बैद्यनाथ या हजारीप्रसाद
बैद्यनाथ दुबे से हजारी प्रसाद बनने की यात्रा
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-कैलाश कल्पित की बातचीत साहित्य के साथी से (08 दिसम्बर 1955 विभागाध्यक्ष हिन्दी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रुप में पदस्थ प्रोफेसर द्विवेदी जी से भेंट )
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बैद्यनाथ जी भेंट की बात उनकी जुबानी सुनने का सुख सबसे आनन्द देने वाला है इसमें कहीं व्योमकेश शास्त्री और कैलाश कल्पित जी नहीं होंगे। हांलाकि पूरी भेंटवार्ता कल्पित जी की आठ दिसम्बर 1955 को उनके चार बार के प्रयास के बाद सफल हुई सहमति पहले ही मिल चुकी थी लेकिन उनका बनारस रहना कम हो पाता था। जब भेंट कल्पित जी से हुई तो भेंटोत्तर जानकारी आपके सम्मुख है :-
मेरा मूल निवास-स्थान बलिया जिले के आरद दुबे का छपरा है। आरद दुबे मेरे (बाबा के बाबा) वृद्धत - प्रपितामह का नाम है। वे ज्योतिष शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे और संस्कृत के अच्छे विद्वान थे । यह गाँव उन्हें उनकी योग्यता पर उस समय के राज्य द्वारा प्रदान किया गया था और उन्हीं के नाम से गाँव का नाम आरद दुबे का छपरा पड़ा । उसके बाद हमारे परिवार में पढ़ने- लिखने से अधिक रुचि रखने वाला कोई न हुआ । फलतः उत्तराधिकारियों के पास जो कुछ भी सम्पत्ति थी उसे वे बेच- बेच कर खाते गये । मेरे जन्मकाल तक मेरे घर में पर्याप्त दरिद्रता आ चुकी थी,फिर भी संस्कृत के प्रति थोड़ी-बहुत रुचि हमारे परिवार के व्यक्तियों में बाकी रह आई थी और इसी रुचि के आधार पर मेरी शिक्षा संस्कृत से प्रारम्भ हुई। मेरे पिता श्रीयुत पण्डित अनमोल दुबे ने मुझे अच्छी शिक्षा देने का प्रयास किया, साथ ही मुझमें भी कुछ स्वाभाविक ज्ञानपिपासा होने के कारण मेरी पढ़ाई का क्रम अच्छा बँधा । गाँव के पास ही बसरियापुर मिडिल स्कूल से मिडिल पास किया और फिर 1921 में काशी में संस्कृत पढ़ने आया । ज्योतिष अपने घर की पैतृक सम्पत्ति मानी जाने के कारण मुझे अनिवार्य रुप से पढ़नी पड़ी। मुझे ज्योतिष अधिक प्रिय न थी, ज्योतिष में मैंने आचार्य की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। मैं गणित-ज्योतिष में निश्चय ही आनन्द लेता था, किन्तु फलित-ज्योतिष में मुझे विश्वास नहीं रहा। ज्योतिष के साथ-साथ संस्कृत तो पढ़ता था ही, अंग्रेजी पढ़ने का शौक भी मुझे अपने आप हुआ। 1923 में विश्वविद्यालय में पढ़ना प्रारंभ किया साहित्य की ओर मेरी रुचि मेरे एक मित्र शुक्ल जी के साथ से जागृत हुई। वे प्रायः सामयिक पत्र-पत्रिकायें पढ़ते थे और कभी-कभी कुछ लिखते भी थे। उनके साथ रहते हुये साहित्य का आनन्द कुछ-कुछ मुझे मिला। इन्हीं दिनों मैथिलीशरण गुप्त की कवितायें सरस्वती में प्रकाशित हुई जो मुझे अच्छी लगीं और जब सुमित्रानंदन जी का पल्लव मैंने देखा तो मुझे साहित्य से विशेष अनुराग हुआ। लिखने की रुचि जागृत करने बनारसीदास चतुर्वेदी जी मेरे प्रमुख व्यक्तियों में से एक हैं। आप उन दिनों विशाल भारत का सम्पादन कर रहे थे,आपकी प्रेरणा ने मेरी लेखनी को बहुत बल दिया।
मुझे शान्तिनिकेतन ले जाने का श्रेय सुश्री आशा देवी जी को है । आप उन दिनों काशी विश्वविद्यालय के वीमेन्स कालिज में प्रोफेसर थीं और आजकल (१९५६)वर्ल्ड टीचर्स कान्फ्रेंस की उप-अध्यक्षा हैं। शान्तिनिकेतन पहुँच कर मैं गुरुदेव टैगोर के सम्पर्क में आया और मुझे उनसे भी बहुत कुछ प्राप्त हुआ। शोध के कार्य की ओर मुड़ने की प्रवृत्ति आचार्य क्षितिमोहन सेन और महामहोपाध्याय पं०विधुशेखर शास्त्री ने उत्पन्न की। शास्त्री जी का मेरे उत्थान में बहुत बड़ा हाथ है। प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल बसु ने मुझे लिखते रहने के लिए बराबर प्रोत्साहन दिया और उनसे प्रायः मेरा विचार-विमर्श होता रहता था।
हाँ, एक बात मैं अपने सम्बन्ध में आपको बताना भूल गया, वह भी बता देना अब आपको आवश्यक समझता हूँ। मेरे नाम के अर्थ के सम्बन्ध में प्रायः लोगों ने मुझसे पूछा है और मैं टाल गया हूँ। मेरा वास्तविक नाम बैद्यनाथ दुबे था, किन्तु जब मैं छोटा ही था तो मेरी ननिहाल की एक सम्पत्ति के पीछे एक मुकदमा मेरे घर वालों को लड़ना पड़ा और जिसमें जीत होने पर १०००) की राशि मेरे परिवार के हाथ लगी। इस एक हजार रुपये की याद रखने के लिये मेरा नाम बैद्यनाथ से हजारीप्रसाद हो गया।
गुरुदेव के शान्ति निकेतन की स्थापना का मूल सिद्धान्त आश्रमीय वातावरण और गुरु शिक्षा-प्रणाली रहा। गुरु ही सब कुछ है, इसको ही आधार बना कर उन्होंने अपनी पद्घति रखी थी। उनके विचार से शिक्षा-संस्थाओं में साधारणतया जो नियम और अधिनियम प्रचलित रहते हैं और हैं उनका कोई मूल्य नहीं। गुरु की आज्ञा ही सबकुछ है। वह जब जैसा भी उचित समझेगा, करेगा। नियम व्यक्ति के पीछे चल सकता है, व्यक्ति को नियम के पीछे चलने की आवश्यकता नहीं। आज के सभी विश्वविद्यालय और स्कूल व कालेज नियम को पहले बनाते हैं और उसके पीछे अपना सारा काम करते है, किन्तु आश्रमों में गुरु की आज्ञा ही सबसे बड़ा नियम होता है, प्रधान गुरु है और कुछ भी नहीं, कोई वस्तु नहीं। हमारे शिक्षा-केन्द्रों में परीक्षायें पास करने के लिये बहुत से कानून और कायदे हैं;जैसे, उपस्थिति की प्रतिशत संख्या, समय का बन्धन, विद्यालय के अपने कुछ विशिष्ट नियम, प्राप्त अंकों की गणना का आधार आदि। आश्रम की शिक्षा और परीक्षा में ऐसा कोई भी बन्धन नहीं होता। गुरु जब कभी उचित समझता है तो २ घन्टे लगातार पढ़ाता है और कभी २० मिनट ही दीक्षा देकर उस दिन का कार्य समाप्त कर देता है। यह आवश्यक नहीं कि ४० मिनट के घण्टे अवश्य ही पूरे किये जाये। यही सिद्धान्त परीक्षा में भी लागू किया जाता है।
गुरु यदि समझेगा कि शिष्य अमुक पद के योग्य है, तो फिर उसे कोई भी अन्य नियम देखने की आवश्यकता नहीं। शिष्य उत्तीर्ण समझा जायगा। शान्तिनिकेतन इसी सिद्धान्त पर स्थापित हुआ और गुरुदेव के काल तक उसका गुरु यदि वास्तविक गुरु है, तो फिर अन्य वस्तु देखने व समझने की आवश्यकता ही क्या है ? मुझे यह प्रणाली पसंद थी, किन्तु उनके बाद शान्तिनिकेतन का कार्य अधिक दिन तक उस प्रकार न चल सका। छात्र-छात्राओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ने लगी और धीरे-धीरे वहाँ भी नियम-अधिनियम बनने लगे। आजकल तो शान्तिनिकेतन भी एक लगभग वैसा ही विश्वविद्यालय है जैसे की अन्य। आधुनिक विश्वविद्यालय में जिस रुप में शिक्षा दी जा रही है वह बुरी नहीं, मैं इसे बुरा नहीं कह सकता, किन्तु फिर भी आजकल की शिक्षा नियमबद्ध है। एक मशीन की तरह इसमें काम होता है। इस शिक्षा में योग्यता की प्रधानता के साथ नियम और कानून अधिक महत्व पाते हैं। कोई छात्र कितना भी योग्य क्यों न हो, किन्तु वह परीक्षा में तब तक उत्तीर्ण या सफल नहीं माना जायगा जब तक कि विद्यालय के प्रचलित नियमों व अधिनियमों के अन्तर्गत वह पूर्ण नहीं उतरता। शिक्षकों का चुनाव और व्यवस्था का मार्जन रखा जाय तो आधुनिक शिक्षा-प्रणाली बुरी नहीं है और फिर ज्यों-ज्यों शिक्षा बढ़ती जाती है, शिक्षा संस्थायें उसी अनुपात में नहीं बढ़ पा रही हैं, तो फिर उन्हें नियमबद्ध होकर तो चलना ही पड़ेगा। यही सुलभ मार्ग है, वैसे निजी तौर पर मुझे आश्रम - प्रणाली प्रिय है। अच्छा होता कि शान्तिनिकेतन आश्रम प्रणाली से ही चलता रहता। यह प्रणाली भी एक आदर्श है ।
हिन्दी का संत-साहित्य सदा ही अपना महत्व रखेगा क्योंकि भौतिकवाद कितना भी बढ़े वह मानव के सात्विक गुणों की अवहेलना नहीं कर सकता। संत-कवियों की वाणी में मनुष्य को व्यक्ति के उन गुणों का दर्शन मिलता है जो सत्य है। संत-कवियों ने ईश्वरवाद को तो जो कुछ बढ़ाया, वह तो है। ही, किन्तु मुख्य बात यह है कि इन सब लोगों ने जीवन के किस रुप को चुना है। जो सत्य है वही शिव है और वही सुन्दर है। आगे आने वाले दिनों में कोई ईश्वर पर या उनकी लीलाओं पर विश्वास करें या न करें, किन्तु त्याग, तप सेवा की भावना वाले विचारों का आदर तो करेगा ही। संत-कवियों ने या यो कहिये कि कबीर और तुलसीदास ने जीवन का जो ऊँचा ध्येय और उसका दर्शन प्रस्तुत किया है, उससे तो कोई अलग नहीं भाग सकता। मैं समझता हूँ भौतिकवाद हिन्दी की इस साहित्यिक निधि को कोई भी हानि नहीं पहुँचा सकता।
कबीर और मीरा के रहस्यवाद में पारलौकिक चिन्तन अधिक मिलता है,जबकि आधुनिक रहस्यवाद में ऐहलौकिक चिन्तन ही मूल स्रोत है। आधुनिक रहस्यवादी कवियों में मैं पंत और निराला के रहस्यवाद को वास्तविक रहस्यवाद न मानकर रोमान्टिक रहस्यवाद मानता हूँ। इसके बाद आधुनिक रहस्यवाद के दो रुप हैं एक बुद्धिवृत्तिक और दूसरा भावुकता के साथ प्रत्यक्ष अनुभूतिमूलक।
प्रथम में जयशंकर प्रसाद की रचनायें और डॉ०रामकुमार वर्मा की कुछ कवितायें आती हैं। इनके काव्य को पढ़ने के बाद कुछ देर तक सोचा जाता है तब उसका आनन्द मिलता है, द्वितीय में महादेवी वर्मा प्रधान रुप से आती हैं। इनके रहस्यमय काव्यों को पढ़ने से प्रत्यक्ष अनुभूति और साथ ही साथ आनन्द मिलता जाता है। प्रथम कोटि का रहस्यवाद चिन्तन-प्रधान है तो द्वितीय कोटि का रहस्यवाद भावना-प्रधान है। ………............................................
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मैं गाँधीवाद पर विश्वास करता हूँ ;साथ ही मशीन की उपयोगिता को भी महत्व देता हूँ। किन्तु मैं यह चाहता हूँ कि मशीन मनुष्य पर हावी न हो, बल्कि मनुष्य मशीन को अपना दास बनावे।दूसरे रुप से अर्थ यह हुआ कि मशीन के कारण श्रम की जो भी बचत होती है, उसका लाभ व्यक्ति विशेष को न होकर श्रमिक को हो या जनसमुदाय को हो। मैं चर्खा भी त्यागना नहीं चाहता और मशीन का बहिष्कार भी करना ठीक नहीं समझता दोनों की ही आवश्यकता अपने - अपने स्थान पर है। मोटे रुप से कहूँ तो समाजवादी प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्था मैं पसंद करता हूँ।
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प्रगतिशील लेखक संघ को तो जानता हूँ, किन्तु उसके निकट बहुत कम रहा हूँ इसलिए उसकी गतिविधि से अधिक जानकार नहीं हूँ। मैं प्रगतिशील लेखकों को मान्यता देता हूँ, किन्तु प्रगतिवादियों को नहीं मानता क्योंकि वे चिल्ला-चिल्ला कर अपना लिखा सब पर लादना चाहते हैं। प्रगतिवादियों का अबतक ऐसा कोई भी साहित्य नहीं है जो स्थायी महत्व रखता हो। मैं प्रगतिशील लेखक और प्रगतिवादी में अन्तर मानता हूँ। लेखक के रुप में रामबिलास शर्मा ,अमृत राय और उपेन्द्र नाथ अश्क जैसे कुछ लेखक प्रगतिशील हैं, किन्तु इनके आगे-पीछे जो गिरोह है और जो प्रगतिवाद का एक मंच बनाकर अपना प्रचार करते हैं, वह ठीक नहीं। साहित्यकारों का सामूहिक कार्य बहुत अर्थ में अच्छा होता है, किन्तु आपस के प्रचार का कार्य कभी भी उचित नहीं माना जा सकता।
प्रगतिवाद में जो काव्य के अन्दर प्रयोगवाद चला है वह तो केवल प्रयोग ही प्रयोग है, उसका कोई भी रुप अभी निखर नहीं पाया है और भाषा के लिये तो मुझे यह कहना है कि इसका रुप किसी के बाँधने से नहीं बँधेगा। वह तो जनता जिस भाषा को आगे के वर्षों में अपनायेगी और उपयोग में लायेगी, वही भाषा का रुप होगा। लेखक को अपने लिखने से तात्पर्य रखना चाहिए, किसी पर थोपने की लालसा करने की आवश्यकता ही नहीं है। ख्वाजा अहमद अब्बास और कृश्न चन्दर की किताबें मेरे पढ़ने में नहीं आई हैं, अतः उनके विषय में कहने में असमर्थ हूँ।
लोगों का यह कहना कि आजकल के शिक्षकों के प्रति विद्यार्थियों की श्रद्धा नहीं होती, बिल्कुल गलत बात है। मेरा तो यह कहना है कि विद्यार्थी सदा ही गुरु के प्रति श्रद्धा रखता है और जिन शिक्षकों का यह कहना है कि उनके प्रति लड़के श्रद्धा नहीं रखते,उसके दोषी वे स्वयं हैं। उनमें अवश्य ही कोई कमी है। कम-से-कम विश्वविद्यालय का विद्यार्थी बड़ा ही जागरुक होता है, वह कभी भी गुरु के ज्ञान की अवहेलना नहीं कर सकता। मैं नवयुवकों कोई नया सन्देश नहीं देना चाहता, सुबह से शाम तक दीक्षा ही तो देता हूँ। भारतवर्ष में लाखों नवयुवक हैं और बेचारे सभी अपनी-अपनी परिस्थित से जकड़े हैं। वे बहुत कुछ सोच-समझकर भी बहुत से काम अपने लिए नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति में सभी को एक-सा आदेश या संदेश कैसे दूँ।
मुख्य बात जो मुझे कहनी है वह यह कि अपने और अपने समाज के प्रति विश्वास का पात्र बनें, सत्य पथ को अपनाएँ, संघर्ष से डरें नहीं और उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहें। चरित्र की उज्जवलता पर विश्वास रखें और अपनी बौद्धिक उन्नति सदैव करते रहें। हमारा देश स्वतन्त्र है और उसका भविष्य अब नवयुवकों के हाथ में है।
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