नागरी हिन्दी के संवाहक:महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी

 नागरी हिन्दी के संवाहक : महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी

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                                                      महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी, भारतीय नागरी, हिन्दी भाषा के शिखर पुरुष है, जिनसे, हिन्दी भाषा की गति का प्रवाह संस्कारित होता है । उन्होंने हिन्दी लेखनी की धुंधली रेखा में नवतूलिका से, जीवन रंग प्रदान करने का सत्प्रयास किया, जिस समय हिन्दी का आन्दोलन प्रगति पर था और हिन्दी गद्य की लड़ाई के साथ हिन्दी पद्य भी राष्ट्रीय आन्दोलन में बराबर आगे बढ़-चढ़कर अपना योगदान कर रहे थे, उस समय समाज में कोई अन्यथा भाव न हो जाए ।साहित्यिक दृष्टि से भाषा को राष्ट्रधर्म  प्रधान मानकर रचनाधर्मिता की जा रही थी, उसी समय काशी में एक से एक सुनाम धन्य विद्वत् जनों का जन्म भी हो रहा था । 

                       बाबू श्याम सुन्दर दास ने लिखा है कि बहुत दिन हुए  चैनसुख नामक एक सरयूपारी दुुुबे ब्राह्मण काशी में संस्कृत पढ़ने आए । वे शिवपुर के पास मँड़लाई गाँव में एक उपाध्याय के यहाँ अध्ययन करने लगे । उपाध्याय की कोई सन्तति नहीं होने के कारण चैनसुख ही उनकी संपत्ति के उत्तराधिकारी हुए ।इनके कई पीढ़ी पीछे शारँगधर और शिवराज दो भाई हुए । शारँगधर ने खजुरी सारनाथ आदि कई गावों की जिम्मेदारी लेकर खजुरी में अपना निवास स्थान नियत किया । शिवराज उपाध्याय के तीन पुत्र हुए जिनमें रामप्रसाद सबसे छोटे थे । रामप्रसाद के पांच पुत्र हुए जिनमें  कृपालुदत्त  सबसे छोटे   थे  । कृपालुदत्त ज्योतिष विद्या में निपुण हुए । क्वींस कालेज के भीतों पर इनके अक्षर ही लिखे हुए है । पंड़ित सुधाकरजी कृपालुदत्त के पुत्र है । जब सुधाकरजी का जन्म हुआ । पिता कृपालुदत्त मिर्जापुर में थे । इनके जेठे नाना रामेश्वरदत्त को डाकिए ने " सुधाकर"पत्र की प्रति जैसे ही दी । चचा दरवाजे पर बैठे थे  ,घर  की  नौकरानी  ने  नवजात  के  तब तक भीतर से लड़के के जन्म की खबर दी । जन्म संवत् 1917 चैत्र शुक्ल चतुर्थी सोमवार को हुआ।  इस शुभ समाचार से आह्लादित होकर चाचा ने कहा- सुधाकर पत्र की प्रति के साथ शिशु के शुभ समाचार की सूचना मिली है। अतएव इस बालक का नाम 'सुधाकर 'होगा। 

                   उन्हीं में सन् 1855 को पं० सुधाकर द्विवेदी जी का जन्म वरुणा नदी के किनारे वर्तमान पृथेश्वरमहादेव मंदिर के समीप, खजुरी ग्राम में 26 मार्च को पिता श्री कृपाल दत्त द्विवेदी और माता लाची की सन्तान के रुप में हुआ था, (सुधाकर जी ने एक दोहे में इस बात से स्पष्ट किया है कि उनके पिता का नाम कृपाल दत्त है - यसुदातन को झंखत है,यशुदा तन को नाहि।नर कपरन को झंखत है,नरक परन को नाहि।{मेरे पिता कृपाल दत्त}अर्थात् ) लोग दाताओं  (दातन)के यश को झंखते है पर कृष्ण  (यशुदा तन ) के लिए नहीं झंखते है और लोग  (नर )कपड़ों के लिए झंखते है, पर नरक पड़ने के लिए नहीं झंखते है । प्रथम हिन्दी -साहित्य  {महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी लिखित } पृष्ठ 45 -46।)

                        ब्रजरतनदास जी ने अपनी पुस्तक हरिश्चन्द्र में लिखा है कि सन् 1850 ई०में तारामोहन मित्र ने 'सुधाकर' पत्र निकाला जो कुछ समय  चलकर बंद हो गया । इसी पत्र के नाम पर सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद् पं०सुधाकर जी के पिता जी ने इनका नामकरण किया था । (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, श्रीयुत् ब्रजरतनदास हिन्दुस्तानी एकेडमी यू०पी०इलाहाबाद, 1935, संस्करण, पृष्ठ 201)बाल्यावस्था में सुधाकर जी की शिक्षा दीक्षा संस्कृत कालेज के सुयोग्य गुरु पं०दुर्गादत्त जी से गणित उसके बाद ज्योतिष श्री देवकृष्ण जी की देखरेख में क्रमशः व्याकरण और लीलावती का अध्ययन कराया गया, आचार्य देवकृष्ण जी त्रिस्कंध (गणित, जातक और संहिता अर्थात् ग्रहचार) ज्योतिर्वेत्ता थे, जिनसे सुधाकर जी ने शिक्षा अर्जित की, साथ ही श्री बापूदेव शास्त्री से द्विवेदी जी गणित और ज्योतिष को पढ़कर शास्त्रीय विधि से पारंगत हो गये, इस प्रकार निरंतर अध्ययन अध्यापन से द्विवेदी जी ने अपनी गरिमा के अनुसार विद्वत् समाज में श्रेष्ठता प्राप्त की, उसका कारण गुरु बाबूराव शास्त्री जी का सानिध्य रहा और स्वयं की बुद्धिमत्ता भी रही । जीवनचर्या के आरम्भिक दिनों में सुधाकर जी दरभंगा संस्कृत पाठशाला से भी जुड़े रहे ।

सुधाकर जी की तीन सन्तान थी पुत्र रत्न थी 1-बेटा अच्युताकर द्विवेदी ज्येष्ठ पुत्र थे जो तहसीलदार थे। दूसरे पुत्र कमलाकर द्विवेदी डिप्टी कलेक्टर बाद में बलिया जनपद के कलेक्टर पद से अवकाश ले लिया सबसे छोटे पुत्र पद्माकर द्विवेदी गवर्नमेंट संस्कृत कालेज वाराणसी ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष थे। सभी सुयोग्य पिता के सुयोग्य संतान रहे और यह परिवार आज भी अपनी मर्यादित परम्परा को बनाये हुए है। 

                                अंग्रेजी सरकार ने बनारस में शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा कार्य किया, विशेष रुप से कम्पनी सरकार ने बनारस के रीजेन्ट जोनेथन डंकन्स के सामने प्रस्ताव रखा, जिस पर गवर्नर जनरल कार्नवालिस ने गवर्नमेंट संस्कृत स्कूल के स्थापना की स्वीकृति प्रदान की, काशी नरेश महाराजा महीप नारायण सिंह जी ने उस कार्य के लिए जमीन दान में दी । डंकन साहब स्वयं इस व्यवस्था को देखने लगे, लेकिन कुछ समय बाद उन्हें बम्बई जाना पड़ा, 1835 में गवर्नमेंट संस्कृत कालेज के भवन निर्माण का निर्माण हुआ, प्रथम विश्व युद्ध के समय कम्पनी शासन समाप्त हो गया ।

                  ब्रिटेन की महारानी भारत की महारानी बन गई । गवर्नमेंट कालेज क्वींस कालेज के नाम से हो गया, उस समय आर०टी०एच०ग्रिफिथ प्रिंसिपल बने, वे संस्कृतज्ञ थे, उनके बाद डॉ०जी०थिबो आये, वे जर्मन थे , इसके बाद यहाँ प्रिंसिपल डा०आर्थर वेनिस ने " सरस्वती भवन "बनाया, भाषा के विषय में सुधाकर जी का मानना था कि यह अधिकार जनता और साहित्यकार को है, इसलिए वे भाषा को जनमानस से जोड़ना चाहते थे । विद्वानों को आकृष्ट करने वाली सुधाकर जी की असाधारण प्रतिभा भी उन्हीं दिनों शास्त्रीय विवादों के गहन शास्त्रार्थों से यत्र-तत्र सुनाई दे रही थी, एक ओर अध्यापक के रुप में और दूसरी ओर छात्र के रुप में ।उनका शास्त्रीय तर्क उत्तरोत्तर वृद्धिगत था। श्री सुधाकर जी ने, ज्योतिष शास्त्र में संस्कृत भाषा के माध्यम के साथ ही साथ, हिन्दी भाषा में सराहनीय एवं पाण्ड़ित्यपूर्ण योग्यता प्राप्त की, साथ ही आग्लभाषा पर डाॅ०थिबो के सानिध्य से अपने पर पर्याप्त अधिकार प्राप्त कर लिया था । जार्ज फ्रेड़रिक विलियम थिबो(George Frederick William Thibaut)वस्तुतः जर्मनी में पैदा हुए थे, किन्तु उनका कार्य क्षेत्र इंग्लैण्ड रहा, वर्ष 1875 से 1888 के समय वाराणसी में रहते हुए सुधाकर जी के साथ वर्ष 1875 से वर्ष 1878 के बीच पंचसिद्धान्तिका का सहसम्पादन किया, जिस पर बाद में संस्कृत टीका सुधाकर जी ने ही लिखी । बाइस वर्ष की अवस्था में गृहनगर खजुरी में देश -विदेश से पढ़ने वालों की भीड़ सुधाकर जी के पास आने लगी थी ।

            सुधाकर जी ने गुरु बापूदेव शास्त्री जी के साथ अक्षांश जानने की विधि पर 'डलहोस साहब 'की विधि को भी शास्त्रार्थ में मिली चुनौती में काशी का गौरव स्थापित कर एक नयी मान्यता स्थापित की । इसी बीच सन् 1883 ई०में राजकीय संस्कृत कालेज बनारस की एशिया की हस्तलिखित पुस्तकों की सबसे बड़ी पुस्तकालय "सरस्वती भवन "के पं०सुधाकर जी पुस्तकालयाध्यक्ष बनाये गये । यहाँ पर भी द्विवेदी जी अपने पठन -मनन में संलग्न रहे और संस्कृत के पुस्तकों को हिन्दी में सभी के लिए तैयार करते रहे । सुधाकर जी यथासमय अल्फ्रेड़ लार्ड़  टेनिसन  (Alfred Tennsyon ),जो ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड़ के राजकवि थे, उनकी पुस्तक एनक आर्ड़ेन (Enoch Arden),का हिन्दी अनुवाद किया करते थे ।

            खगोल शास्त्र में उनके कार्य की महानता को ध्यान में रखकर महारानी विक्टोरिया ने अपने जुबली महोत्सव के अवसर पर 16 फरवरी 1887 को "महामहोपाध्याय "की उपाधि से सुधाकर जी को विभूषित किया । क्रमशः उन्नति के शिखर पर कदम रखते हुए प्रिंसिपल डा०आर्थर वेनिस के विरोध के बाद भी सुधाकर जी को सन् 1889 में बनारस क्वींस कालेज में गणित के प्राध्यापक का पद मिला, क्योंकि वे बापूदेव शास्त्री से अलग हिन्दी भाषा के पोषक थे , कहा जाता है कि गणित अध्ययन के लिए पाटी परम्परा थी, जिसमें एक पटरी पर धूल या अबीर फैला कर उस पर हिसाब करने की प्रथा बापूदेव शास्त्री जी ने समाप्त की, और स्लेट पर अध्ययन व्यवस्था आरम्भ की ।(प्राचीन भारतीय गणित - पृष्ठ 115, विज्ञान भारती, नई दिल्ली )कुछ ही दिनों बाद एम०ए०की कक्षाओं को मैथेमेटिक्स और इण्डियन ऐस्ट्रानामी की कक्षाओं को पढ़ाने का काम भी सुधाकर जी करने लगे, लेकिन सुधाकर जी के पहनावे से छात्रों को उनके प्रति पहले दिन कुछ अश्रद्धा  हुई , किन्तु उनके पढ़ान की कला से छात्र आश्चर्य चकित हो गये, उसके बाद छात्र बड़ी सावधानी से दत्तचित्त होकर श्रद्धा पूर्वक उनसे गणित पढ़ते थे । उनके संस्कृतज्ञ पहनावे बगलबंदी,धोती और पगड़ी के वेश में गणित के स्नातकोत्तर कक्षाओं में बड़े स्तर के परिष्कारों के साथ पाठ पढ़ाने वाला यही एक भारतीय था, जो ग्रहगोल गणित का विद्वान्, ज्योतिषी और काशी का एक सुयोग्य प्रसिद्ध पण्ड़ित था ।इनसे गणित पढ़कर छात्रों का परिश्रम करने में मन भी लगता था, संभवतः उस समय सभी परीक्षाएं कलकत्ता यूनिवर्सिटी से होती थी, जबकि वैदुष्य, गाम्भीर्य एवं उच्च स्तर के व्याख्यान से प्रभावित होकर बड़े -बड़े अंग्रेज भी द्विवेदी जी की गुण गरिमा पर भक्ति प्रदर्शित करने लगे थे, यद्यपि यह आश्चर्य सा मालूम पड़ता है क्योंकि सुधाकर जी तो एम०ए०नहीं थे,बाद में फेलो ऑफ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी  (एफ०ए०यू०)भी हुए ।यह सब उनकी उत्कृष्ट योग्यता का परिचायक है ।(केदारदत्त जोशी कृत्रिम ग्रहलाघवम्-पृष्ठ -35)।

                  आज भारत की भाषा हिन्दी हो गई है । भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र के साथ-साथ महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी जी ने अपने समय में हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने की उच्च शब्दों में उद्घोषणा कर दी थी, तदनुसार द्विवेदी जी ने अपनी लेखनी को हृदय से हिन्दी की दिशा में भी बदलावकर कुछ ग्रन्थों को अपने विचारों के साथ मुद्रित किया, जिसमें 1-भाषा  बोधक प्रथम 2-भाषा बोधक द्वितीय, 3-हिन्दी भाषा का व्याकरण  (पूर्वार्ध )4- तुलसी सुधाकर तुलसी सतसई पर कुण्डलियाँ 5 - महाराज " माणधीश "श्री रुद्रसिंहकृत रामायण का संपादन 6- जायसी की पद्मावत ग्रियर्सन का सहयोग 7-माधव पंचक 8-राधाकृष्ण रामलीला 9- तुलसीदास जी की विनय पत्रिका संस्कृत में अनुवाद 10- श्री "भारतेन्दु "हरिश्चंद्र की जन्मपत्री आदि हैं।यही नहीं स्वरचित चलराशिकलन की रचना करते हुए सुधाकर जी ने यह दोहा लिखा था, जो उसी पुस्तक के पृष्ठ 04 पर है और उसमें उनके हिन्दी भाषा में गणित के प्रति भारतीयों के लिए अपनी भावना अपने तरीके से अर्थपूर्ण कही गई है -

                            गणित पयोनिधि सविधि मथि काढ़ी सुहीर ।

                            भणित सुधाकर नहीं मुधा वसुधा मधि हे धीर ।।1।।

            कल  (1)न परत निज कलन  (2) सों कलन  (3)बिना जौं तात ।

       कल  (4)न कहहु कल  (5)कलन  (6)हित कलन देहु येहि प्रात ।।2।।

(1)कल अर्थात् विश्राम, आराम, चैन  (2)कलन अर्थात् करन, कर हाथ का बहुवचन  (3)कलन अर्थात् कलना, गणना, हिसाब करना  (4)कलन अर्थात् दूसरा आने वाला दिन  (5)कल अर्थात् सुन्दर, बढ़िय  (6)कलन अर्थात् चलराशिकलन ।

                     यह सब हिन्दी के प्रति सम्मान ही तो है ।Santa Bani SangrahaI-Belvedere Printing Press Allahabad द्वारा प्रकाशित सन्त बानी संग्रह के प्रकाशन की बात पर सुधाकर जी ने हिन्दी में प्रकाशित किये जाने पर 'न भूतो न भविष्यति' की बात कही थी, जिसे पुस्तक के प्रकाशक ने सम्पादकीय आशीर्वाद रुप में लिखा ।         

हिन्दी ग्रन्थ - (01)भाषाबोधक प्रथम  (02) भाषाबोधक द्वितीय भाग  (03)हिन्दी भाषा का व्याकरण  {पूर्वार्द्ध }(04)तुलसी सुधाकर  {तुलसी सतसई पर कुण्डलियाँ }।(05)महाराजा "माणधीश "श्री रुद्रसिंहकृत रामायण का मुद्रण ।(06 )पद्मावत  {1-3}।(07) माधव पंचक ।(08 )राधाकृष्ण रामलीला ।(09)तुलसीदास जी की विनय पत्रिका संस्कृत में अनुवाद ।(10 )श्री"भारतेन्दु"हरिश्चन्द्र की जन्मपत्री आदि है ।(मोतीलाल बनारसी दास, प्रथम संस्करण 1988 वाराणसी द्वारा मुद्रित पुस्तक गोलाध्यायःव्याख्याकारकेदारदत्त जोशी की पृष्ठ संख्या 87 -91 से प्राप्त पुस्तक का विवरण है ।)

             हिन्दी में ग्रन्थ रचना पण्ड़ित सुधाकर द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की प्रचुर सेवा की है।इन्होंने जायसी कृत् पद्मावत महाकाव्य का सर्वप्रथम उद्धार किया ।इनका दूसरा ग्रन्थ 'तुलसी सुधाकर ' है जिसमें तुलसी सतसई के साथ सुधाकर जी द्वारा निर्मित कुण्डलियाँ लगाई गई है ।

          फलित ज्योतिष के विषय पर द्विवेदी जी की आस्था नहीं थी और उसे ये जीवन - यापन का केवल साधन समझते थे ।अपने इस सिद्धांत का प्रकाशन इन्होंने अपनी एक हिन्दी कविता में भी किया है  जिसकी अन्तिम पंक्ति निम्नांकित है -

                  छायो है कराल कलिकाल जगती पै आज ।

                   तीसी के भाव सारे ज्योतिषी बिकायेंगे ।। 

  संस्कृतनिष्ठ और क्लिष्ट भाषा के पक्ष में द्विवेदी जी नहीं थे ।उनका विचार था कि भाषा कठिन होने से लोग आम जनजीवन से दूर हो जाते है, भाषा में लोक की भावना होनी चाहिए, इसके लिए वे लोगो के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते थे, उनका कहना था कि भाषा का प्राकृतिक वैभव लोक से मिलता है ।द्विवेदी जी को शासन -प्रशासन के दबाव में भाषा का स्वरुप निर्धारण स्वीकार्य नहीं था ।राष्ट्रभाषा हिन्दी के विकास के लिए वे सदैव प्रयत्नशील रहे ।संस्कृत, हिन्दी में उनकी साहित्य संबंधी कई रचनाएं हैं।हिन्दी की जितनी सेवा उन्होंनेकी उतनी किसी गणित, संस्कृत और ज्योतिष के विद्वान् ने नहीं की है ।

              उनकी आशु रचना पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने द्विवेदी जी को दो बीड़ा पान खाने के साथ ही दो स्वर्ण मुद्राओं का सम्मान दिया ।'नागरी 'के माध्यम से द्विवेदी जी ने देश वासयों में हिन्दी के प्रति जो भावना जागृत की वह अविस्मरणीय है, बनारस में राजघाट के पुल का निर्माण कार्य हो रहा था, उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से कहा -

                   राजघाट पर बँधत पुल ,जहँ कुलीन को ढेर ।

                 आज गए कल देखि के, आजहि लौटे फेर।।

     इस दोहे के 'कल'शब्द  पर प्रसन्न होकर भारतेन्दु जी ने इन्हें सौ रुपए पुरस्कार दिए थे । इन्होंने सायन तथा निरयन गणनानुसार भारतेन्दु जी की जन्मपत्री बनाई थी ।वह पुस्तकाकार प्रकाशित भी हुई है ।इसके लिए भारतेन्दु जी ने उन्हें पांच सौ रुपये देकर सम्मानित भी किया था ।(भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, श्रीयुत् ब्रजरत्नदास  हिन्दुस्तानी एकेडमी यू०पी०इलाहाबाद, 1935, संस्करण पृष्ठ 78 -79)।

              इसी प्रकार सुधाकर द्विवेदी जी ने भारतेन्दु की पदवी के सन्दर्भ में अपनी 'रामकहानी 'के माध्यम से भाषा के संस्कार, परिष्कार के बाद साहित्य को एक नया आयाम दिया, जो जनता के बीच समझ बढ़ाने की रही और भारी भरकम शब्दावली के दलदल से बाहर निकल कर एक नये स्वरुप में एक नया आयाम स्थापित करने की रही ।     श्रीयुत् ब्रजरतनदास जी ने लिखा है कि द्विवेदी जी रामकहानी की भूमिका में लिखते हैं कि "यह मेरे सामने की बात है कि लाहौर के जल्ला  पंड़ित के वंशज रघुनाथ जंबू के महाराज श्री रणवीर सिंह जी की नाराज़ी से जंबू छोड़कर बनारस चले आए थे ।उनसे और बाबू हरिश्चंद्र जी से बहुत मेल था ।उसी सन्दर्भ में आगे लिखा है कि राव श्रीकृष्ण देव शरण सिंह की उपस्थिति में उन्हें भारतेन्दु पुकारा गया ।उन्होंने कहा आप लोग खुशी से कहिए ।(भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, श्रीयुत् ब्रजरत्नदास हिन्दुस्तानी एकेडमी यू०पी०इलाहाबाद, 1935, संस्करण पृष्ठ, 113)।

          द्विवेदी जी ने 1902 में मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य पद्मावत की टीका जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के साथ की ,यह ग्रन्थ उस समय दुरुह माना जाता था, किन्तु इस टीका से उसकी सुन्दरता में वृद्धि हुई ।            पद्मावत की टीका "सुधाकर चंद्रिका टीका "की भूमिका में द्विवेदी जी ने लिखा है :-

                                            श्रीजानकीवल्लभो विजयते।

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                                         अथसुधाकर चन्द्रिका लिख्यते।

                                                          दोहा

                               लखि जननीके गोद बिच मोद करत रघुराज।

                          होत मनोरथ सुफल सब धनि रघुकुल सिरताज।।

                                                .....................

                                               .....................

                                  का दुसाधु का साधु जन का विमान समान।

                            लखऊ सुधाकर-चन्द्रिका करत प्रकाश समान।।

                        मलिक मुहम्मद मति-लता कविता कनक वितान।

                                जोरि जोरि सुवरन वरन धरत सुधाकर मान।।

                 द्विवेदी जी का विचार था कि जब आवश्यकताओं की भाषा होती है, तो जन-मन की भी भाषा होती है और उनका मानना था कि जिस प्रकार से लोग घरों में हिन्दी बोलते हैं वैसे ही हिन्दी लेखन में भी प्रयोग की जाय, उनका कहना था कि वे अंग्रेजी शब्द जो हिन्दी प्रचलन में आ गए हैं, उसे बदलकर अनावश्यक हिन्दी थोपने का काम उचित नहीं है ।वे सरल भाषा के पक्षपाती थे, और हिन्दी में तत्सम शब्दों के व्यवहार को अच्छा नहीं समझते थे ।बाबू अयोध्या प्रसाद के स्मरण अंक लेख में पं०चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी ने लिखा है कि "काशी नागरी प्रचारिणी  सभा का गृह प्रवेशोत्सव  मंगल पूर्वक हो चुका था, महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी ने -धनि भाग आज या भवन में नाथ तिहारे पग पड़े.........कहकर सर डिग्गस लाटूश का स्वागत किया और माननीय मदन मोहन मालवीय जी ने अंग्रेजी में स्पीच -गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ ....कहा था ।(पुस्तक वार्ता -अंक 34 मई -जून 2011 महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा ) नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग -1,संवत् 1977 अंक में गोस्वामी तुलसीदास की विनयावली निबन्ध में बाबू श्यामसुंदर दास ने उल्लेख किया है कि गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयावली की प्रति महामहोपाध्याय पं०सुधाकर द्विवेदी को देखने को दी और उन्होंने विचार कर संशोधन भी कर दिया था । इस प्रकार सुधाकर जी की हिन्दी सेवा चलती रही ।सुधाकर जी हिन्दी को लोक जीवन के रंग में रंगना चाहते थे ।उन्होंने बाबू श्यामसुंदर दास जी के साथ नागरी प्रचारिणी में हिन्दी प्रचार प्रसार के लिए बहुत समय बिताया और पाया कि साहित्य जब लोक जीवन के रंगों में रंगी जाती है ।उस समय उन्हें अपनी ईकाई की गुरुता का ध्यान नहीं रहता है ।केवल उत्तरदायित्व एवं सोचे हुए कार्य को पूरा करने का भान ही रहता है ।उनका यह कथन स्वयं उनकी भाषा की विविधता पर भी लागू होता है ।द्विवेदी जी ने अपने जीवन का  अनुभव अपनी कलम की आवाज बनाकर उड़ेला है।सुधाकर जी जिस काल खण्ड में विद्वान् थे, उस समय सच कहने का परिणाम था अपने घर को नष्ट करना ।उस समय अंग्रेजी शासन था, भाषा व्यवसाय नहीं तपस्या थी । साहित्यकारों को न तो राजाश्रय प्राप्त था और न ही पूँजीपतियों का सहयोग, जो सम्पादक होता था उसी का पूरा दायित्व था।अंग्रेजों के नियम कानून के रुप में साहित्यकार ही सरकार का विरोध और यंत्रणा झेलते थे, उसी में तालमेल बनाकर भाषा को आगे की दिशा में ले जाने का प्रयास नागरी प्रचारिणी सभा और उसके संस्थापकों, विद्वानों को है ।

                      द्विवेदी जी राम भक्त थे उनकी काव्य रचनाएं प्रायः राम की स्तुति से ही आरम्भ होती थी जैसे -श्रीजानकीवल्लभो विजयते ।

                    भारतीय ज्योतिष और गणित के मूर्धन्य विद्वान् होते हुए भी हिन्दी और नागरी के लिए उनके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता है ।

                     संवत् 1853 में नागरी प्रचारिणी पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ, आरम्भ के पांच वर्ष सम्पादन का कार्य बाबू श्यामसुंदर दास जी ने संभाला, उसके बाद सन् 1900 (संवत् 1957 )में नागरी प्रचारिणी ग्रन्थमाला नाम की पुस्तक प्रकाशित करने की योजना बनी और वर्ष में चार अंक निकालने का निश्चय हुआ, नागरी प्रचारिणी सभा की पत्रिका के 12 वें अंक की पृष्ठ संख्या 32 पर विवरण है कि मंगलवार दिन 16 जुलाई 1907 को संध्या 05:30 बजे स्थान सभा भवन, चौदहवां वार्षिक विवरण पढा़ गया सर्वसम्मति महामहोपाध्याय  सुधाकर द्विवेदी जी सभापति बाबू गोविन्द दास और बाबू श्यामसुंदर दास उपसभापति, बाबू जुगल किशोर मंत्री बनाये गए ।उस समय प्रबन्धकारिणी सभा के सभासद संयुक्त प्रदेश ऑनरेबल पं०महामना मदन मोहन मालवीय जी एवं पं०श्यामबिहारी मिश्र जी बनाये गये ।संवत् 1962 से 1965 तक महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी जी सम्पादक हुए, बारहवें वर्ष से यह पत्रिका त्रैमासिक हो गई ।16 वर्षों में कुल 64 अंक प्रकाशित हुए, नागरी प्रचारिणी ने ही 'हिन्दी वैज्ञानिक शब्दावली 'के सम्पादन का कार्य बाबू श्यामसुंदर दास जी को सौंपा, जिसके निरीक्षक श्री ठाकुर प्रसाद जी, और उनकी टीम श्री विनायक राव, श्री खुशी राम, श्री एन०वी०रानाड़े,श्री भगवती सहाय, श्री सुधाकर द्विवेदी और श्री भगवान दास जी चुने गए ।संवत् 1962 में यह कोश तैयार हुआ, इसकी इतनी मांग हुई कि शीघ्र ही सभी प्रतियां समाप्त भी हो गयी ।

                 दार्शनिक भगवान दास जी ने लिखा है कि सुधाकर जी -सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज में काम करते हुए साइन्टिफिक ग्लासरी के  अध्यात्म विद्या "साइकॉलजी "के अंग्रेजी हिन्दी के पर्याय के लिए प्रत्युत्पन्नमति थे ।

                    उन्होंने दादूदयाल की बानी का सम्पादन भी किया जिसका प्रकाशन राधाकृष्ण दास और नागरी प्रचारिणी के सहयोग से दो भागों में किया गया इन बातों को पुस्तक की भूमिका में द्विवेदी जी ने कहा है ।द्विवेदी जी  अपने समकालीन साथियों और साहित्यकारों से  हावी रखते हुए अपने कर्तव्य बोध को समझ कर महामना मदन मोहन मालवीय जी के साथ तत्कालीन संयुक्त प्रांत के अस्थायी राज्यपाल सर जेम्स लाटूश से एक जुलाई 1898 को पांच लोग न्यायालयों में हिन्दी और नागरी लिपि को सम्मान का स्थान दिलाने के लिए मिले ।कहा जाता है कि एक उर्दू लिपिक के साथ प्रतियोगिता में सुधाकर जी ने निर्धारित समय से दो मिनट पहले ही सुन्दर और स्पष्ट नागरी लिखकर हिन्दी और नागरी को न्यायालयों में स्थान दिलाया । द्विवेदी जी कहते थे कि हिन्दी को ऐसा रुप दिया जाय कि वह स्वतः व्यापक रुप में जनसाधारण के प्रयोग की भाषा बने, ऐसा नहीं हो कि लोग यह समझे कि यह थोपी जा रही है और साहित्य के लिए जो नागरी प्रचारिणी की योजनायें की उसकी बराबरी करने वाला शायद ही कोई अन्य हो ।उनके द्वारा प्रकाशित सम्पादित कार्य स्मरणीय रहेंगे ।हिन्दी भाषा को उन्होंने नवीन स्वरुप प्रदान किया ।उनका चरित्र और उनकी कलम दोनों ही प्रकाश स्तंभ की भांति नयी पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त करने के लिए एक आधार हैं । सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सुधाकर जी की अधिकतम पुस्तकों का प्रकाशन उनके पुत्र श्री पद्माकर द्विवेदी प्रोफेसर मैथेमेटिक्स और इण्डियन ऐस्ट्रानामी गवर्नमेंट कालेज बनारस, ने करवाया ।एक मई 1910 को नागरी प्रचारिणी सभा ने यह निश्चय किया कि काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया जाए, साथ ही यह निश्चय भी किया कि सम्मेलन में किन विषयों पर विचार हो और कौन सभापति चुना जाय ।इस कार्य के लिए 11 व्यक्तियों की प्रबंध समिति बनाई गई ।पं०महामना मोहन मालवीय, पं०महावीर प्रसाद द्विवेदी और श्री गोविन्द नारायण मिश्र के नाम सभापति के लिए आये और नागरी प्रचारिणी सभा की प्रबंध समिति ने मालवीय जी को ही हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रथम सभापति स्वीकार किया ।सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन 10,11,और 12 अक्टूबर को नागरी प्रचारिणी सभा में हुआ ।सम्मेलन का आयोजन व्यापक मतभेद के अन्तर्गत हुआ था । पं०मदन मोहन मालवीय जी के नाम प्रस्तावित करते समय महामहोपाध्याय पं०सुधाकर द्विवेदी ने मालवीय जी के संबंध में जो कुछ कहा था वह पूर्णतः सत्य था कि इस सम्मेलन का सभापतित्व किसी ऐसे पुरुष को देना चाहिए जिसमें चंचलता न हो, गंभीरता हो और जो बड़े- बड़े  कामों पर विचार करें, अन्ततः सब सफल रहा ।(मालवीय मिशन डाट ओआरजी के श्री  सुधाकर पाण्डेय 

के साभार ) नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा साहित्यकार संसद ने सुधाकर द्विवेदी के नाम पर हिन्दी साहित्य के विद्वानों को स्वर्ण पदक पुरस्कार देने का कार्य किया, जिसमें मृगनयनी उपन्यास पर वृन्दावन लाल वर्मा को रुपये एक हजार नकद का पारितोषिक और सुधाकर द्विवेदी स्वर्ण पदक प्रदान किया गया था। 

                      भारतीय ज्योतिष, गणित को हिन्दी में सहज रुप से  देने का कार्य सुधाकर जी ने उसी प्रकार से किया, जिस प्रकार से संस्कृत के लिए किया ।छुआछूत, जाति भेद के विरोधी सुधाकर जी का निधन एक साधारण बीमारी से 28 नवम्बर 1910 ई०को अगहन या मार्गशीर्ष  (सोमवार सम्वत्1967)महीने की कृष्ण द्वादशी को हुआ । वे ऐसे यशस्वी विद्वान् थे, जो संकीर्णता की भावना से उठकर समाज विकास का चिंतन करते थे , विद्वान् के विदेश यात्रा से धर्म की हानि को निरर्थक बात मानते थे, ऐसे विद्वत् मनीषी का स्मरण ही स्वाभिमान और सेवा का संकल्प देता है ।


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