अपनों को ही भूलें

 अपनों को ही भूलें

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अनजाने में कितने मिलते ही गये हम अपनों  को ही भूलेंं ।

रस्ते ही रहे  हमने ही बदले सोचते हम भी है कितने पगले ।

भूलने की कोशिश में ना जाने कितनी बार पथ अपने ही बदले ।

सोचते-सोचते गुमसुम हो रही रातों की जम्हाई भरी करवटें ।

क्या छुप-छुपकर क्या लिख दूं सब कोर पड़ी दीख रही सिलवटें।

अब छूटते यौवन में अपने का जीवन की भूलें बातें  सूझती लपटें।

किससे कहें  कुछ बात जो लग जाय तो तुनक से भी हो हटके ।

निराशा डराती है इस पल उस पल उनींदी सी हो जैसे करवटें ।

जिन्दगी भूलें डगर पे डरा रही जैसे  जंगल से आती हवा की आहटें।

तुम्हारी मौन हमें भयभीत कराती जैसे बियाबान की सनसनाहटें।

टिकी है आस में नई सुबह होगी झुरमुट में जो अलकों से छिपीं हैं तेरी लटें ।

इक खोज का सिलसिला दिखा जाती हो नागफनी जैसे फूल हो खिले।

उड़गन तो बहुत देखें हैं रात केअंधेरों मेंआज तारिका से जैसे यूँ ही मिलें।

अनजाने में कितने मिलते ही गये हम अपनों को ही भूलें।

बागबां होने की चाहत फुलवारी में  फूल भी देखे बहुतेरे  अलसाते  खिले। 

तराशी सी मूरत से उठी किरकिरी पलक  में रह गये  बिन शिकवे गिले ।

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