गिरगिट का रंग

आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया ।

ना जाने कैसा वक्त आ गया ।

श्वान सम्बोधन से उकताया हुआ ।

माया,मद,मोह, लोभ,और प्रीति में छा गया ।

आदमी तन मन से गिरगिट में समा गया ।

आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया ।

सर्प, बिच्छू के दंश से उपचारित हो सके हैं ।

भय की बात कौन करता है यहाँ ।

उभय तो रोम -रोम समा गया ।

आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया ।

इस उभयवादी से सत्य भी छला गया ।

दलबदल की राजनीति कल की बात थी ।

तन्त्र अब दिल बदलने तक तो आ गया ।

आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया ।।

                  *********

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

नागरी हिन्दी के संवाहक:महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी और चलता पुस्तकालय

मुंशी अजमेरी