भूधर से श्रीधरपाठक : शब्दों के साथ

 भूधर से श्रीधर पाठक होने की दौड़ती लेखनी शब्दों के साथ 🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

अतीत के आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पंजाब वर्तमान हरियाणा के सिरसा जिले से आगरा जिला अन्तर्गत फिरोजाबाद परगने के जोंधरी ग्राम में अपने संस्कारों और पाण्ड़ित्य के कारण  पाठक परिवार को चांदवार महाराज चन्द्रसेन ने 14 हजार बीघा भूमि यमुना तट पर दान देकर इस परिवार को बसाया था । मल्ह जाति के एक डाकू ने इनकी जमींदारी छीन ली  समय के परिवर्तन ने मल्ह जाति के करौली के प्रसिद्ध राजा सोनपाल का उस डाकू से युद्ध हुआ । पाठक परिवार की जमींदारी राजा सोनपाल के राज्य में शामिल हो गई । यह फिरोजाबाद भी इटावा जनपद से अलग नया जनपद बना था । जब राजा सोनपाल के उत्तराधिकारी राजा कर्णपाल बने थे,  श्रीधर पाठक जी के पूर्वजों ने उन्हें अपनी पूर्व वृत्तांत को सुनाया तो राजा कर्णपाल ने साठ बीघा भूमि  पाठक परिवार को प्रदान की । जैसे-जैसे समय बीतता गया जमींदारी का क्षरण भी होता चला गया परिवार में नाममात्र की जमीन रह गई । परिवार में वैष्णव भक्त विद्वान हुए ।  इस परिवार के कुशल मिश्र  अच्छे कवि  रचनाकार रहे थे, उसी परम्परा से आगे बढ़ते हुए, श्रीकृष्ण की सन्तान रुप लीलाधर और उनकी सन्तान सारस्वत ब्राह्मण श्रीधर पाठक हुए । ये कुत्स गोत्र माध्यंदिनी शाखा यजुर्वेद देवी चामुण्ड़ा की मान्यता के थे । पिता लीलाधर ब्रज एवं संस्कृत के सामान्य विद्वान थे । लीलाधर का विवाह पोलरा वृन्दावन के कुलीन वंशज श्रीमती लाड़ली देवी से हुआ था । श्रीधर पाठक का जन्म माघ कृष्ण 14 सम्वत् 1916 को हुआ था । श्रीधर पाठक जी द्वारा हस्तलिखित “स्वजीवनी” के अनुसार ( उस ग्राम में, स्मरण-रमणीय प्रिय नाम में जन्म अपना हुआ । अबद उन्नीस सौ-लह असित माघ निशि अर्द्ध चौदस रविज बार-बार लग्न भूषित प्रपत याम में ) उनका पूर्व आषाढ़ नक्षत्र  जन्म का समय, नाम भूधर का  नक्षत्र और राशि तदनुसार रखा गया । परन्तु इसे परिवर्तित कर बाद में “श्रीधर “ दैनन्दिन संबोधन के लिए रखा गया ।                                                                                              

                     श्रीधर ने बड़ी कठिनाई से विद्याध्ययन प्रारंभ किया और वर्णमाला सीखी  ।   कभी पाठशाला तो कभी पिता जी से पढ़ते थे । आपके पहले गुरु पं०उमाशंकर सनाढ्य हुए, जो नजदीकी पड़ोसी भी रहे, पिता जी से कौमुदी का सन्धि प्रकरण पढ़ा,बाद में आगे की पढ़ाई परिव्राजक भागीरथी पुरी ( पिताजी के भाई धरणीधर के शिष्य ) से किया । भाईयों के वैमनस्य के कारण घर छोड़कर जोंधारी छोड़कर ‘सोंठि को नगरा’ रहने लगे। हांलाकि यहाँ आने पर निर्धनता बढ़ गई। अध्ययन छूट गया। घर पर ही अध्ययन जारी रखा। घर की पढ़ाई से काम नहीं बना तो गुरु की ग्राम पाठशाला गये सभी विषयों का अध्ययन किया । प्राचीन शिक्षा प्रणाली से नई व्यवस्था अच्छी लगी फिरोजाबाद के तहसीली स्कूल आ गए, सन् 1874-75 में कोटला स्थित हिन्दी प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण की इसमें पूरे प्रांत में सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी में पहला स्थान पाठक जी का था। इस सन्दर्भ में एक वृत्तांत है कि पाठशाला में इन्सपेक्टर लायड़ साहब निरीक्षण के लिए आये तो उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने से पहले पुस्तक पढ़ने को कहा पाठक जी से प्रश्न पूछे जटिल एवं नवीन प्रश्न पर त्वरित बुद्धि से उत्तर पाठक जी ने दिया। प्रश्न था-दाबचहच उस धरती का नाम है जो चिनाब और झेलम के बीच में है। 

लायड़ साहब-इसका मतलब कह सकता है ?

                  पाठक जी-चिनाब को ‘च’ लयो और झेलम को ‘ज’ लयो चज बन गयो। डिप्टी इन्सपेक्टर सब इन्सपेक्टर अध्यापक सब आश्चर्य चकित रह गए। दोआब का नाम भी शायद पाठक जी को पढ़ाया नहीं गया था । पं०जयराम जी उनके अच्छे गुरु थे । पाठक जी की आगे की पढ़ाई छूटने पर उनके घर जाकर मिडिल स्कूल में नाम दर्ज करा कर फिरोजाबाद में पढ़ने की प्रेरणा दी रेखागणित भाषाभास्कर के प्रश्न पूछकर मजबूती दी । पूजनीय शिक्षक जयराम जी योग्य शिष्य पाठक जी के लिए श्रद्धाशील रहे । फिरोजाबाद से आगे 1879 में अंग्रेजी मिडिल एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय की एंट्रेंस परीक्षा 1880-81 प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, फिर कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कालेज में एफ०ए०प्रथम वर्ष में अध्ययन के एक वर्ष के बाद कालेज के प्रिंसिपल से झगड़ा के कारण कालेज छोड़ दिया इसके बाद इलाहाबाद में लाट साहब (गवर्नर) के कार्यालय में नौकरी करते हुए दो वर्ष तक सेन्ट्रल म्योर कालेज में कानून की शिक्षा ली किन्तु परीक्षा नहीं दे सके, उसका कारण सरकारी नौकरी के काम से नैनीताल चले जाना पड़ा । 

जहाँ तक उनके वैवाहिक जीवन की बात है उनका सात वर्ष  की अवस्था में उपनयन और लगभग ग्यारहवें वर्ष की आयु में संवत् 1927 में विवाह हुआ लेकिन पहली पत्नी अधिक समय तक जीवित नहीं रही थी यह विवाह गोकुल के निकट चौहरी नामक ग्राम के उच्च कुलीन सुकुल ब्राह्मण के घर की कन्या थी। इसके बाद दूसरा विवाह हुआ जिससे दो पुत्र सबसे बड़ा गिरधर छोटा वाग्धर और छोटी बेटी ललिता जो अति शिक्षिता बनी। 

आजीविका और सरकारी सेवा के लिए बीस रुपये लेकर घर से प्रयाग आये थे, पोस्ट मास्टर जनरल कार्यालय में अवैतनिक कार्य किया यहाँ महामना मदन मोहन मालवीय जी के चाचा पं०जय गोविंद मालवीय से भेंट हुई फिर गवर्नमेंट हाईस्कूल इलाहाबाद में सेवाकार्य मिला। दो-तीन महीने में ही कलकत्ते के जनगणना सरकारी कार्यालय में साठ रुपये महीने का काम मिला, यहाँ से कामकाज के सिलसिले में शिमला जाने का अवसर भी मिला। आगे ग्यारह महीने बाद रेलवे की नौकरी मिली फिर इलाहाबाद आ गये। यहाँ से रेवाड़ी जाना पड़ा तो लाट साहब के यहाँ सेवाकार्य के लिए प्रार्थनापत्र दे गये। संयोग से  अंग्रेजी से प्रभावित होकर पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट में विभागीय कार्य के लिए कार्य मिल गया ।  सन् 1913 में  विभागीय कार्य से देहरादून जाना हुआ यही छोटा स्वतंत्र काव्य लिखा। हांलाकि सन् 1898 में मुझे 200 रुपये मासिक वेतन मिलने लगा था, लेकिन स्वास्थ्य अच्छाई भरा नहीं रह गया था।योग्यता और दक्षता को देखते हुए नव स्थापित इरिगेशन कमीशन के सुपरिटेंडेंट पद पर तीन सौ रुपए मासिक वेतन हो गया किसी तरह 1914 सेवा चल सकी बार-बार के स्थानांतरण के कारण शिमला से अंग्रेज अफसर से झगड़ा होने के बाद नौकरी छोड़कर इलाहाबाद वापस चले आये । सरकारी कार्यालय से सेवानिवृत्ति के कारण 150 रुपये मासिक पेंशन मिलने लगी। आपने लूकरगंज इलाहाबाद में भूमि क्रय करके एक सुन्दर बंगला “पद्मनाभ उसमें अच्छा बाग लगाया। 

                           जीवन काल में बात 1928 की है, जब पाठक जी मसूरी के विलीलाज में थे और उन्होंने क्लोरोडीन की दवा ली थी, रोग शैय्या पर ज्वराक्रांत थे, उन्हें वमन भी हो रहा था , प्रोफेसर सत्यव्रत जी प्रत्यक्ष अवस्था देख गुरुकुल कांगड़ी के आचार्य प्रोफेसर रामदेव ने कांगड़ी चलने का आग्रह किया, उन्होंने कहा मेरा क्या बना लेंगे । समाचार पाकर सुपुत्र गिरिधर पाठक बारह सितम्बर 1928 को प्रातःकाल मसूरी पहुंच गये 14 सितम्बर को निर्धारित हुआ कि नीचे चलेंगे,लेकिन 13 सितम्बर को प्रोफेसर सत्यव्रत जी से पाठक जी ने कहा- कुछ होने वाला नहीं है।  तेरह सितम्बर 1928 को रात्रि साढ़े आठ बजे महान आत्मा नश्वर शरीर अन्तिम संस्कार के लिए लण्ढ़ोर बाजार मसूरी वेद मन्त्रोच्चार के साथ प्रस्थान की । पाठक जी ने अन्त में प्रोफेसर सत्यव्रत जी से कहा था - विधाता के विपरीत होने पर कोई भी साधन काम नहीं देता ( विपरीततामुपगते हि विधौ विफलत्वमेति बहु साधनता )।

                                                श्रीधर पाठक जी की रचनात्मक कृतियों और अनूदित कार्यों में पहले अनूदित (1)एकान्तवासी योगी- (1886)गोल्डस्मिथ आयरलैंड के अंग्रेजी कवि द्वारा रचित द हरमिट जिसमें एड़विन और  एन्जेलिना नायक नायिका को ध्यान में रखकर प्रेम कहानी हिन्दी प्रेमी होने को है यही इसकी  उदासीनता विरक्ति भूल सुधार सब कुछ है। मूल कृति चालीस छन्दों की है पाठक जी ने ब्रजभाषा प्रभावित 59 लावनी छन्दों में अनुवाद खड़ी बोली हिन्दी में किया है । 

(2)ऊजड़ ग्राम -(1889) द डेजर्टेड़ विलेज का हिन्दी नाम 430 पंक्तियों का अनुवाद 514 पक्तियों में गाँव के उजड़ने और परिवर्तन के मार्मिक चित्रण हिन्दी अनुवाद में किये है । 

(3)श्रान्त पथिक -(1902)गोल्डस्मिथ की द ट्रैवेलर का हिन्दी अनुवाद है। इसमें मधुर प्रेमचर्या है, सुख के दर्शन है राष्ट्रीयता की कसौटी है पथिक थक कर आत्मा को सुखी करने के लिए आल्पस पर्वत की चोटी पर बैठा मानवीय सुख का विचार सोचता है कि कहाँ मिल सकता है। निष्कर्ष वास्तविक सुख हृदय में है। 

इसके बाद मौलिक कृतियां है-

क्रमशः राजभक्ति प्रभावित चार कृतियां-विक्टोरिया,लार्ड रिपन, ग्राउस साहब और विक्टोरिया चिरजीवी। 

देशभक्ति की कवितायें-

नौमि भारतम्, भारतश्री, भारत प्रशंसा, हिन्द वन्दना  भारतोत्थान, भारतसुत, और भारत गगन ।

सभी रचनायें मातृभाषा महत्व को ध्यान में रखकर रची गई। 

2-बालभूगोल (1904)-छोटे विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर इसे रचा गया। 

3-जगत सचाई सार (1887)- इस ग्रन्थ में उसी व्यक्ति का जीवन सार्थक है जो इस शरीर से कुछ कर्म करता है जो नहीं करता है वह पशुवत् है उसका जन्म और जीवन व्यर्थ है वह पृथ्वी पर भार रुप है। लोगों को जागृति के लिए जगत सचाई सार बद्ध रचना की गई है। 

4-काश्मीर सुषमा (1904)-इस कविता में प्रकृति का सुन्दर और सूक्ष्म स्वरुप देखा जा सकता है।  हिमचोटियों ,सरिताओं, जलाशयों का मनोयोग से चित्रण किया गया है। 

5-आराध्य शोकांजलि-(1905)-श्रीपितृ श्री के चरणों में शोकांजलि या शोक काव्य है। आराध्य शोकांजलि के साथ अपने पिता का गद्य में परिचय भी है वंशपरम्परा पर भी प्रकाश डाला है इसे स्वच्छन्दतावादी काव्य के अन्तर्गत रखा जा सकता है। 

6-जार्ज वन्दना-(1912)इस  रचना में आठ छप्पय है सम्राट जार्ज पंचम की वंश परम्परा ,स्वागत अभिनन्दन,,राज्याभिषेक, राज्य की महिमा, रानी मेरी की प्रशंसा और अष्टम छप्पय में सम्राट और साम्राज्ञी को आशीर्वचन है-जुग जुग जुग जुग जियहु जुगस दंपति प्रेम जोरी। 

प्रजा प्रनय प्रन पगी, बढ़हु सासन सुचि डोरी। 

7-भक्ति विभा (1915)यह भी आराध्य शोकांजलि के समान ही है इसमें कवि ने स्वप्न में पिता को जीवित देखा उसी का चित्रण है। 

8-श्रीगोखले प्रशस्ति-(1915)आराध्य शोकांजलि की तरह इसकी भाषा संस्कृत है। इस कविता में गोपाल कृष्ण गोखले के व्यक्तित्व का अंकन किया गया है। 

9-श्रीगोखले गुणाष्टक (1915)इसके अन्तर्गत तीन रचनायें रही गोखले, प्रशस्ति और गुणाष्टक जो कर्मनिष्ठ देशभक्त और अमरता पर आधारित है। 

10-देहरादून-(1915)इस काव्य रचना को पूर्वी बोली में किया गया जबकि उनकी भाषा बोली ब्रज रही पहाड़ अंग्रेजों की संस्कृति सभी को ध्यान में रखकर लिखा गया प्राकृतिक सौंदर्य का सुन्दर साहित्य है। 

11-गोपिका गीत-(1928)भक्तिभाव के परिवार का यह साहित्य श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के इकतीसवें अध्याय पर आधारित रासलीला का वर्णन है श्री गोपिका गीत खड़ी बोली में है। 

12-भारत गीत-(1928)-भारत देश विषयक राष्ट्रीय कविताओं का संग्रह है। 

अन्त में 1928 की तिलस्माती मुँदरी एकमात्र कथा साहित्य है विमाता के दुर्व्यवहार का निरुपण है यह सामान्य बोलचाल के साथ अरबी फारसी शब्दों के प्रयोग से जुड़ाव रखते हुए लिखा गया है। 

पत्र साहित्य और निबंध साहित्य भी इनका रहा है। 

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