तुकान्त कलि
तुकान्त कलि
तृषित मन हर्षित,
तन कलि का यौवन ,
प्रभुता पल्लवित,
मनुज ढूंढ रहा प्रकृति उपवन ।
धरती का स्वर्ग है यहीं पर ,
यहीं है गंगों –जमन,
अट्टालिका के अट्टहासों में ,
बुझी- अनबुझी मानवता का नयन ।
कल-कल नदियों में शांत ,
हो गया कलरव खंजन ।।
पवन को क्यों कोसते ,
मसोसते क्यों अपने मन ।
प्रतिकूल परोसने का प्रतिफल ,
जहरीला हो रहा आँगन ,
नयी सोच में नये फलक में ,
खो गया कान्तार -वन -कानन ।।
अब पूजन कहाँ ?
पूरब के सूरज का ,
किसको प्रतीक्षा संध्या वंदन ।
चकाचौध में भूल गया ,
वेश - भाषा और अपना चाल-चलन ,
बदले नाम गलियों के,
गलों के सुर बदले,
बदल रहा चमन ।।
प्रगति के नाम कुछ भी मिल जाय,
जयकारा करो नमन ।
दुर्गति अब है सझियारा ,
बांट जोहती घटना और मरण ,
मनु सन्तति सचेत हो कब ?
मानवता का करे वरण ,
प्रांगण हर घर बाग़ -बगीचे हो ,
कब होगा शुध्द सपन ?
सझौती होगी प्रेम भाव संग,
मिल जिए करे गन्तव्य गमन ।
एकता के संकल्पों का व्रत ,
जीवन में ले करें आचमन ।।
आगत का करते स्वागत,
तथागत ,
बोधि बुध्द,
न्यग्रोध शुध्द,
प्रबुध्द बन ।।
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