर्तमान को संवारने को कहते है। 
कभी-कभार इसे सिकोरा भी कुछ एक कहते है लेकिन कुल्हड़ सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है । मऊ,ग़ाजीपुर, आजमगढ़ में भरुका प्रसिद्ध नाम है। आज छोटे मटके तक के आकार भी कुल्ड़वाद की कोटि या श्रेणी गिने जाने लगे है, भारतीय संस्कारों में कुल्हड़ की मांग पहले होती है। बहुत आकारों के कारण पूजा-पाठ से लेकर खान-पान और अन्य छोटे-छोटे आयोजन में  कुल्हड़ उपयोगी होता है । इसी बात से समझ सकते है कि यह कितना पवित्र पात्र है, कुल्हड़ और भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण पल जीवन के साथ इससे जुड़ा हुआ है । धन्य है महाप्रभु प्रजापति जिनके प्रभाव से यह  कुल्हड़ प्रभूत हुआ है । 
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