भेड़िया और कबीर

 

भेडिया और कबीर  

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हो रहा कालचक्र का  फेर 

भेडिया हो  गया दो पैर 

बगुले  उजलेपन  से मनाते खैर 

अब तो अपनेपन से हो रहा बैर 

कबीर की बानी का था टेर 

ताते तो कौआ भला,

तन-मन एक ही रंग 

दो पैर भेड़िया ओढ़े उज्जर  रंग,

बगुले भी  मात खा गये ,

श्वेतवसन  खीर भात खा गये 

जंगल-पहाड़-नदी छोड़ शहर  गये 

योजनाओं में कुछ ऐसा छा गये 

एक साथ कई शिलान्यास  गये 

गाँव -नगर का  साथ खा गये 

जाड़ा गरमी बरसात पचा  गये।

बाजारीकरण के  मुखौटे बना गये 

हौसले से फैसले तक ,

पीत-स्याह-सफेद में छा गये 

फक्कड कबीर थे,

फक्कड रहे फक्कड़ी में समा गये 

उज्जर रंग के गुण

समय रहते समझा गये।

इंसानियत का श्वेतपत्र दिखला गये ।।

 

 

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45- भेडिया और कबीर


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