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अपनों को ही भूलें

 अपनों को ही भूलें   ************** अनजाने में कितने मिलते ही गये हम अपनों  को ही भूलेंं । रस्ते ही रहे  हमने ही बदले सोचते हम भी है कितने पगले । भूलने की कोशिश में ना जाने कितनी बार पथ अपने ही बदले । सोचते-सोचते गुमसुम हो रही रातों की जम्हाई भरी करवटें । क्या छुप-छुपकर क्या लिख दूं सब कोर पड़ी दीख रही सिलवटें। अब छूटते यौवन में अपने का जीवन की भूलें बातें  सूझती लपटें। किससे कहें  कुछ बात जो लग जाय तो तुनक से भी हो हटके । निराशा डराती है इस पल उस पल उनींदी सी हो जैसे करवटें । जिन्दगी भूलें डगर पे डरा रही जैसे  जंगल से आती हवा की आहटें। तुम्हारी मौन हमें भयभीत कराती जैसे बियाबान की सनसनाहटें। टिकी है आस में नई सुबह होगी झुरमुट में जो अलकों से छिपीं हैं तेरी लटें । इक खोज का सिलसिला दिखा जाती हो नागफनी जैसे फूल हो खिले। उड़गन तो बहुत देखें हैं रात केअंधेरों मेंआज तारिका से जैसे यूँ ही मिलें। अनजाने में कितने मिलते ही गये हम अपनों को ही भूलें। बागबां होने की चाहत फुलवारी में  फूल भी देखे बहुतेरे  अलसाते  खिले।  तराशी सी मूरत से उठी किरकिरी पलक  में रह गये  बिन शिकवे गिले ।              

पानी Water

 पानी ****** पानी तो पानी है नैनों से  भावों को पढ़ कर  छलक गया । ऑखों का पानी बिन रुके सरक , होठों तक ढलक गया । पता नहीं क्यों संग मेरे, मन का खारापन झलक गया । या तो ऑखों से ऑसू रोक   लूं, ऐसा क्या हो गया । धडकन की बेचैनी से,छलनी मन को  क्या हो गया । बहनें देते हैं सब कुछ, सुबक सुबक रहने का हो गया । पर बिन चोट किये घायल, तन जैसा  मन मेरा हो गया । अतीत की बातें हैं एकाकी  में ऑसू  जैसे टपक गया । क्या कहूँ निगाहों का जीवन जैसे बियाबान वन हो गया ।                                   *****

Farmer

 किसान  ~~~~ ऊँचे नीचे खेत मेड़ की ले कमान,  कांधे कुदाली , खुरपे संग चले किसान । मेघ वायु में कर रहा घमासान ।  संचरित मेघों का क्रीड़ांगनआसमान । सूरज के हाथों बंधी ईख और धान । कुछ चमकारे , कुछ मटियारे दीख रहे निशान। प्रतिपल भाष्कर सिझराता , निगराता, किसान ।  धरती धानी चूनर ,मेघ रंग रंगीले धरे परिधान ।  मनुज खेतों में बैलों संग  नंगे तन । मानवता की खेती में लहलहाती फसल निसान ।  किसानी मेघ बयानी का जीवन । खेतों पर जनतोष लिए जाते हैं । क्या कहें अब दूब भी चुभती है । एक मन है, एक तन है ,एक जीवन है । हम काँटों का कारोबार किये जाते है । खेत कलेवा चिरुवा पानी पीते है । सुनते है प्रगति कर गये है दुर्गति है । अब कर्जदारी का कार्ड लिए फिरते है । कैसे कृषक पलता खेती की जाती है । और वे रात दिन मेडों पर कैसे कटते हैं । बारिश के मौसम ने सारे ऑसू धो डाले है ।  ऐसी बारिश हो मन के दु:ख  मिट जाये । ईश्वर ने ही जन्म दिया वही सब हरते है ।।                    ********

जवान की देखभाल

 जवान की देखभाल करना  ***************** कभी रोटी कभी बेटी , कभी घरनी  कभी मायका, कभी ससुराल कभी जायका, सबसे हटकर खेत खलिहान। सबसे रखवाली कर रहा  जवान,  सीमा पर  निशिदिन खड़ा वीर महान । बकझक  भूल के,  याद कर लिया करना । वह साजे देश का सिंगार, आप सुहाग में भेजें प्यार, नाम उसके भी,  बकझक भूल के,  जल पी लिया करना। रात उसकी भी , दिन उसका भी , बकझक भूल के,  हर क्षण जाप लिया करना। पर्वत  की चोटी, देख रहा नौनिहाल, बकझक भूल के, माथसंवार कभी कर लिया करना। कभी साज से , कभी सिंगार से , बकझक भूल के,  देशरक्षक को निहार लिया करना। मन मजबूती से  संभाल लिया  करना। कभी रोटी कभी बेटी, कभी पीहर कभी जायका, सब छोड़ जवान की देखभाल करना। बकझक भूल के,  मनोबल  की  तान  और मान रखना ।। मन  की  मजबूती   संभाल  करना ।।               *********

Peace of Tree वृक्ष की शान्ति

वृक्ष की शान्ति ********** शाहबलूत देवदार , चीड़  बाज सभी,   वृक्षों की शान्ति । यह फटते बादल , और तड़कती बिजली , सब सह जाने की रखते शक्ति । तप की भ्रान्ति। नहीं बना रही है । चेतावनी मनुज को है । अनायास तोड़कर पहाड़, अपनी मौज को नहीं, भविष्य के लिए मौत, द्वार खोल रहे हो । नदियों का निर्बाध रुप, बांध कर सही नहीं है । भयावह यातना पंचेश्वर, रामगंगा ,गोमती ,कोसी, क्या सरयू ,अलकनंदा है । निशिदिन जल बहाता पर्वत, सूख रहे होने को बंजर, उड़ेंगे रेत पहाड़ों में, सैलाब बनेंगे मैदानों में, ईको का बैनर छोड़ो, वृक्षों को जड़ से पर्वत को  जोड़ो । पर्यावरण शेष रहे । हरित देश का वेश रहे । तन मन वे शान्त है , उनका वैसा शेष रहे । हरित हमारा देश रहे ।।          ******

बैद्यनाथ या हजारीप्रसाद

 बैद्यनाथ दुबे से हजारी प्रसाद बनने की यात्रा  ☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆ -कैलाश कल्पित की बातचीत साहित्य के साथी से (08 दिसम्बर 1955 विभागाध्यक्ष हिन्दी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रुप में पदस्थ प्रोफेसर द्विवेदी जी से भेंट ) ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤ॐ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤ बैद्यनाथ जी भेंट की बात उनकी जुबानी सुनने का सुख सबसे आनन्द देने वाला है इसमें कहीं व्योमकेश शास्त्री और कैलाश कल्पित जी नहीं होंगे। हांलाकि पूरी भेंटवार्ता कल्पित जी की आठ दिसम्बर 1955 को उनके चार बार के प्रयास के बाद सफल हुई सहमति पहले ही मिल चुकी थी लेकिन उनका बनारस रहना कम हो पाता था। जब भेंट कल्पित जी से हुई तो भेंटोत्तर जानकारी आपके सम्मुख है :- मेरा मूल निवास-स्थान बलिया जिले के आरद दुबे का छपरा है। आरद दुबे मेरे (बाबा के बाबा) वृद्धत - प्रपितामह का नाम है। वे ज्योतिष शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे और संस्कृत के अच्छे विद्वान थे । यह गाँव उन्हें उनकी योग्यता पर उस समय के राज्य द्वारा प्रदान किया गया था और उन्हीं के नाम से गाँव का नाम आरद दुबे का छपरा पड़ा । उसके बाद हमारे परिवार में पढ़ने- लिखने से अधिक रुचि रख

रामोदर साधु या राहुल सांकृत्यायन

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 रामोदर साधु या नागरी प्रचारिणी के रा.सा.या आजमगढ़ के केदारनाथ पाण्डेय या सांकृत्य गोत्र :RAHUL SANKRITYAN  ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤  आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने नागरी प्रचारिणी का कार्यभार छोड़ दिया था लेकिन मन से अपने को अलग नहीं कर पाए थे । उन्हीं दिनों लेख प्रकाशित हुआ लेखक रा.सा.था ।  द्विवेदी जी के लिए पता करना उनकी जिज्ञासा और कौतूहल दोनों विषय बन गये , पता चला कि गोवर्धन पाण्डेय या पाण्डे का बेटा रामोदर साधु ही रा.सा.है। इस बालक का जन्म वैशाख कृष्ण अष्टमी रविवार 1950 विक्रमी अर्थात् नौ अप्रैल 1893ई० को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद स्थित दूलहपुर स्टेशन से छह मील उत्तर दिशा में पंदहा गाँव  कनैला के निवास करने वाले संस्कारी किसान के यहाँ हुआ है  । इस साधु की माँ का नाम कुलवंती था। बालक की प्राथमिक शिक्षा दीक्षा में रानी की सराय पढ़ने जाना का था , बालक का नाम केदारनाथ पाण्डेय रखा गया,किन्तु मन के धनी एक आध महीने बडौरा गांव समीप में पढ़ाई किए, फिर रानी की सराय पाठशाला में भर्ती हुए।  यह जगह जौनपुर-बनारस मार्ग पर था।  उस समय वर्णमाला जमीन की मिट्टी पर लिखकर सीखना होता थ

भैंसा गाड़ी

  भैंसा -गाड़ी ********** युग-युगों का धन ,भक्ति शक्ति की नाड़ी । च क्र-सुदर्शन एक ही पल है मिल जानी ,  जो कल था दीख रहा ,जीवन धड़कन गाड़ी । अदृश्य मान हो रही बुग्गी, घट-घाट सुहाती , नगर डगर की नरक से पार लगाती भैसा -गाड़ी । काल  चाल  की बात का जीवन दाब  घटाती , चौकोर नाप  लिए तनका, न तिरछी न आड़ी, राजमार्ग पर चलती अपनी भैसा गाड़ी । मदमस्त चक्रमणित पगुराती अपनी गाड़ी , चूं चरर का राग सुनाती ,कटरी जंगल झाड़ी। ढ़ोते जाती मल-मलिनता पत्तल -हाड़ी , सबका-सब बटोर ले-चलती  भैंसा गाड़ी । जब-तक चलती रही बुग्गी बन  यम की गाड़ी , जन-मन के भाग्य रहे हँसी खुशी सुरक्षित , नरक जाते जीव आयु पूर्ति या स्वयं बीमारी। या वे  जाते जिनमें  चलती आरी और कुल्हाड़ी । भैसों को जिनने अपनी  खेती में कर ली, प्रभु ने उनकी सुधी ली भर दी उनकी झोली  , युग बदला छूटे भैंसे ,यम के बने असवार , यमलोक पहुँचने  लगें जीव  और सवार, जीव-जगत है माया ,यहीं छूट जाएगी काया , ना रह जाएगा  पैसा, सबको ले जाएगा भैंसा , चेले ढूंढते मलिनता को ढोते मन वाली गाड़ी  , अब मानव भूल गया ,अपनी भैंसा गाड़ी । युग-युगों का धन ,भक्ति शक्ति की नाड़ी । चक्र-सुदर्शन एक ह

Clay Drinking pot कुल्हड़

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☆☆☆☆☆ कुल्हड़ ☆☆☆☆☆ भारतीय संस्कारों में मिट्टी का सबसे उपयोगी पात्र कुल्हड़   रहा है, जीवन से जुड़ा प्रतिपल इसका उपयोग सबसे अधिक शुद्ध पात्र के रुप में मान्य और प्रतिष्ठा प्राप्त है। हमारे देश में ऐतिहासिक आंकड़ा तो नहीं है कि सबसे अच्छा कुल्हड़ कहाँ का है लेकिन अपने छह दशक के अनुभव से बनारस के कुल्हड़ ग्रामीण अंचलों का भरुका के आगे किसी दूसरे कुल्हड़ को नहीं स्वीकार कर पाता हूँ । उसका कारण भी है एक तो वजन में हलका होता है । दूसरा पतला होता है । तीसरा उसमें सुबह लोग चाय का लुफ्त तो शाम ठंडाई का आनन्द लेते है । यह रोजगार बाजार भी देता है पूरा परिवार रोजगार से जुड़ता है । इसमें अपने गंगा मईया की सोंथी माटी की सुगंध होती है जो कहीं नहीं मिलेंगी सिर्फ कुल्हड़ में मिलेगी बनारस में इसे पुरवा, भी कहते है कुछेक स्थान पर इसका उपयोग देशी मयखाने में भरपूर होता  है वहाँ इसे चुक्कड़ नाम से ख्याति प्राप्त है । बनारस में चाय पीते नहीं है चाय की चुस्की लेते है  और चुस्की कुल्हड़ में स्वाद देते है, उसके बाद असीम आनन्द की अनुभूति होती है, जिसे परमानन्द कहते है, फिर मंगाइयें कुल्हड़ और चाय पीकर देखिये फ

शैवाल गीत

 शैवाल -गीत  ~~~~~~ उकेरता हूँ, गीत शैवालों के , प्रीत , रीत के बिखेरता हूँ , शैवाल के वितान पर , नया, राग छेड़ जाता हूँ । बात, नयी छोड़ जाता हूँ , कसक, मीन की रह जाती है , कैलेण्डर चित्र सरीखे , अतीत हो चले शैवालों के । देखी किसने काई , सावन दादुर टेर भेजने के , केंचुआ विहीन मेड़ , छोड़ खेत की सीता देखता हूँ , पोखर छोड़ टिड्डीयाँ , लोहित शाम खोजता हूँ , शैवाल चादर थे, मीन की धरोहर , वही तल्प टिड्डी की, दादुर थे उसके चौकीदार , शरद सुहाते सिंघाड़े के, शैवाल हुए संघाती , प्रति-पर्वों की ऊपज, इसी से आती , पर जलमुर्गी खिंची लकीर सरीखी , प्रकृति की मार , शैवालों पर नीति के, नये रुप को उतारता हूँ । बने दरारों के खेत , शैवाल,सीप,मोती निहारता हूँ । रेत में छवि अतीत की, निज निखारता हूँ । शैवाल की ओट में निखरता हूँ उभारता हूँ । प्रीत बहोरता हूँ शैवालों के साथ, शोकाकुल पछताता हूँ, ताल-तलैया-पोखर के घहराते संकट में, गहराता जाता हूँ, यक्ष -प्रश्न ? सम्मुख शैवालों के, गीत बिम्बित ,प्रतिबिम्बित करता हूँ । खीचता,खरोचता हूँ , नित मीत शैवाल गीत सहेजता हूँ ।  ताल-तलैयों में निगराता हूँ । शैवालों के गीत ग