Thakur Gopal Sharan Singh:: Aristocrat to author
सामंत से साहित्य की ओर ::ठाकुर गोपाल शरण सिंह
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हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम से द्विवेदी युग रखा गया है । द्विवेदी जी एक ऐसे साहित्यकार रहे, जो बहुभाषी होने के साथ ही साहित्य के इतर विषयों में भी समान रुचि रखते थे । अपने प्रकांड पाण्डित्य के कारण इन्हें ‘आचार्य’ कहा जाने लगा । वे महान ज्ञान-राशि के पुंज और आचार्य थे । उनके प्रति श्रद्धा रखने वाले युग के प्रतिनिधि कवि, खड़ी बोली के काव्य निर्माता,और अपनी भाषा संस्कृति व देश को सदैव गौरव प्रदान करने वाले कविवर ठाकुर गोपाल शरण सिंह की कविता में जिस सरसता और भावों की गूढ़ता के साथ भाषा की सरलता का समन्वय मिलता है,वह अन्यत्र पाना दुर्लभ है ।ठाकुर गोपाल शरण सिंह जी की बासठवीं वर्षगांठ हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के संग्रहालय में ठाकुर रणंजय सिंह के सभापतित्व में मनाई जा रही थी वर्ष के हिसाब से 1953 का समय रहा होगा। पांच,महात्मा गाँधीमार्ग, सिविल लाइन, प्रयाग का बंगला अच्छा खासा है । कमरों में कालीन की बुनाई की टाइल्स लगी है, फुलवारी की शोभा उल्लेखनीय है यही ठाकुर गोपाल शरण सिंह जी के आवास की पहचान है ।
बातें उनकी हो उससे पहले उनपर ही एक झलक देखते है : -
पिता ठाकुर जगत बहादुर सिंह रीवां, सेन्ट्रल इण्डिया एजेन्सी वर्तमान मध्यप्रदेश के नयी गढ़ी के सामन्ती जमींदार घराने के थे, और माँ प्रभु राज कुंवरी थी, आस्थावान् ईश्वर भक्त परायण नारी थी । उनकी सन्तान ठाकुर गोपाल शरण सिंह का जन्म पौष शुक्ल प्रतिपदा सं०1948 अर्थात् एक जनवरी 1891 को हुआ । आप सेंगर वंशीय क्षत्रिय है । आपके पिता जी की संस्कृत पाठशाला थी जिसमें विद्यार्थियों को वस्त्र भोजन मिलता था । आपके पितामह भी शूरवीर थे, उनकी भी कथाएं नईगढ़ी में प्रसिद्ध रही हैं । आप रीवां की लालकोठी में रहा करते थे । बाल्यकाल से ही आप में नैसर्गिक प्रतिभा थी । पिताजी की देख-रेख में आपकी शिक्षा-दीक्षा प्रारंभ हुई । हिन्दी की साधारण योग्यता हो जाने पर आपको संस्कृत का अभ्यास कराया जाने लगा । कुछ समय बाद ही आपको संस्कृत का अच्छा ज्ञान हो गया,तेरह वर्ष की अवस्था में आपने अंग्रेजी पढ़ना आरंभ कर दिया किन्तु उसी वर्ष आपके पिता जी का देहांत हो गया । दो वर्ष बाद दरबार हाई स्कूल रीवाँ में प्रवेश किया उसके बाद प्रयाग के म्योर सेंट्रल कालेज में प्रविष्ट हुए। वहाँ दुःख के साथ कुछ कारणों से कालेज छोड़ना पड़ा । आप घर पर ही ज्ञान-पिपासा शान्त करते रहे और धीर-धीरे अनेक विषयों में योग्यता प्राप्त कर ली । उर्दू,हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा का उन्हें ज्ञान था। उन्हें जीवन के आरम्भिक काल से ही साहित्य से प्रेम था ,प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा रीवां और प्रयाग में हुई में रहने के कारण अठारह वर्ष की आयु तक कविता लिखने का ध्यान ही नहीं गया । इनका विवाह सरोजनी देवी के साथ हुआ था । साहित्यिक दृष्टिकोण से 1911 से रचना काल आरम्भ हुआ । एक-आध वर्ष तक ब्रजभाषा में स्फुट रचनाएं की किन्तु सन् 1912 में बोलचाल की कविताएं करने लगे जो सरस्वती में प्रकाशित हुई ,और उनपर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ साथ ही भविष्य के लिए प्रोत्साहन भी मिला ।
आधुनिक हिन्दी काव्य के प्रमुख उन्नायकों और पथ प्रशस्त करनेवालों में आप रहे हैं। ब्रजभाषा के स्थान पर आधुनिक हिन्दी का प्रयोग कर उन्होंने काव्य में माधुर्य, सरसता बनाये रखी, जो ब्रजभाषा की विशेषता थी, उनकी शैली में भी रमणीयता का सौंदर्य बना रहा था । विषय प्रतिपादन में भाव विचार की उत्तमता उनकी कविता का एक और आकर्षक तत्व है । ये प्रयाग, इंदौर और रीवा के अनेक साहित्यिक संस्थानों से जुड़े हुए थे । इनके मुक्तक संग्रह 'माधवी, 'सुमना, 'सागरिका और 'संचिता हैं । 'कादम्बिनी तथा 'मानवी' गीत-काव्य हैं। इनकी काव्य भाषा शुध्द, सहज एवं साहित्यिक है । ठाकुर गोपाल शरण सिंह की शिक्षा हाईस्कूल तक हुई थी । हैरत इस बात की है कि जब सामंतवाद अपने चरम पर था, उस समय स्वयं ठाकुर साहब ने किसानों, मजदूरों शोषितों, पीडितों और असहायों को अपनी कविता का विषय बनाया । सामंती परिवार में पैदा होकर भी ठाकुर गोपाल शरण सिंह उन सभी कुरीतियों से दूर एक मनीषी, एक आमजन की पीड़ा में छटपटाते कवि हुआ करते दीख पड़ते है । साहित्यिक प्रेम में नरेश महाराज गुलाब सिंह की कैबिनेट में जाने से उन्होंने इनकार कर दिया था । ठाकुर साहब शरीर सौष्ठव भी अद्भुत था । उन्हें पहलवानी का भी शौक था । नई गढ़ी से प्रयाग सिर्फ़ इसलिए आये ताकि बच्चों की शिक्षा-दीक्षा ठीक ढंग से हो सके । ठाकुर गोपाल शरण सिंह के घर पर निराला, मैथिलीशरण गुप्त, महादेवी वर्मा, डॉ० रामकुमार वर्मा जैसे कवियों का आना-जाना होता था । उनकी साहित्यिक भेंट इस प्रकार से रही।
रचनाएं – मानवी (1938), माधवी (1938), ज्योतिष्मती (1938), संचिता (1939), सुमना(1941), सागरिका(1944), ग्रामिका (उत्तरप्रदेशसरकारसेपुरस्कृत)(1951)प्रबंध-काव्य– जगदालोक (उत्तर प्रदेश सरकार से पुरस्कृत )(1952), प्रेमांजलि (1953), कादम्बिनी (1954), विश्वगीत (1955) ।
आप द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि रहे है । आपने गम्भीर से गम्भीर चिंतन सरल से सरल और ओजपूर्ण भाषा में प्रस्तुत किए है । आप प्रयाग के मूक-बधिर स्कूलों के संस्थापकों में रहे हैं । आप भारतीय साहित्य समिति इन्दौर ; श्रीरघुराज साहित्य परिषद;रीवां कवि समाज प्रयाग आदि संस्थाओं के सभापति रह चुके है । हिन्दी- साहित्य-सम्मेलन,वृन्दावन द्वारा होने वाले अखिल भारतवर्षीय कवि-सम्मेलन सम्वत्1992 के आप सभापति थे ,और ओरियंटल कांफ्रेंस, मैसूर के बहु-भाषा कवि सम्मेलन 1935,में सभापति का आसन का सम्मान पाया । आप सन् 1933 प्रयाग के द्विवेदी-मेला, के स्वागताध्यक्ष थे । रीवाँ राज्य, जिसका अब विलयन कर नए मध्य प्रदेश में हो गया है उस मन्त्री मंडल में भी सन् 1932 से 1934 तक रह चुके है। आप कवि रत्न से शोभित रहे है । आप मध्य भारत हिन्दी-साहित्य-समिति इन्दौर के उपसभापति और रीवाँ की श्री रघुराज साहित्य परिषद् के सभापति रहे।
आपकी रचना धर्मिता आपकी जुबानी है :-
(ठाकुर गोपाल शरण सिंह के शब्दों में)
मेरा बाल्यकाल साहित्यिक वातावरण में व्यतीत हुआ। मेरे पिता संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और काव्य और साहित्य से उन्हें बड़ा अनुराग था। उनके पास कवि और विद्वान बराबर आया करते थे;और साहित्यिक चर्चा तथा कवितापाठ नित्य ही हुआ करता था। मेरे पिता ने संस्कृत की एक पाठशाला भी खोल रखी थी और वहीं संस्कृत से मेरा विद्यारम्भ हुआ था। मेरी माता जी रामचरित मानस का पाठ किया करती थी। ऐसी स्थिति में कविता के प्रति मेरे मन में अनुराग उत्पन्न होना स्वाभाविक था । मैंने पहले कुछ पद्य ब्रज भाषा में लिखे थे।,परन्तु सरस्वती पत्रिका में बाबू मैथिलीशरण गुप्त आदि की बोलचाल की भाषा में रचनाएं पढ़कर मैं उस ओर आकृष्ट हुआ और स्वयं खड़ी बोली में कविता लिखने लगा। सौभाग्यवश 'ग्रन्थि'नामक 1912 में सरस्वती में प्रकाशित हो गई। इससे मुझे बड़ा प्रोत्साहन मिला । उसके बाद मैं बोलचाल की भाषा में ही कविताएं लिखता रहा । सब सरस्वती में प्रकाशित होती गई मैं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का कृपापात्र हो गया और उनसे प्रेरणा भी मिलने लगी वे प्रोत्साहित भी करते रहे। मेरे प्रयाग आने पर अन्य साहित्यिक मित्र पं०रामनरेश त्रिपाठी, पं०ब्रजमोहन व्यास जी होते थे।
मेरी जो प्रकाशित पुस्तके हैं उनमें माधवी, कादम्बनी, मानवी, ज्योतिषमती, सागरिका, सुमना, संचिता, ग्रामिका, जगदालोक, प्रेमांजलि आधुनिक कवि और विश्व गीत।
नवीन कृतियों में विश्व गीत है। उसके अतिरिक्त दो पुस्तकें 'शान्ति-गीत' तथा 'मीरा'है।
पहली पुस्तक 'माधवी 'जब प्रकाशित हुई तब खड़ी बोली ब्रज भाषा के स्थान में कविता भाषा बनने का प्रयास कर रही थी। उस समय खड़ी बोली की रचनाओं में माधुर्य की कमी लोगों को खटकती थी । घनाक्षरी और सवैया छन्दों में यह पुस्तक है। इसकी शैली में ब्रज भाषा-काव्य की झलक है । निराशावादी रचनाओं के दौर में डाॅ०अमर नाथ झा ने एक दिन पूछा कि क्या हिन्दी में रोना ही रोना रहेगा ?इसी बात पर 'कादम्बनी 'लिखना आरम्भ किया, सब कविताएं आशावादी दृष्टिकोण से लिखी गई हैं। 'मानवी 'पुस्तक की रचना "युग युग के अगणित क्लेशों की तू है करुण कहानी "नारियों के कारुणिक जीवन का चित्रण है।
'ज्योतिष्मती 'आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन है। 'सागरिका' और 'सुमना' मुक्तक गीत है या गीत काव्य है। 'ग्रामिका' ग्राम्य जीवन तथा प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण है ।
'जगदालोक'गाँधी जी पर लिखा गया महाकाव्य है।
'प्रेमांजलि' स्वतंत्रता से पहले और स्वतंत्रता के बाद बदली हुई राजनीति का चित्रण है।
अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश से प्रभावित कविता 'संचिता' के बाद 'विश्व-गीत' और 'शान्ति-गीत ' लिखी गई । 'मीरा ' में उनके मनोभाव को प्रकट करने की चेष्टा की गई है। सबसे सुन्दर कृति 'जगदालोक 'है क्योंकि काव्य के एक युग विशेष का यह प्रतिनिधित्व करता है। ठाकुर गोपाल शरण सिंह जी ने अपने जीवन की आखिरी सांस दो अक्टूबर 1960 को ली। एक बड़े जमींदार सामंती साहित्यकार का जाना साहित्य जगत के लिए बहुत यादें छोड़कर दे गया जो आज भी मानवी है।
वस्तुतः ठाकुर गोपाल शरण सिंह की रचनात्मकता और कवि जीवन तीन भाग में है।
पहला काल वह है जब खड़ी बोली की कविता अपने पैरों पर खड़ी होने का प्रयत्न कर रही थी। उस समय आप बाबू मैथिलीशरण गुप्त के ढंग की कविताएं लिखते थे, वैसी कविताएं ज्योतिष्मती और संचिता में संगृहीत हैं।
आपके रचना काल का दूसरा भाग वह है जब आपने काव्य-जगत् में अपना एक अलग व्यक्तित्व स्थापित कर लिया। इस समय आपने घनाक्षरी छंद लिखे हैं, जो माधवी में संगृहीत हैं ।
आपके जीवन का तीसरा काल तब से आरम्भ होता है जब से हिन्दी में छायावाद और रहस्यवाद की कविताओं का महत्व बढ़ रहा था। इसी काल में कादम्बनी और मानवी की रचना हुई। कादंबिनी में प्रकृति-सौन्दर्य का चित्रण और मानवी में नारी जीवन की अवस्थाओं का मार्मिक वर्णन है।
आप कोमल भावनाओं के कवि रचनाओं में प्रेम की प्रधानता है । आपका प्रेम पवित्र है कहीं ईश्वर के प्रति है। कहीं संसार के प्रति है और कहीं देश के प्रति है। आप सांसारिक सुख दुःख से विशेष प्रभावित हुए हैं। अधिकांश रचनाएं मनुष्य - जीवन से संबंध रखती हैं । आपके छोटे-छोटे गीतों में पीड़ित आत्माओं का करुण स्वर स्पष्ट सुनाई पड़ता है । मानवी में तो आदि से अंत तक नारी-हृदय का क्रन्दन ही है । रचनाकर्म के प्रेरणाप्रद बनाने से लेकर आलोचक और प्रगतिपथ तक पहुँचाने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के बाद डॉ०श्यामसुन्दरदास,आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पं०शान्तिप्रिय द्विवेदी,डॉ०रामकुमार वर्मा, डॉ०रसाल,पं०रामनरेश त्रिपाठी,श्री भगवती चरण वर्मा, श्री नरेंद्र शर्मा और बा० रामचंद्र टण्डन रहे थे। मैसूर ओरियंटल कांफ्रेंस की कार्यवाही अंग्रेजी में होने पर भी डाॅ०गंगानाथ झा के सुझाव पर उन्होंने हिन्दी में ही कविता पढ़ी । ठाकुर गोपाल शरण सिंह जी को हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल और आधुनिक कवियों में हरिऔध जी, गुप्त जी, प्रसाद जी, निराला जी, पंत जी, महादेवी जी विशेष प्रिय थी इसके अतिरिक्त डॉ०रामकुमार वर्मा,दिनकर, बच्चन, रामनरेश त्रिपाठी, भगवतीचरण वर्मा, और गुरुभक्त सिंह पसन्द है। निराला जी की भेंट को अविस्मरणीय घटना मानते हैं। मतवाला मण्डल के आमंत्रण पर कलकत्ता में निराला जी की सहृदयता एवं आतिथ्य को अविस्मरणीय मानते हैं और कहते हैं कि उनके व्यक्तित्व से ही उनके कृतित्व का अनुमान किया जा सकता है। "नहि कस्तूरिका मोद: शपथेन विभाव्यते। "कस्तूरी अपनी सुगंध से उपस्थिति को प्रकट करा देती है ।
ठाकुर गोपाल शरण सिंह की कुछ पंक्तियां:-
परिवर्तन -
देखो यह जग का परिवर्तन,
जिन कलियों को खिलते देखा,
मृदु मारुत में हिलते देखा ,
प्रिय मधुपों से मिलते देखा
हो गया उन्हीं का आज दलन,
देखो यह जग का परिवर्तन ,
रहती थी नित्य बहार ,
जहाँ बहती थी रस की धार ,
जहाँ था सुषमा का संसार ,
जहाँ है वहाँ आज बस ,
ऊजड़ बन देखो ,
यह जग का परिवर्तन …
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मुझे अकेला ही रहने दो।
रहने दो मुझको निर्जन में,
काँटों को चुभने दो तन में,
मैं न चाहता सुख जीवन में,
करो न चिंता मेरी मन में,
घोर यातना ही सहने दो,
मुझे अकेला ही रहने दो।
मैं न चाहता हार बनूं मैं,
या कि प्रेम उपहार बनूं मैं,
या कि शीश शृंगार बनूं मैं,
मैं हूं फूल,
मुझे अकेला ही रहने दो ।
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