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भूधर से श्रीधरपाठक : शब्दों के साथ

 भूधर से श्रीधर पाठक होने की दौड़ती लेखनी शब्दों के साथ 🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁 अतीत के आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पंजाब वर्तमान हरियाणा के सिरसा जिले से आगरा जिला अन्तर्गत फिरोजाबाद परगने के जोंधरी ग्राम में अपने संस्कारों और पाण्ड़ित्य के कारण  पाठक परिवार को चांदवार महाराज चन्द्रसेन ने 14 हजार बीघा भूमि यमुना तट पर दान देकर इस परिवार को बसाया था । मल्ह जाति के एक डाकू ने इनकी जमींदारी छीन ली  समय के परिवर्तन ने मल्ह जाति के करौली के प्रसिद्ध राजा सोनपाल का उस डाकू से युद्ध हुआ । पाठक परिवार की जमींदारी राजा सोनपाल के राज्य में शामिल हो गई । यह फिरोजाबाद भी इटावा जनपद से अलग नया जनपद बना था । जब राजा सोनपाल के उत्तराधिकारी राजा कर्णपाल बने थे,  श्रीधर पाठक जी के पूर्वजों ने उन्हें अपनी पूर्व वृत्तांत को सुनाया तो राजा कर्णपाल ने साठ बीघा भूमि  पाठक परिवार को प्रदान की । जैसे-जैसे समय बीतता गया जमींदारी का क्षरण भी होता चला गया परिवार में नाममात्र की जमीन रह गई । परिवार में वैष्णव भक्त विद्वान हुए ।  इस परिवार के कुशल मिश्र  अच्छे कवि  रचनाकार रहे थे, उसी परम्परा से आगे बढ़ते हुए

मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव और हिंदी पत्रकारिता

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 मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव और हिन्दी साहित्य तथा पत्रकारिता  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ भारतीय स्वतन्त्रता के युग में हिन्दी साहित्य के लिए , जिसमें गति प्रदाता पत्रकारिता ही अग्रणी रही है ।  विशेष रुप से  भारत का कलकत्ता शहर का नाम इस कार्य के लिए प्रसिद्ध रहा है । उसके अनेक कारण रहे है ।साहित्य में संस्कृत पहले स्थान पर काशी (बनारस) फिर हिन्दी, लेकिन पत्रकारीय जीवन के लिए कलकत्ता और कानपुर को क्रम से रखना उचित होगा, हांलाकि इसका मानक आधार नहीं बना रहे है । यह मात्र विचार लिख रहे है और लेखन शब्द आगे ले चलते हुए ,एक नाम पत्रकारीय जीवन में भुलाते हुए भी भूलने का मन नहीं हो सकता है वह है मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव !  वर्ष 1988 को चिलकहर ग्राम बलिया में श्री रामलाल श्रीवास्तव के पुत्र के रुप में नवजादिक लाल जी का जन्म हुआ था ।  उनके पिता जी की आर्थिक परिस्थिति के चलते या अन्य कारणों से  वे साधु बन गये । नवजादिक जी का बचपन अपने मामा के यहाँ बीता उसके बाद वे अपने सामर्थ्य के अनुसार  कलकत्ता में डाक एवं तार विभाग में डाकिए की नौकरी कर गये, किन्तु यह काम उनकी पसंद का नहीं था तो

मुंशी अजमेरी

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            बुन्देलखण्ड के साहित्य तीर्थ चिरगाँव में जिस मनीषी ने जन्म लिया, उसी की भेरी से वणिक समाज साहित्य में सफल हो सका यह हरिवंश राय बच्चन जी ने अपनी रचनाधर्मिता में लिखा “बजती क्या मैथिलीशरण के काव्य कीर्ति की भेरी, मिलते अगर न उनको प्रेरक गुरु मुंशी अजमेरी। “ खीमल,जैसलमेर राजस्थान निवासी, डिंगल कवि एवं गायक श्री भीखा जी  और उनके पूर्वज ठेठ मारवाड़ में जैसलमेर के रहने वाले थे । श्री भीखा जी को जैसलमेर से उस समय के रईस राव पालीवाल को आग्रहपूर्वक चिरगाँव बुला लिया गया था । जीवन सन्तति के सुपुत्र की कामना से भीखाजी अजमेर शरीफ जाकर प्रार्थना करने गये हुए थे । भीखा जी जैसलमेर से अजमेर आ रहे थे, अजमेर पहुँचते-पहुँचते उनके ज्येष्ठ पुत्र ईश्वरदत्त का देहांत हो गया । मार्ग में उपजे  शोक को भीखा जी तब तक नहीं भुला सके जब तक चिरगाँव जाने पर प्रेमबिहारी का जन्म नहीं हो गया,  अजमेरी जी के पिता भीखा जी कनकने देशी घी व्यापारी के यहाँ मुंशी का काम करने लगे थे वही से पारंपरिक मुंशी पदवी चल पड़ी वैसे देश में साहित्य के तीन मुंशी हुए कन्हैयालाल माणिकलाल, प्रेमचंद और अजमेरी जी ।          अजमेर की उ

कल्पवती कुटीर या गोस्वामी तुलसीदास का अन्तिम निवास काशी में -शान्तिप्रिय द्विवेदी

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                                 विद्यार्थी मुच्छन द्विवेदी यानि शान्तिप्रिय द्विवेदी और उनका साहित्य                                                             ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ काशी में मुच्छन का प्रवेश जन्म  समय के साथ हुआ । ☘️सब तज राम भज☘️ के साथ दुर्बली महाराज काशी आये थे ।   दुर्बली महाराज ने पाया कि काशी के कंकर - कंकर में शंकर और और अन्न क्षेत्र के साथ उस समय पाठशाला की भरमार थी । उन्होंने असन-व्यसन की चिन्ता छोड़कर जंगल की वानस्पतिक रस का सेवन गंगाजल का पान धरती बिछावन आकाश ओढ़ना प्रकृति प्रांगण के मुक्त पुरुष के सन्तान के रुप में मुच्छन बालक का  भदैनी काशी में जन्म  वर्ष 1906 में हुआ । मुच्छन को जन्म की उचित तिथि मालूम नहीं है।   "मन मिले का मेला है, सबसे भला अकेला है। - यह अमृत विचार दुर्बली महाराज यानि संन्यासी पिता ने मुच्छन को बतलाया था । इस अनमोल बात को पक्तियों में मुच्छन ने इसी रुप में लिखा "यही मेरा, इनका, उनका सबका स्पन्दन, हास्य से मिला हुआ क्रन्दन । यही मेरा, इनका उनका सबका जीवन, नहीं गाया जाता अब देव! थकी अँगुली, है ढीले तार, विश्व वीणा में अपनी आज,

गीत क्या लिखें

🌺🌻गीत क्या लिखें 🌻🌺 गीत क्या लिखें सब मीत ही तो है,  मीत क्या लिखें सब प्रीत ही तो है।  पुष्प क्या बखाने सब मधुमास ही सुहाते है । राह क्या लिखें सब गुमराह ही कर जाते है।  सुख क्या लिखे  सब प्रेम राह भटक जाते है।  गीत क्या लिखें सब मीत ही तो है,  मीत क्या लिखें , सबसे प्रीत ही तो है ।। देव दनुज कौन किसको कितना सुहाते है।  कोई धरती कोई बांसुरी सब तोड़ जाते है ।  गीत क्या लिखें ,मनमीत नाम बस लिख जाते है।  नदियां भी कल-कल कर चली जाती है।  गीत क्या लिखें, सब मीत ही तो है,  मीत क्या लिखें , सबसे प्रीत ही तो है।। राह क्या लिखें सब गुमराह  कर जाते है।  सुख क्या लिखे , सब प्रेम राह भटक जाते है ।  पेड़ों डार-पात सर-सर का बयार दे जाते है।  नैंने बेचैन लजाते ,मनवा ऑसूं भरे रह जाते है।  मीत क्या लिखे सब प्रीत अधूरे रह जाते है।  प्यास कुछ पल आस दूसरी चाह मांग जाते है।  राह क्या लिखें , सब गुमराह  कर जाते है।  सुख क्या लिखे प्रेम राह भटक जाते है।  गीत क्या लिखें सब मीत ही तो है,  मीत क्या लिखें सबसे प्रीत ही तो है।।  नर गुन निरगुन गान,गाने वियोग जाने जाते है।  हम  अब उनकी आयु को आयु जोगाने जाते ह

केंचुल

 सभ्य होने के लिए,  सांप ने घने बियाबान में।  केंचुल छोड़ दिया, विश्वास न जोड़ सका। इन्सान क्या छोड़े, क्या जतन जोड़े , पाठ पूजा,  पेट पूजा , जतन दूजा,  घर से घट तक संवार ।  हाड़, हाय, धौंकनी तन की धधक।  आत्म के पयान का, भय छोड़ न सका। आसमान गिद्ध, घनियारा निशीथ,  प्रतिबिंब से सच निहारता,  प्रतिपल अपनों से अपने ही हारता। आस नहीं विश्वास नहीं,  सभ्य होने के लिए,  बियाबान हमने काट दिए । केंचुल हम छोड़ भी दें,  मन मसोस मुँह मोड़ भी लें,  आस की श्वास भर भी न जी सका।  प्रतिछाया हमेशा घूरती घेरती रही,  अपने ही काल पर काल को न जोड़ सका।। सांप ने घने बियाबान में, केंचुल छोड़ दिया। आत्म के पयान का , भय छोड़ न सका। अपने ही काल पर काल को न जोड़ सका।                     🗼🗼🗼🗼🗼🗼

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी और चलता पुस्तकालय

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  हिन्दी साहित्य की सन्त परम्परा का उद्घोष लिखित रुप में शिखर, मुखर और मानकीकरण के साथ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जी ने ब्राह्म मुहूर्त की गंगा स्नान और तप साधना से आत्मसाध करके जनमानस के बीच पहुंचाने का काम किया , उसी गाँव के दूसरे छोर पर बैद्यनाथ द्विवेदी यानि हजारी प्रसाद जी भी निवास करते थे । किन्तु चतुर्वेदी जी का जन्म 25 जुलाई 1894 को जवही गाँव में पं०राम छबीले चतुर्वेदी के घर हुआ था और आचार्य हजारीप्रसाद जी 19 अगस्त 1907 को पैदा हुए थे । कबीर आदि सन्तों की परम्परा को चतुर्वेदी जी ने अपने स्तर से उत्तर भारत की संत परम्परा में मशहूर कर दिया, यही नहीं मीराबाई की पदावली को लिखने के लिए उनके घर चले गए और उनके इस उत्कृष्ट कार्य के लिए महाराज गायकवाड़ पांच हजार रुपए भी दिये ताकि यह ग्रन्थ प्रकाशित हो सके प्रकाशक ने मूल ग्रन्थ में इस बात का स्पष्ट विवरण दिया है ।   ऐसे मनीषी को भला कोई मान सकता है कि एक पेशे से वकालत करने वाला संत साहित्य जगत का प्रकाशक होगा।  पं०राम छबीले चतुर्वेदी और माता सूरजा देवी की संतान परशुराम जी की प्रारम्भिक शिक्षा व्यवस्था को देखकर उनके मामा शिवशंकर चौबे जी ने

खोखला वट वृक्ष

 दावों का खोखला होना, वादों का खोखला होना  🪴🌾 दावों का खोखला होना , वादों का खोखला होना । सह जाता है, रह जाता है कह जाता है, ज़माना लेकिन,  उस गली के मोड़ पर,  बरगद का खोखला होना , करवट की नींद तोड़ गया। अतीत की बहुत बातें कह गया, जैसे हर पल जीवन का ढह गया । जीवन में खोखली पोल रह गई,  संतो के ठहराव, मन संताप बिसराव।  जेठ की छांव ,बरसात से बचाव,  देव दनुज, मनुज खगकुल की आस,  कोटर  शुक दरख्त  खोखले की सरसराती हवा। जड़े कमज़ोर कर गया छाया खो गई,  खोखले तन,मन,निर्जन रेत उग गई ।  पहचान खोखले दरख्त क्यों नहीं होते ।  माइलस्टोन हो न हो दरख्त हो जरुरी , खोखलेपन से पहले उसके वंश संभाल लो, खग किलकारी बचालो,हरियाली बना लो। झंझावात से बचालो,और प्राणवायु बना लो। खोखले पर  खेल नहीं ,कोई संत नहीं आते, कोई बसन्त नहीं आता। कोई गीत नहीं गाता।।🌾🪴                        **********

माँ

 माँ तेरे अक्षर चन्द्र बिन्दी रखते है । शशि शेखर शायद तुझमें ही बसते है।  ¤¤¤¤¤¤ॐ¤¤¤¤¤¤

लहुराबीर

  लहुराबीर ******** बनारस की अपनी यादें स्मृतियों के कोने में किसी न किसी रुप में मन में हिचकोले लेती रहती है, बाढ़ के पानी में लहुराबीर चौराहे का चक्कर लगाना और गर्मी के मौसम में बसन्तबहार में घुसकर फ्री की लस्सी पीने की जुगाड़ बैठाना, स्टूडेंट लाइफ की कारिस्तानी, अब याद आती है और बाबू सुरेन्द्र प्रताप सिंह (डीआईजी कॉलोनी आरआई बंगले के पास पुलिस लाईन के समीप आवास)शायद उन्हें नियाग्रा में इडली, दोसा खिलाने से लेकर लस्सी पिलाने में खूब आनन्द आता था, एक कारण था कि भाई अरविन्द सिंह(डीआईजी कॉलोनी निवासी)की बातों में फंस जाना दूसरे पक्के ठाकुर होने की मर्यादा और तीसरे हम सब साथ के सह यात्री विद्यार्थी भी थे। बसन्तबहार के पीछे की ओर भाई प्रजानाथ शर्मा कांग्रेस के युवा नेता उनके इशारे पर कुछ सामान क्रेडिट पर आते रहते थे और मित्र लोग-बाग वीर चन्द्रशेखर आजाद की तरह कम मूंछ होने पर भी उमेठने के लिए तत्पर रहते थे। डाॅ अब्बासी,अदील अहमद आदि भी थे लेकिन इन लोगों के क्लास अलग-अलग होने से वापसी में प्रायः छूट जाते थे, लेकिन संबंधों में परस्पर स्नेह समान था। प्रकाश टाकीज का एक किनारा राजनेता बनाने की