आचार्य परशुराम चतुर्वेदी और चलता पुस्तकालय

 


हिन्दी साहित्य की सन्त परम्परा का उद्घोष लिखित रुप में शिखर, मुखर और मानकीकरण के साथ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जी ने ब्राह्म मुहूर्त की गंगा स्नान और तप साधना से आत्मसाध करके जनमानस के बीच पहुंचाने का काम किया , उसी गाँव के दूसरे छोर पर बैद्यनाथ द्विवेदी यानि हजारी प्रसाद जी भी निवास करते थे । किन्तु चतुर्वेदी जी का जन्म 25 जुलाई 1894 को जवही गाँव में पं०राम छबीले चतुर्वेदी के घर हुआ था और आचार्य हजारीप्रसाद जी 19 अगस्त 1907 को पैदा हुए थे । कबीर आदि सन्तों की परम्परा को चतुर्वेदी जी ने अपने स्तर से उत्तर भारत की संत परम्परा में मशहूर कर दिया, यही नहीं मीराबाई की पदावली को लिखने के लिए उनके घर चले गए और उनके इस उत्कृष्ट कार्य के लिए महाराज गायकवाड़ पांच हजार रुपए भी दिये ताकि यह ग्रन्थ प्रकाशित हो सके प्रकाशक ने मूल ग्रन्थ में इस बात का स्पष्ट विवरण दिया है । 

 ऐसे मनीषी को भला कोई मान सकता है कि एक पेशे से वकालत करने वाला संत साहित्य जगत का प्रकाशक होगा। पं०राम छबीले चतुर्वेदी और माता सूरजा देवी की संतान परशुराम जी की प्रारम्भिक शिक्षा व्यवस्था को देखकर उनके मामा शिवशंकर चौबे जी ने चचेरे नाना जो गवर्नमेंट स्कूल बलिया के अध्यापक थे जानकारी दी घर की पारम्परिक संस्कृत आदि पढ़ाई से अलग अंग्रेजी की पढ़ाई के लिए आप जवही से बलिया आ गये। चचेरे नाना यशोदा नन्द चौबे स्कूल छात्रावास के वार्डेन थे लेकिन उन्हीं दिनों वन्देमातरम् आन्दोलन वर्ष 1911 शुरु हो चुका था नाति को भी इस देश प्रेम के कारण स्कूल और छात्रावास छोड़कर रहने को विवश होना पड़ा । लेकिन यशोदा नन्द चौबे जी ने अधिकारियों से बात करके फिर प्रवेश दिला दिया। 1914के वर्ष में स्कूल लीविंग सर्टिफ़िकेट की परीक्षा आपने पूरी की। इसके बाद प्रयाग चले आए यहाँ कायस्थ पाठशाला में पढ़ाई शुरु की और रहने के लिए हिन्दू बोर्डिंग हाउस की व्यवस्था हुई । आपकी संगति आचार्य नरेंद्र देव,कवि सुमित्रानंदन पंत श्री दुलारे लाल भार्गव सरीखे लोगों का रहा। इण्टरमीडिएट के बाद बी०ए०1919 में प्रयाग के सेंट्रल कालेज(प्रयाग विश्व विद्यालय)से ही किया। उसके बाद बनारस आये यहाँ काशी में दर्शनशास्त्र हिन्दू कालेज से श्री अनुकूल चन्द्र मुखर्जी और प्रोफेसर अधिकारी की देख-रेख में 1922 में एम०ए० करने के बाद प्रयाग आये और पिता जी की इच्छा के अनुसार कानून का अध्ययन किया और 1925 में बलिया से वकालत आरम्भ कर दिया लेकिन पिता जी को प्रसिद्ध वकील के रुप में अपने को प्रस्तुत नहीं कर सका।पिताजी का देहांत हो गया। जिला बोर्ड का सदस्य बना, 1932 में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बने । 1935 में इस पद को छोड़ दिया । 

सहज व्यक्तित्व के धनी आचार्य जी सफल वकील और सफल संत साहित्यकार का जीवन बनाये रहे, लेकिन बाद के जीवन में साहित्यकार ही रहे। उनका पहला विवाह 1905 में  हुआ लेकिन असमय उसके निधन के कारण उन्होंने दूसरा विवाह 1912 में श्रीमती फूलवासी देवी से किया जिनसे चार पुत्र महामृत्युंजय पत्नी विमला देवी, धनंजय पत्नी कमलादेवी,रिपुंजय पत्नी अमरावती (ग्राम प्रधान रहे और 1952 में घर पर पक्के मकान की शुरुआत की ) पुरंजय पत्नी नागेश्वरी के साथ ही चार पुत्रियां थी शिवमंगली पति सुदामा चौबे,आशा पाण्डेय पति जगदीश पाण्डेय, मीरा तिवारी पति ब्रह्मानंद तिवारी भाई नर्मदेश्वर चतुर्वेदी थे।

बलिया की हिन्दी प्रचारिणी सभा, छात्र जीवन का हिन्दी परिषद यह सब उनके साहित्य प्रेम का अनूठा प्रेम है जिसकी झलक उनकी रचना धर्मिता से देखी परखी जा सकती है । 

संक्षिप्त रामचरितमानस चतुर्वेदी जी की पहली कथा प्रसंग संपादित रचना है जिसके दूसरे संस्करण में मानस की राम कथा की भूमिका जोड़ दी गई। दूसरा ग्रन्थ मीराबाई की पदावली है जिसके लिए चतुर्वेदी जी महाराणा अनूप सिंह से उनके दरबार में सम्पर्क करके और पुरोहित हरिनारायण शर्मा से उपयोगी जानकारी पुस्तक का सम्पादन किया । 

नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी के सहयोग से दादूदयाल ग्रन्थावली दुर्लभ सन्दर्भ सहयोग से तैयार की। चौथा ग्रन्थ सूफी काव्य संग्रह हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से प्रकाशित हुआ। हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर मुम्बई से हिन्दी के सूफी प्रेमाख्यान का प्रकाशन किया। साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड इलाहाबाद से नव निबन्ध के बाद मध्यकालीन प्रेमसाधना प्रकाशन में आई। किताब महल, इलाहाबाद से हिन्दी काव्यधारा में प्रेमप्रवाह उनके दार्शनिक चिन्तन का रुप प्रकाशित हुआ । उत्तरी भारत की संत-परम्परा ने एक मानक कृति स्वीकार की गई। उसके बाद क्रम से बौद्ध साहित्य की सांस्कृतिक झलक, रहस्यवाद, संतसाहित्य के प्रेरणास्रोत, संत साहित्य की परख, कबीर साहित्य चिन्तामणि ,कबीर साहित्य की परख,कबीर कोश वैष्णव धर्म, आदि ग्रन्थ प्रकाशित हुए । 1935 में चतुर्वेदी जी ने कानून के सभी पदों को छोड़कर मात्र लोगों को उचित सलाह देने का प्रयास किया और साहित्यिक चिंतन में मन लगाना शुरु कर दिया  कहते भी थे कि वकालत हमारी परिणिता थी, साहित्य हमारी प्रेयसी है । डा०शोभनाथ से संत साहित्य और बनारस जाने पर अघोर पंथी संत बाबा गुलाब दास की से संत साहित्य शोध प्रेरणा मिली । यह सब वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने उनके निधन पर लिखा । चतुर्वेदी जी जीवन के अन्तिम समय मोतियाबिन्द से परेशान थे उनका उपचार लखनऊ में हुआ उसके फिर बलिया चले गये, कहा जाता है कहीं भी रहे शनिवार इक्का से गांव बलिया और सोमवार सुबह अपने काम के लिए वापस चले जाते थे। जनवरी 1979 के तीन तारीख ऑख से खून निकलने लगा तुरंत लखनऊ गये कमज़ोरी और ब्लडप्रेशर के कारण रात दस बजते-बजते लगभग 85 वर्ष की आयु में गोलोकवास कर गये, ऐसा संत नियम संयम का धनी अमूल्य हिन्दी संत साहित्य देकर बलिया जनपद को गौरवान्वित कर गये। 

 सादर श्रद्धापूर्वक नमन ! 🌺👏

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