तुकान्त कलि
तुकान्त कलि तृषित मन हर्षित, तन कलि का यौवन , प्रभुता पल्लवित, मनुज ढूंढ रहा प्रकृति उपवन । धरती का स्वर्ग है यहीं पर , यहीं है गंगों –जमन, अट्टालिका के अट्टहासों में , बुझी- अनबुझी मानवता का नयन । कल-कल नदियों में शांत , हो गया कलरव खंजन ।। पवन को क्यों कोसते , मसोसते क्यों अपने मन । प्रतिकूल परोसने का प्रतिफल , जहरीला हो रहा आँगन , नयी सोच में नये फलक में , खो गया कान्तार -वन -कानन ।। अब पूजन कहाँ ? पूरब के सूरज का , किसको प्रतीक्षा संध्या वंदन । चकाचौध में भूल गया , वेश - भाषा और अपना चाल-चलन , बदले नाम गलियों के, गलों के सुर बदले, बदल रहा चमन ।। प्रगति के नाम कुछ भी मिल जाय, जयकारा करो नमन । दुर्गति अब है सझियारा , बांट जोहती घटना और मरण , मनु सन्तति सचेत हो कब ? मानवता का करे वरण , प्रांगण हर घर बाग़ -बगीचे हो , कब होगा शुध्द सपन ? सझौती होगी प्रेम भाव संग, मिल जिए करे गन्तव्य गमन । एकता के संकल्पों का व्रत , जीवन में ले करें आचमन ।। आगत का करते स्वागत, तथागत , बोधि बुध्द, न्यग्रोध शुध्द, प्रबुध्द बन ।। *****