केंचुल
सभ्य होने के लिए,
सांप ने घने बियाबान में।
केंचुल छोड़ दिया,
विश्वास न जोड़ सका।
इन्सान क्या छोड़े,
क्या जतन जोड़े ,
पाठ पूजा,
पेट पूजा ,
जतन दूजा,
घर से घट तक संवार ।
हाड़, हाय, धौंकनी तन की धधक।
आत्म के पयान का, भय छोड़ न सका।
आसमान गिद्ध, घनियारा निशीथ,
प्रतिबिंब से सच निहारता,
प्रतिपल अपनों से अपने ही हारता।
आस नहीं विश्वास नहीं,
सभ्य होने के लिए,
बियाबान हमने काट दिए ।
केंचुल हम छोड़ भी दें,
मन मसोस मुँह मोड़ भी लें,
आस की श्वास भर भी न जी सका।
प्रतिछाया हमेशा घूरती घेरती रही,
अपने ही काल पर काल को न जोड़ सका।।
सांप ने घने बियाबान में, केंचुल छोड़ दिया।
आत्म के पयान का , भय छोड़ न सका।
अपने ही काल पर काल को न जोड़ सका।
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