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भेड़िया और कबीर

  भेडिया और कबीर    ******* हो   रहा   कालचक्र   का    फेर   । भेडिया   हो    गया   दो   पैर   । बगुले    उजलेपन    से   मनाते   खैर   । अब   तो   अपनेपन   से   हो   रहा   बैर   । कबीर   की   बानी   का   था   टेर   । ताते   तो   कौआ   भला , तन - मन   एक   ही   रंग   । दो   पैर   भेड़िया   ओढ़े   उज्जर    रंग , बगुले   भी    मात   खा   गये  , श्वेतवसन    खीर   भात   खा   गये   । जंगल - पहाड़ - नदी   छोड़   शहर   आ   गये   । योजनाओं   में   कुछ   ऐसा   छा   गये   । एक   साथ   कई   शिलान्यास   आ   गये   । गाँव  - नगर   का    साथ   खा   गये   । जाड़ा   गरमी   बरसात   पचा    गये। बाजारीकरण   के    मुखौटे   बना   गये   । हौसले   से   फैसले   तक  , पीत - स्याह - सफेद   में   छा   गये   । फक्कड   कबीर   थे , फक्कड   रहे   फक्कड़ी   में   समा   गये   । उज्जर   रंग   के   गुण समय   रहते   समझा   गये। इंसानियत   का   श्वेतपत्र   दिखला   गये   ।।     ----0----  45- भेडिया और कबीर