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जून, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ऐरे गैरे

    ऐरे गैरे  , गर्दिश के सितारे , असंतुलित मस्तिष्क , बिखर जाते शब्द , लिखा कुछ होता , कह   कुछ जाते । सोरे -सोरे , बातें चुभ जाती  , पोरे -पोरे  , छोरे-छोरे सुमरति भोरे। और अँधेरे , ऐरे गैरे नत्थू खैरे   मोरे  , सब छोरे , ऐसे   वैसे मानव   बना , जैसे तैसे , जीवन कटता , प्रतिपल , पैसे-पैसे ।। बेलगाम  , जिह्वा के टोरे  , कह जाती , मोरे-तोरे  , करियारे , कर्कश , ठूँठ के ठौरे , ना मधुमास , ना भौरे , अक्षर -अक्षर , विध जाते , तन पर , लगे हो , कंकडिया के कोरे । हम पर , चाहे कितना फेंको , मन पर , न फेंको , आग लगे कौरे । नदी में तैरे , पनसुइया  , जैसे बंधी हो डोरे , विवश जीवन , पतवारे , मझधारे , जाय उबारे , कैसे उस पारे। गौरव   मोरे दुःख हरे , सुख भरे , ऐरे गैरे  , गर्दिश के सितारे , शब्द बिखर जाते , लिखा कुछ होता , कह   कुछ जाते , बातें चुभ जाती , पोरे -पोरे । ऐरे गैरे  , नत्थू खैरे ।।   ---------0-------     40- ऐरे गैरे    

देहरी का सूरज

देहरी का सूरज देहरी का सूरज आदमी की परछाइयों को , तिर्यक बढ़ा गया | कद में आदमी छोटा हो गया || धीमान , तिर्यक हो गया | सूरज का देहरी पर आना , शायद , परिवर्तन है , प्रकृति का , जीवन का स्पंदन का , क्रन्दन में हास - परिहास, सम्वेदना , मरती जाती है , देहरी से बाहर, मानवीयता सूरज की ओट , किसी छाँह में , जहां अन्धकार है , आदमीयता, प्यार है , ठंडी, दुलार है , कोटर में रहने लगी है , परछाई , औसत से बड़ी होती है || उसमें, छहास होती है , ठंडक होती है , परछाई, सम्वेदना का नीड़ है , तिर्यक होने का सेहरा, किसी और के माथे है , अब तो नदियाँ , सडक, सब, हांफने लगे है | लपटें उठनें लगीं है, उनके हृदय पटल से , उन्हें रौद रहा है , आदमी ! सिर्फ आदमी !! || -------0------

पोखर

                       पोखर प्रकृति ,पुरुष  के  सहचर पोखर पुरखों  के संस्कार सहेजे पोखर , स्मृति झंझावातों में , सम्वेदना प्रतिबिम्बित , प्रकृति  के पास , मानवता  का वास , दोपहरी में, करता सूरज , पोखर में,  उन्मत्त स्नान , स्मृतियों के कोर , गोधूलि  के बादल ओट  में लुक-छिप क्रीड़ारत चाँद  इसी पोखर में , नि:शब्द ,शांत  रजनी  के आँचल पिछवाड़े  घर के  पोखर  में , सितारे छिटके है गगन  के, करते अटखेलियाँ , पोखर में , कमलिनियों  का हास-परिहास, पोखर में उल्हास , सूख गये पोखर , बस  गये नगर , पौध  ऊगे है कंक्रीट  के सत्पथ साथी डामर के , लोभ-लालसा की सरपट राह , मृग-मरीचिका की उठती लौ , गर्म हवा के झोके आते , तन्हा तन जल जाते , पोखर तट का , एक शिवाला , वृक्ष फलदार और फूलों का ढ़ेर , फलदार बने निवाला , फूलदार हुए आरती के फेर , अब अट्टालिका  से  आते कूड़े  के ढ़ेर मानवता की ऐसी छुप गयी कहाँ बयार , पुरखों के प्रति गुम हो गया प्यार प्रकृति ,पुरुष  के  सहचर पोखर पुरुषों के संस्कार  सहेजे पोखर     ****

पर्यावरण

  पर्यावरण   मनुज   का , दनुज   खेल  , परिवर्तन   पर्यावरण   । प्रकृति , दोहन   की   रेल , बदलता , भूमंडल   का   आवरण   ।। छिन   रहे   छाँव   । ठौर   जीव   जन्तु   जुगाली   के , करते ,  नित   जिस   ठाँव   ।। छल - छदम , मन   करता   रहा   वरण  , बुद्धि   मन   प्रतिकूलता   में भागीदार   रहा   हर   क्षण  , नैसर्गिकता   त्याग  , आधुनिकता   में   धूमिल , हो   रहा   अपना   ही   आवरण   । अनायास   मौत ,  तबाही ,  विनाश। अर्थ - पिशाचों   की   अंधी   भावनाओं   में , असंतुलित   वातावरण  , सब   कुछ   परिणति  , प्रकृति   शोषण , उपशम   भाव   करे   वरण , लोभ   संवरण  , जल   बिन   बंजर   नयन   के   प्रांगण  , जल   रही   नदियाँ   क्षेत्र   सैकत   कण  , संस्कार   पूजन   का   कहाँ   बनाये   तोरण   ।। तृण   नहीं   कैसे   हो   जाये   उ  - ऋण  , मर्त्य - लोक   में धरती   का   करे   श्रृंगार   । प्रकृति   का   संतुलन , मानवता   का , आवरण  , पर्यावरण   ।। ------------------0------------