मुंशी अजमेरी



          बुन्देलखण्ड के साहित्य तीर्थ चिरगाँव में जिस मनीषी ने जन्म लिया, उसी की भेरी से वणिक समाज साहित्य में सफल हो सका यह हरिवंश राय बच्चन जी ने अपनी रचनाधर्मिता में लिखा “बजती क्या मैथिलीशरण के काव्य कीर्ति की भेरी, मिलते अगर न उनको प्रेरक गुरु मुंशी अजमेरी। “

खीमल,जैसलमेर राजस्थान निवासी, डिंगल कवि एवं गायक श्री भीखा जी  और उनके पूर्वज ठेठ मारवाड़ में जैसलमेर के रहने वाले थे । श्री भीखा जी को जैसलमेर से उस समय के रईस राव पालीवाल को आग्रहपूर्वक चिरगाँव बुला लिया गया था । जीवन सन्तति के सुपुत्र की कामना से भीखाजी अजमेर शरीफ जाकर प्रार्थना करने गये हुए थे । भीखा जी जैसलमेर से अजमेर आ रहे थे, अजमेर पहुँचते-पहुँचते उनके ज्येष्ठ पुत्र ईश्वरदत्त का देहांत हो गया । मार्ग में उपजे  शोक को भीखा जी तब तक नहीं भुला सके जब तक चिरगाँव जाने पर प्रेमबिहारी का जन्म नहीं हो गया,  अजमेरी जी के पिता भीखा जी कनकने देशी घी व्यापारी के यहाँ मुंशी का काम करने लगे थे वही से पारंपरिक मुंशी पदवी चल पड़ी वैसे देश में साहित्य के तीन मुंशी हुए कन्हैयालाल माणिकलाल, प्रेमचंद और अजमेरी जी ।

         अजमेर की उस दु:खद स्मृति में  प्रेमबिहारी ‘मुंशी’ जी को अजमेरी नाम से पुकारा जाने लगा,मुंशी अजमेरी ढाढ़ीकुल के थे ,इनकी कुलदेवी तेमड़ाराय है । ये पालीवाल के याचक रहे है। पालीवाल वैश्य या ब्राह्मण होते है । ढाढ़ी अपने को पहले ब्राह्मण कहतेथे। किसी मुस्लिम विजेता ने पुरखो को मुसलमान बना दिया यजमानी ढीली पड़ने से ये लोग दूसरे काम करने लगे । भीखा जी का यजमान चिरगाँव में रहता था, इसलिए वे यहाँ चिरगाँव आये । लखनऊ झांसी नेशनल हाईवे नम्बर 25 पर तीस किलोमीटर पहले चिरगाँव कस्बा है । यहाँ कवियों को रस भरते मुंशी अजमेरी रहते  जिनके अतिरिक्त कनकने परिवार के मैथिलीशरण गुप्त और छोटे भाई सियारामशरण गुप्त जी भी अजमेरी जी इनके अंग रक्षक, मित्र, और संरक्षक रहे । वैसे मुंशी जी को किसी कारण वश मुसलमान भले रहे पर मन से वैष्णव ही रहे एक विवरण के अनुसार उनका जन्म  अगहन सुदी 2, संवत् 1938, विक्रम तारीख 24 नवम्बर 1886 ई० को हुआ,किन्तु उन्होंने अपने में संस्कार हिंदू वैष्णव के रखकर जीवन जिये ।  पहनावे में गाढ़े का कुर्ता धोती हाथ में लठ यही उनकी पहचान रही । ओरछा नरेश वीरसिंह जूदेव पर इनकी प्रतिभा को देखकर प्रभावित होने के कारण उन्होंने अपने आश्रय में राजकवि बनाया और 50 रुपये प्रति माह वृत्ति भी दी थी । कविसम्मेलनों में आपकी प्रसिद्धि भी रही थी । समस्यापूर्ति और आशुकविता में भी निपुण थे । आपकी कथात्मक रचना उत्तम होती थी । मैथिलीशरण की गहरी दोस्ती मुंशी अजमेरी से थी, मैथिलीशरण गुप्त  जी के विवाह के समय जब दूल्हे को खिलाने का इंतजाम हो रहा था,मुसलमान होने के कारण अजमेरी को खाने के लिए दरवाजे के बाहर बैठा दिया गया था। सभी मैथिलीशरण और उनके पास के पत्तलों पर ही खाना परोस रहे थे । किसी का ध्यान अजमेरी के पत्तल पर नहीं गया। दोनों ने अंततः एक-दूसरे की ऑखों में देखकर योजना बना ली । दोनों एक-साथ विवाह स्थल से उठकर बाहर चले गए। कोहराम मचा और जब वजह मालूम हुई, लोग ढूँढ़ने लगे कि आखिरकार वह अजमेरी कौन है जिसकी उपेक्षा से दूल्हा नाराज हो गया है। इस तरह का माहौल था उस जमाने के हिंदू-मुस्लमान का प्रेम। (सभ्यता से संवाद भारत को फिर से खोजते हुए)

मुंशी अजमेरी की प्रकाशित कृतियां मधुकर शाह,गोकुलदास(प्रतापी गोकुलदास की अमर कथा), हेमला सत्ता(48पृष्ठ का हेमलजाट की कथा)तथा चित्रांगदा(रवीन्द्र नाथ ठाकुर रचित महाभारत कथा से बंगला का हिन्दी अनुवाद ) रही। मधुकर शाह में महाराजा मधुकर शाह की धार्मिक निष्ठा का चित्रण है सम्राट अकबर ने दरबार में तिलक लगाकर आने की मनाही कर दी थी लेकिन महाराजा मधुकर शाह तिलक लगाना नहीं छोड़े इस पुस्तक में ओरछा तथा लालकिले का वर्णन है मुंशी अजमेरी की संस्कृत विद्वत्ता इसमें समर्पित है-

रसिक काव्य संगीत के जानत धुनि अवखे। 

वीर बुँदेला बाँकुरे वीरसिंह जूदेव। -प्रकाशन की दिशा में श्री सियारामशरण गुप्त जी द्वारा अजमेरी जी जानकारी में लाये गये । 

सियारामशरण गुप्त जी ने झूठ सच में लिखा है कि मुंशी अजमेरी जी ने कवि बनने की योग्यता और वास्तविक जानकारी छन्द मात्रा ज्ञान सब सिखलाया वसन्ततिलका छन्द के बारे में गूढ़ जानकारी उनसे ही मिली,  फिर कवि बनने की लालसा बढ़ गई। मुंशी अजमेरी डांटते भी थे । योग्य संरक्षक की जिम्मेदारी निभाते थे, सिखाते थे ,उस समय छन्दोबद्ध कविता का बोलबाला था। दुर्गुण से बचाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे । मैथिलीशरण जी की कविता की प्रतिलिपि मुंशी जी ही करते थे । अजमेरी जी रायसा यानि रासो के अच्छे जानकार रहे और लोगों को सुनाते भी थे। अजमेरी जी का विवाह उनके बड़े भाई शीतल ने नरसिंहगढ़ में रचाया ढाढ़ियों में लड़का दहेज देता अजमेरी ने दो ऊंट भी दिये उन्हें चराने ससुराल रहना पड़ा, बुद्धि कौशल से ससुराल फांस से निकल आये। मुंशी अजमेरी जी के तीन पुत्र थे। सबसे बड़े पुत्र का नाम गुलाब राय था,जिसे शहजादा के नाम से लोग जानते थे वे साहित्यिक अभिरुचि के थे एक हिन्दी साहित्यकार थे, उन्होंने सुमिरनी पोथी रची, दूसरी सन्तान पन्नालाल मध्यम पुत्र कथाकवित्त के रचनाकार रहे युवावस्था में दिवंगत हो गये । सबसे छोटे पुत्र जंगबहादुर यानि जंगली आकाशवाणी लखनऊ में संगीत के स्टाफ आर्टिस्ट रहे ग्वालियर संगीत महाविद्यालय से  इन्होंने पढ़ाई की थी । इनके पौत्र  द्वारा साहित्यक परम्परा जारी है गुणसागर शर्मा जी बुन्देलखण्ड की शान है। विद्यासागर और ज्ञानसागर भी इस दिशा में मर्यादित और सराहनीय कार्य कर रहे है। भीखा जी और सेठ रामचरण कनकने का सौहार्द ही था कि अजमेरी जी कनकने परिवार के छठे पुत्र बनकर रहे, राष्ट्रीय विचारों के कारण लोग उन्हें महात्मा जी कहते उनका कहना था महात्मा तो गांधी जी है और मैं उनका भक्त हूँ, 11 सितम्बर 1929 को महात्मा गाँधी ने उनके प्रति पत्र लिखकर अपने विचार भेजे थे। अपनी पत्नी के निधन पर कवित्त लिखा अहो बसन्त आज तुम आओ, मेरे द्वार आओ। पुहुजन प्रस्तुत, भग्न प्रबंध आसन, सनो, दीपक अंध, मो गृह कौ श्रीहीन, दैन्य लखि हँसि रोकन पाऔ।

अन्तिम कविता अरे, यह मुझको क्या हो गया हूँ मैं वही कहूँ यह कैसे कुछ तो बदल गया हूँ जैसे पहले कब फिरता था ऐसे। क्या जाने क्या ढूँढ़ रहा,क्या जाने क्या क्या खो गया अरे, यह मुझको क्या हो गया ? मुंशी जी की पत्नी उनसे बाईस साल पहले दिवंगत हो गई थी अन्तिम दिन से एक दिन पहले बेहोश हुए थे झांसी से डाक्टर आया था ज्येष्ठ की प्रतिपदा थी मुंशी जी डाक्टर के आश्वासन के बाद भी मुंशी जी न रहे अन्तिम शब्द मैथिलीशरण!मैथिलीशरण!दो बार बोले कब्रिस्तान मुंशी जी लाये गये जनकपुर, अयोध्या तीर्थ की मिट्टी रेणुका और गंगाजल साथ चढ़ाई गया किसी को कोई ऐतराज नहीं सत्य अपने स्वाभाविक रुप में समाज के सामने 25 मई 1937 मुंशी को स्मृत कर गया सब मौन रहे ।


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