कल
दिनमान से पहले होता कलरव ,होता कल्लोल चित चपल ।
अब की सुधि कह गये कबीर , विचारों में त्यागें कल ।
युग दोष समाया जीवन में , मन्वन्तर युग में ही है कल ।
जन-जनमत के भेद को जान , मनुज नित निरख संभल ।
दिनमान से पहले होता कलरव ,होता कल्लोल चित चपल ।
अब की सुधि कह गये कबीर , विचारों में त्यागें कल ।
तटिनी गतिमान बनी रहती ,अहर्निश जन-मन हित प्रतिपल ।
तट आहट देती जन-जन को , हर क्षण कहती कल-कल ।
कल को आधार बना लें , सजालें स्वयं का जीवन सम्बल ।
अतीत की प्रतीति होती सुनीति,इसी से होता सब जन सफल ।
दिनमान से पहले होता कलरव ,होता कल्लोल चित चपल ।
अब की सुधि कह गये कबीर , विचारों में त्यागें कल ।
परिणति भाव भरे विनीत ,अनीति त्याग मन कर विमल ।
सोच कल को विषय विकार के , समाज का पी रहे गरल ।
एकाकी ही जन हर रहे ,शिवत्व भाव से हो रहे जन निर्मल।
मोह-माया भाव तिलांजली देकर ,स्नेहिल मन चलता चल ।
दिनमान से पहले होता कलरव ,होता कल्लोल चित चपल ।
अब की सुधि कह गये कबीर , विचारों में त्यागें कल ।
आत्मबल से हो सहज ,वर्तमान में कभी न कहें कल ।
सपनों में निर्झर बहा करे रहे ,उज्ज्वल हीरक और धवल ।
भूलें अतीत मनवांछित मिलता पुरुषार्थ हो यदि सबल |
कल्पना के चित्रों में, वर्तमान सहेजे हर दिन हर पल |
दिनमान से पहले होता कलरव ,होता कल्लोल चित चपल।
अब की सुधि कह गये कबीर , विचारों में त्यागें कल ।
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