कल्पवती कुटीर या गोस्वामी तुलसीदास का अन्तिम निवास काशी में -शान्तिप्रिय द्विवेदी


                                 विद्यार्थी मुच्छन द्विवेदी यानि शान्तिप्रिय द्विवेदी और उनका साहित्य 

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काशी में मुच्छन का प्रवेश जन्म  समय के साथ हुआ । ☘️सब तज राम भज☘️ के साथ दुर्बली महाराज काशी आये थे ।   दुर्बली महाराज ने पाया कि काशी के कंकर - कंकर में शंकर और और अन्न क्षेत्र के साथ उस समय पाठशाला की भरमार थी । उन्होंने असन-व्यसन की चिन्ता छोड़कर जंगल की वानस्पतिक रस का सेवन गंगाजल का पान धरती बिछावन आकाश ओढ़ना प्रकृति प्रांगण के मुक्त पुरुष के सन्तान के रुप में मुच्छन बालक का  भदैनी काशी में जन्म  वर्ष 1906 में हुआ । मुच्छन को जन्म की उचित तिथि मालूम नहीं है।
  "मन मिले का मेला है, सबसे भला अकेला है। - यह अमृत विचार दुर्बली महाराज यानि संन्यासी पिता ने मुच्छन को बतलाया था । इस अनमोल बात को पक्तियों में मुच्छन ने इसी रुप में लिखा "यही मेरा, इनका, उनका सबका स्पन्दन, हास्य से मिला हुआ क्रन्दन । यही मेरा, इनका उनका सबका जीवन, नहीं गाया जाता अब देव! थकी अँगुली, है ढीले तार, विश्व वीणा में अपनी आज, मिला लो यह अस्फुट झंकार । ये विचार एक ऐसे साधक मनीषी के है , जिस मुच्छन की श्रवण वेदना जन्म से क्षीण रही है । मुच्छन के लिए ईश्वरीय संकट का दूसरा पक्ष पिता का संन्यास धर्म हांलाकि पिता ने कभी भिक्षावृत्ति को नहीं अपनाया । मानवीय वेदना से विरक्त होने के लिए  वे  अपने आजमगढ़ के ब्रह्मपुर डाकखाना बाजार गोसाई को त्याग कर परिवार सहित सोनारपुर से लंका जाने वाले मार्ग पर भदैनी  लोलार्ककुण्ड बनारस आ गये । छूट गया गाँव के मुहाने का छोटा सा शिव मंदिर, जिसका शिखर दूर से शून्य के ललाट पर तिलक सदृश था । आपस के लड़ाई-झगड़े संयुक्त परिवार के अलगाव-बिलगाव के कारण ही बिखर गये ।  ब्रह्मपुर गाँव शोभा शून्य हो गया । पिता जी विश्वनाथ जी की नगरी आये, यह नगर काशी और बनारस है । बनारस का मतलब समझिये व्यापार है, बनारस तो सेठ साहूकार से दिखाई देता है । काशी का अर्थ है अन्तःसाक्षात्कार जो हृदय में बसी हुई है । आराधको के अन्तःकरण में अदृश्य है । दुर्बली महाराज कब काशी आये कोई तारीख से नहीं जानता है। हाँ ! परिवार बस गया जिसमें माँ, बहिन, दुधमुँहा भाई, रहे लेकिन पिता  साथ नहीं रहे । वे अनिकेतन संन्यासी हो चुके और यदा कदा भ्रमण करते आते रहे । काशी के दुर्बली महाराज तन, मन और धन से समान  भाव के रहे । निर्धनता स्वेच्छापूर्वक ग्रहण की थी । ज्ञानी थे, संत थे पर संन्यासी रहे । मुच्छन का एक पग संसार में एक पग तपोवन में चलता पलता रहा । माता के लिए आनन्दमयी आश्रम, अघोरी बाबा कीनाराम स्थली,गंगातट, भदैनी मुहल्ला बचपन का निवास बन गया। समीप का पड़ोसी लोहार था। घर के समीप मछुआरों की बस्ती छोटा बच्चा होने के कारण खान-पान की सुविधा यहाँ मुच्छन को प्रेम से  मुफ्त सहज मिल जाता था।  स्याद्वाद जैन महाविद्यालय विशाल प्रांगण के साथ लगा घर था । गंगा के किनारे महाविद्यालय के बीचोंबीच जैनमंदिर था। मंदिर की सेविका से प्रसाद भी खाने को मिलता था। विद्यालय तो दिगम्बर जैनमंदिर का था श्वेतांबर का मन्दिर अलग दूर था। गंगा तट का भाग इमिलिया घाट कहलाता था  अब इसे आनन्दमयी घाट कहते है । बाल्यकाल की दीनता और सज्जनता के प्रति उदारता पण्डित दुःखभञ्जन मिश्र यानि आश्रय दाता दुक्खू चाचा बने। उन्होंने रहने को घर दिया । पहले के समय किराये पर घर देने की प्रथा नहीं थी घर में जगह है तो रहने को दे देते थे। घर-परिवार में मुच्छन की सबसे बड़ी बहिन मुच्छन से लगभग बारह बरिस बड़ी थी नाम था कल्पवती वह बाल विधवा थी उसके बाद  बड़ा भाई बना मुच्छन । 
 जब मुच्छन की ऑखें खुली तो तुतलाना बोलना सीखा पालन-पोषण बड़ी बहिन के सानिध्य में सम्भव हुआ सब मिलकर घर में छह जने हुए कल्पवती बड़ी बहिन रही, समझिये माँ का सब भार स्नेह सब इन्हीं में रहा । उसके बाद मुच्छन फिर सबसे सुन्दर रुच्चन यानि रुचिरकान्त,उसके बाद भाई हीरामन, उसके बाद छोटी बहिन कलावती और मुन्नी थे । रुच्चन कुछ समय साथ रहा,साल भर के अन्तराल पर एक भाई हीरामन आ गया इधर रुच्चन काल कवलित हो गया। माँ बीमारी के कारण बच्चों को दूध पिलानें असमर्थ रही और बीमार  भी रहने लगी मुच्छन की देखरेख की पूरी जिम्मेदारी बड़ी बहिन पर आ पड़ी भूख लगती तो अपना खाना भी दे देती । इसी बीच कलावती और मुन्नी के जन्म के कारण से जर्जर माँ ने अल्प आयु में प्राण त्याग दिये बड़ी बहिन ने उनके अन्तिम संस्कार इमिलिया घाट , श्वेताम्बर मंदिरचबूतरे पर श्राद्धकर्म (वर्तमान आनन्दमयी घाट) किये। हीरामन माँ के निधन के बाद गांव चाचा के यहाँ गया वहीं उसका निधन हो गया। छोटी बहिन कलावती का ब्याह अमिला में हुआ और मुच्छन को उसके साथ रहने का संरक्षण मिला लेकिन मुच्छन को प्रसन्नता नहीं हुई । मुच्छन के लिए उसकी बड़ी बहिन  जीवन की गति -यति - नियति थी। अमिला आज़मगढ़ में बनारस के कक्षा एक से आया यहाँ दर्जा दो में पढ़ाई करने लगा। मौलवी साहब पढ़ाते, घोड़ी पर मदरसा आते थे। गाँव में तौहीनी से ऊबकर मनोयोग पूर्वक अभ्यास करने लगा और  अंकगणित सरल हो गया। मुच्छन दर्जा पर दर्जा चढ़ने लगा। खाने की स्थिति दोपहर नाममात्र मिलती थी। एक दिन काशी से घूमते पिता जी  आज़मगढ़ आ गये बहिन के करुण क्रन्दन उसके ऑसुओं ने ऊँड़ेल दिये। कुछ दिन बाद इसी देहात में गुसाईं की कुटिया पर पिता जी का देहांत हो गया, उस दुःसंवाद पर मैं चुप रह गया । मदरसे के हेडमास्टर मुन्शी कन्हैयालाल जी हिन्दी प्रवेशिका पढ़ाते थे। मास्टर करिया राय ने एक दिन डिक्टेशन लिखवाया सबसे अच्छाई भरा मुच्छन द्विवेदी का ही रहा । मास्टर जी ने कहा एक तो बेचारा दोनों कानों से ठीक से सुनता नहीं है और तुम ठीक होते हुए गलत कर रहे हो। मुंशी कन्हैयालाल ने भी इसी तरह तारीफ की थी। इनाम में कागज कलम पेन्सिल उपहार मिलने लगे। बड़ी बहिन के बिना मन नहीं लगा मुच्छन को एक फोड़ा हुआ अकस्मात् बड़ी बहिन गाँव आई मुझे ले चलने मैं काशी चला आया लेकिन दुक्खू चाचा के आश्रय घर पर नहीं पड़ोस के वृद्ध ब्राह्मण पुरुषोत्तम बाबा के घर आ गये । उन दिनों पांचवी की परीक्षा मुच्छन ने दी फिर परीक्षाफल में सफल होने पर दो रुपये मासिक छात्रवृत्ति उसे मिलने लगी। उन दिनों शहर में एक ही मीडिल स्कूल था। छावनी की खपरैलों से बना स्कूल था। मास्टर छेदीलाल ने मुच्छन पर विशेष स्थान दिया। तब हिन्दी के साथ उर्दू अनिवार्य था। स्कूल भदैनी से दूर था तो मुच्छन ने बुलानाला पर ठहराव रखा था आर्यसमाज भवन के सामने । कम सुनने के कारण पढ़ाई छोड़ दिया। एक दिन स्वाध्याय के लिए वाचनालय गया, वहाँ के चपरासी ने झड़प लगा दी फिर मैंने आज दैनिक में एक पत्र प्रकाशनार्थ भेज दिया । साहित्यक बनाने के लिए अपना नाम विद्यार्थी मुच्छन द्विवेदी लिखा संयोग से अखबार में छप गया। उसी वर्ष  मुच्छन का स्कूल छूटा और आज दैनिक का जन्म हुआ था। सेन्ट्रल हिन्दू कालेज (कमच्छा का बोर्डिंग हाउस मुच्छन के मुहल्ले में आ गया था उस समय हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्माण चल रहा था । भदैनी की नेपाली कोठी छात्रावास हो गई । इस जगह मालवीय जी के दर्शन सहज सुलभ हुए। आज दैनिक के बहाने मुच्छन जी का परिचय बेचन पाण्डेय शर्मा उग्र जी से हुआ जिनका एक नाम शशि मोहन पाण्डेय भी है और गंगा स्नान में मुच्छन जी से वे पहले से  परिचित भी रहे है। एक दिन अकस्मात् गली से बाज़ार की ओर निकल रहा था देश के तरुण हृदय सम्राट पण्डित जवाहरलाल नेहरु धोती कुर्ता और गान्धी टोपी पहने उनके पीछे श्रीप्रकाश जी मुच्छन तुरन्त आशीर्वाद पाने के लिए चरणस्पर्श करने मुच्छन को आदरणीयों का आशीर्वाद मिला और प्यार से नेहरु जी बोले तुम्हारा क्या नाम है बच्चे  ! और जानकारी दी काशी विद्यापीठ की भूमि की तलाश के बाद गंगा माँ का आशीर्वाद लेने तट की ओर जा रहा हूँ । काशी विद्यापीठ की स्थापना 1921में भदैनी में ही हुई थी। इस अवसर पर आदरणीय मोतीलाल नेहरु, गाँधी जी आदि उपस्थित थे। 
आदरणीय श्रीप्रकाश जी जब ज्ञानमण्ड़ल के साथ आज कार्यालय गुरुधाम दुर्गाकुण्ड़ रोड़ से कबीरचौरा चला गया तो वहां शान्तिप्रिय जी यानि मुच्छन को कार्यभार सौपा। यह उनकी सहृदयता थी । लेखक बनने का प्रयत्न "स्त्री दर्पण" की सम्पादिका पत्रिका में गद्य कथा भेजी जो प्रकाशित हुई। उसके बाद स्वामी रामतीर्थ जी की जीवनी पर काम मिला इसी बीच  वर्ष 1922 की गर्मियों में पं०राम नारायण मिश्र मिश्र जी काशी आये,  उन दिनों वे देवरिया हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक थे। उनके आवास पर मिलने गया तो बोले आपका नया नामकरण होना चाहिए मुच्छन अच्छा नहीं है। उन्होंने कहा आपको शान्ति की आवश्यकता है इसलिए आपका नाम शान्तिप्रिय होना चाहिए। विद्यार्थी (प्रयाग)1923,त्यागभूमि अजमेर-1929-30मेरी जीवन यात्रा में मुच्छन को देखा  पढ़ा जा सकता है । आचार्य केशव प्रसाद मिश्र जी सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल के संस्कृत के अध्यापक थे मुच्छन के लिए बाल्यकाल से पिता जी के शुभचिन्तक रहे उनका उन्हें आशीर्वाद मिलता रहा। जीवन पथ में बड़ी बहिन से बारह बर्ष छोटा रहा मृत्यंजय शिव भी सती का शव लेकर विकल और विक्षिप्त हो गये देहधारी की क्या गति होती है । बहिन माँ को और मुच्छन  बहिन को अनंत में जाने पर हरिश्चंद्र घाट पर वत्सलता, सजलता, तेजस्विता  व्यापकता और गतिशीलता सब सुधबुध में खो बैठा अकेला हो गया। मुच्छन की सामाजिकता बहिन के जाने के बाद शून्य हो गई ।  शान्तिप्रिय द्विवेदी जी का मानना कि उनका अन्तःश्रवण बधिर नहीं है उसे वाणी का सरगम है, जीवन का स्वर सन्तुलन, हृदय का अभिसरण चाहिए । श्रुति की साधना पाने के लिए ही मेरा बधिरपन है। यह सब दैहिक कष्ट चलता रहा सांसारिक बाधाओं को पार करते हुए द्विवेदी जी ने हिन्दी साहित्य को अमूल्य विरासत भेंट स्वरुप रचनात्मक कृतियों के रुप में दी है जो अमूल्य है। सन् 1927 में चिरगाँव साहित्य सदन से काव्य ग्रंथ प्रकाशित हुआ। यह पहली रचना मानी जा सकती है। इसके बाद नीरव 1929में भारती भंडार लीडर प्रेस से और 1934में हिमानी हिन्दी मंदिर प्रेस प्रयाग मधुर संचय ब्रज भाषा काव्य अप्राप्य इसके बाद मोतियों की लड़ी अप्राप्य, हमारे साहित्य निर्माता 1935,बांकीपुर पटना, साहित्यिकी,संचारिणी 1939इण्डियन प्रेस इलाहाबाद, युग और साहित्य 1940 इण्डियन प्रेस इलाहाबाद, सामयिकी 1944ज्ञानमंड़ल वाराणसी, पथचिह्न 1946चौखम्भा विद्याभवन वाराणसी, जीवन यात्रा 1951बांकीपुर पटना, ज्योति विहग 1951हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ,प्रतिष्ठान 1953इण्डियन प्रेस इलाहाबाद, दिगम्बर 1954 हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी साकल्य 1955हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय वाराणसी, धरातल 1948ज्ञानमंड़ल वाराणसी, पदनाभिका 1956 कल्याणदास एण्ड ब्रदर्स ज्ञानवापी वाराणसी,आधान 1957 हिन्दीप्रचारक पुस्तकालय वाराणसी, चारिका 1958 राष्ट्रीय प्रकाशन मंदिर अमीनाबाद लखनऊ, वृत्त और विकास 1959 भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी समवेत 1960 नन्द किशोर एण्ड सन्स चौक वाराणसी, कवि और काव्य 1960 इण्डियन प्रेस प्रयाग, परिक्रमा 1962 चौखम्भा विद्या भवन चौक वाराणसी चित्र और चिंतन 1964 चौखम्भा विद्या भवन, चौक वाराणसी, स्मृतियां और कृतियां 1966 चौखम्भा विद्या भवन, चौक वाराणसी के साथ परिब्राजक की प्रजा 1952 में इण्डियन प्रेस इलाहाबाद से आत्मकथा परक जानकारी का ग्रन्थ है शेष पथचिह्न ग्रन्थ में भी पढ़ा जा सकता है। लोलार्क कुण्ड भदैनी पर इनके पड़ोसी कभी डाॅ नामवर सिंह जी भी रहे और जिस मकान में ये रहते थे उसी के बगल के मकान में गोस्वामी तुलसीदास का काशी का अन्तिम निवास भी रहा है। ये पूरे जीवन हनुमान जी के भक्त रहे है । जब संकट में पड़े हनुमान जी को याद कर मुक्ति मिली । उग्र जी ने जानकारी दी है-
जिहि मुच्छन धरि हाथ कछू जग सूजस न लीनो। 
जिहि मुच्छन धरि हाथ कछू परकाज न कीनो। जिहि मुच्छन धरि हाथ कछू पर पीर न जानी। जिहि मुच्छन धरि हाथ दीन लखि दया न आनी। 
मुच्छ नाहिं वे पुच्छ सम कवि मरमी उर आनिये। 
नहिं वचन लाज नहिं दान गति तिहि मुख मुच्छ न जानिये।।
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