अंगुलियाँ
अंगुलियाँ सुनाते है अँगुलियों की कहानी जुबानी । आकार प्रकार है अपने आप में बारानी । बाबू देहाती रहो या बन के रहो शहरी । अंगुलियाँ सदा से रही है समय प्रहरी । अँगुलियों में वर्तमान का होता संबल । इशारा कर बनाती अचल को सचल । अंगुलियाँ न हो तो लेखनी न हो सबल । तार बेतार छिपा अँगुलियों की पहल । बाबू देहाती रहो या बन के रहो शहरी । अंगुलियाँ सदा से रही है समय प्रहरी । सीमाओं पर जितनी चौकसी की होती मजबूरी । उससे भी ज्यादा हथेली में होती है अंगुली जरूरी अंगुलियाँ थाम बापू से सीखते है सब देश सेवा । आज अँगुलियों से चख रहे है लोकतंत्र का मेवा । बाबू देहाती रहो या बन के रहो शहरी । अंगुलियाँ सदा से रही है समय प्रहरी । अंगुलियों के ककाहरों ने उपजाया साहित्य भण्डार । अंगुलियाँ बनी कभी सुख-दुःख का भी आगार । अँगुलियों के योग कालिदास विद्योत्तमा पा चुके । गुणी करतबी अँगुलियों से अमर साहित्य गा चुके । बाबासाहेब