रामोदर साधु या राहुल सांकृत्यायन





 रामोदर साधु या नागरी प्रचारिणी के रा.सा.या आजमगढ़ के केदारनाथ पाण्डेय या सांकृत्य गोत्र :RAHUL SANKRITYAN 

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 आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने नागरी प्रचारिणी का कार्यभार छोड़ दिया था लेकिन मन से अपने को अलग नहीं कर पाए थे । उन्हीं दिनों लेख प्रकाशित हुआ लेखक रा.सा.था ।  द्विवेदी जी के लिए पता करना उनकी जिज्ञासा और कौतूहल दोनों विषय बन गये , पता चला कि गोवर्धन पाण्डेय या पाण्डे का बेटा रामोदर साधु ही रा.सा.है। इस बालक का जन्म वैशाख कृष्ण अष्टमी रविवार 1950 विक्रमी अर्थात् नौ अप्रैल 1893ई० को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद स्थित दूलहपुर स्टेशन से छह मील उत्तर दिशा में पंदहा गाँव  कनैला के निवास करने वाले संस्कारी किसान के यहाँ हुआ है  । इस साधु की माँ का नाम कुलवंती था। बालक की प्राथमिक शिक्षा दीक्षा में रानी की सराय पढ़ने जाना का था , बालक का नाम केदारनाथ पाण्डेय रखा गया,किन्तु मन के धनी एक आध महीने बडौरा गांव समीप में पढ़ाई किए, फिर रानी की सराय पाठशाला में भर्ती हुए।  यह जगह जौनपुर-बनारस मार्ग पर था।  उस समय वर्णमाला जमीन की मिट्टी पर लिखकर सीखना होता था।  बाद की पढ़ाई में उर्दू वाले काली स्याही से पट्टी पर लिखते थे और हिन्दी वाले पट्टी पर कालिख पोतकर पट्टी को चमकाते फिर सफेद स्याही (दूधिया या खड़िया ) से लिखते थे। लोअर प्राइमरी की बात करें तो इतिहास, भूगोल बाबू जगन्नाथ राय, उर्दू मौलवी गुलाम गीस खाँ, हिन्दी और गणित पं०सीताराम श्रोत्रिय पढ़ाते थे उस समय कक्षा छह ही मिडल का आखरी क्लास होता था। गाँव में अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध 'जी का पक्का मकान था, ये तो शिक्षक थे, उनके भाई गुरुसेवक सिंह डिप्टी कलेक्टर थे। निजामाबाद स्कूल मेरे लिए महत्वपूर्ण थी। ननिहाल में रामदीन मामा के पुत्र दीपचन्द ने मेरा अक्षरारम्भ कराया था। उस समय हम लोग स्कूल अंगोछे में भूजा या सना हुआ सत्तू खाते थे। हमारे रामदीन मामा हमारे लिए आदर्श थे। हम सब तीन भाई  और थे। श्याम लाल, रामधारी और श्रीनाथ सभी नीचे की कक्षा में पढ़ रहे थे। जब बनारस गये थे तो पिता के मामा के मठ के बगल में जगेसरनाथ मंदिर में गये वहाँ संस्कृत पढ़ने के नाम पर रहे लेकिन पैसे के अभाव में वापस ननिहाल लौटना पड़ा। यहाँ दो सेर देसी घी ठीक से नहीं रख सका पूरा घी जमीन पर बह गया जुगत लगाकर बाइस रुपये जुगाड़ किये किसी को पता नहीं चल सका और कलकता के लिए भाग निकलें। बनारस मुगलसराय के रस्ते बाबू महादेव प्रसाद ने कलकत्ते के सहयोगी बने लेकिन खोलाबाड़ी (बांस के चंचल दीवार वाले घर ) से मोह टूट गया धर्मतल्ला, खिदिरपोर,नीमतल्ला रहते हुए घर की याद ने वापिस आज़मगढ़ बुला लिया निजामाबाद स्कूल में फेल साथी रह गए थे उकलेदिस (रेखागणित)की जगह ज्योमेट्री की किताब, इतिहास में बदलाव आया इसीबीच मलेरिया ने आ घेरा लेकिन पुजारी जी ने ठीक उपचार से अच्छा कर दिया। अबकी पैदल अयोध्या के रास्ते हरिद्वार और फिर देवप्रयाग होते हुए पहाड़ की ओर चले गये। 

बचपन में विवाह की बात चली हुआ भी तो सांसारिक बोझ से निकल गये, उस समय बनारस भाग गये, जगेसरनाथ मंदिर में रहकर पढ़ने लगे खाना बनाते पढ़ते लेकिन काशी की पृष्ठभूमि ने साधु और साहित्यकार दोनों के बीच का रास्ता बना दिया और अल्पायु में नाम बदलकर रामोदर साधु हो गए । संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया किन्तु यहाँ अकेले नहीं थे । अपने लोगों के बीच रहते थे । यहाँ से मन उबा तो कलकत्ता भाग गये और यहां की  संगति से आर्य समाज के साधु से संस्कृत अध्यापक बनकर श्रीलंका चले गये । यायावरी जीवन में  वर्ष 1927 के समय बौद्ध भिक्षु बनकर लंका में रहे । अध्यापक से पाठन और अध्ययन से पठन कर पालि भाषा को सीखा ।  पालि साहित्य पढ़ा और लंका नामक किताब भी नहीं लिखी। इसी दौरान आपकी भेंट भदन्त आनन्द कौसल्यायन जी से हुई।  कुछ अन्तराल में आप  स्वयं ही महापंडित हो गये । वर्ष  1930 में आप पीत वस्त्र धारण कर राहुल सांकृत्यायन हो गये । रामोदर साधु का रा. सा. अब राहुल सांकृत्यायन प्रसिद्ध हो गया । सांकृत्य इनका गोत्र था। इस कारण सांकृत्यायन लिख दिया । अब केदारनाथ पाण्डेय पूर्णतः बौद्ध भिक्षु, विद्वान्, धर्मानुयायी  बन गए। संन्यासी नहीं बने।  यायावर घुमक्कड़ शास्त्री बने। 

भदन्त आनन्द कौसल्यायन जी इन्हें वर्ष  1932 में इग्लैंड ले गए। योरप यात्रा में तीन महीने में ही मेरी योरप यात्रा किताब लिख दी। इसी वर्ष बौद्ध ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद कार्य किया  ।  आप अपने जीवन का तीन चौथाई समय पढ़ाई लिखाई पर देते थे। राहुल जी लेनिनग्राड़ विश्वविद्यालय रुस में इण्डोलाॅजिकल विभाग में संस्कृत के प्रोफेसर थे। 

आप हिन्दी, उर्दू, बँगला, संस्कृत, अंग्रेजी, पालि, तिब्बति, सिंहली, प्राकृत, रसियन के अच्छे जानकार थे। 

जीवन में पहाड़ आपको प्रिय रहा नैनीताल और हिमाचल प्रिय था। सर्वधर्म समभावी व्यक्तित्व के धनी थे, साहित्य जीवन था, जब कोई साक्षात्कार लेने जाता तो कहते मैंने अपने जीवन पर आधारित लिख दिया है आप पढ़ लें शेष जो बच जाए उसे पूछे स्वागत अच्छा करते थे।  उनका मानना था कि उनके विषय में जानने के लिए लंका, मेरी योरप यात्रा और मेरी जीवन यात्रा बहुत है। 

मसूरी में हैप्पी वैली में अपनी धर्मपत्नी कमला परियार, पुत्री जया, पुत्र जयता और प्रिय श्वान (कुत्ता)भूतना के साथ रहते थे । एक रेमिंगटन की टाइप मशीन पर स्वयं टाइप किया करते लिखते रहते थे। जीवन में लगभग एक सौ पच्चीस से अधिक पुस्तके प्रकाशित की। यात्रा संस्मरण से लेकर देशदर्शन, साहित्य और इतिहास, अनुवाद, बौद्ध दर्शन, संस्कृत, तिब्बति  अंग्रेजी आदि पर कार्य किया। वर्ष 1962 में राहुल जी का स्वास्थ्य खराब रहने लगा उन्हें मधुमेह की शिकायत थी जिसके उपचार के लिए रुस भी गए थे लगभग सात महीनें रहे किन्तु कुछ लाभ नहीं हुआ फिर दार्जिलिंग पश्चिम बंगाल लौट आए। वहीं चौदह अप्रैल 1963 को परमगति को प्राप्त हुए । 

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