संदेश

कर्कशा

  डाँ रमेश चन्द्र शुक्ल के आदेश पर लिखी गई मुक्तक - कर्कशा ¤¤¤¤¤ अबला जीवन रुप सिझाती जाती, अविश्वासी मन को ही उरझा जाती। काय रुप जीवन नाम रुप मर्म सुहाती, रेखाऐं प्रगति की नूतन उत्कर्ष जगाती। उकेरे ललाट के भावों में पीड़ा दिख जाती, ईर्ष्या, अन्तर्द्वन्द्वों के अन्ध कूप में बलखाती।  आत्मभीरु  दशा वाली कैसे मधुर प्रेम रमाती, तृषिता ग्रास ही लेती है उन्मुक्त जीवन धार। शापित काया करती वर्णनाद बंधितवार।  निष्ठुर प्राणहीन के कोमल नहीं होते प्रहार,  कड़क जिह्वा कोर चुभते शब्द लगते कटार। लोक लाज फूटते शब्दों के कहर लगते ज़हर।  कर्कशा के मस्तक पर नदियों सरीखे लहर। साहस नहीं नाम लेवा हो सके कोई नर,  कह सके कोई प्रिये या फिर कोई सुघर।  चित्त लोच में रखो जीवन जायगा संवर,  रुचे न रुचे सत्य प्रिय के बीच ही रहो मगर।                    ¤¤¤¤¤¤

चाल चरित्र और चेहरा

  चाल चरित्र और चेहरा  ***************** चाल चरित्र और चेहरा के विषय में जब मन सोचता है,तो घबराने लगता है कि चाल तो सभी चलना सीख ही रहे है, सभी अपने तरीके से चाल चलते है ,माँ बच्चे को चलने के लिए जब सीखाती है , तो अनायास ही उसके बोल फूट पड़ते है कि बच्चे की क्या चाल है , फिर ढाल पर भी बात चलती है ,चाल प्रमुख तत्व है , जीवन के सवार या बिगाड़ में उसका बड़ा हाथ होता है, तुरुप की चाल तो कोई -कोई ही चल पाता है ।  भलमनसाहत की चाल कम लोग ही चलते है , मामा शकुनी की चाल को कौन नहीं जानता है, मुहावरे की तरह से प्रसिद्ध है , मारिच मामा की चाल और खेल में शतरंज की अपनी चाल होती है । घोड़ा-हाथी -पैदल सब अपने कायदे से चलते है, परन्तु आज के जमाने में आदमी की चाल को भांपना आसान काम नहीं है ,कूटनीति में अलग चाल चली जाती है और राजनीति में अलग चाल चली जाती है ,मुम्बई में लोग चाल में गुजर बसर करते है, परन्तु चालबाजी वहां नहीं करते है क्योकि चैन की नींद सोना होता है , यहाँ चाल चली जाती है ताकि आप दु :खी रहें ,चाल आज नित्य प्रति की जरूरत बन गया है । कोई काम आ जाय चलना ही पड़ेगा मोटर साइकिल उठा कर चल...

संकेत

  संकेत ------- ------- अपलक , संगीत  हृदय  हीन , प्रधानता।  नहीं  कभी कोई  खट -पट , हटा  ध्यान हो गया  जीव नष्ट ।  नारी को  जयमाल है  वरण  का चौखट  आहट  सुख-दुःख झट-पट , सक्रिय  कान्तार का आखेट साँसों का  मरण , मीनारों पर  जलपोतों का  गन्तव्य , स्तम्भों पर दिशा बोधव्य , भँवर  नदियों में   आपदा ।  धूम्र  अग्नि  पथ-प्रदर्शक ।  कवि का  बना अभिज्ञान  तर्जनी विनाशवान  संकेत  गति  होना  मन्थर रुकना   चलना  दैहिक से  रेखांकित  मानचित्र  फलक  गतिहीन  बने  गतिमान  खेचर  जलचर  थलचर की  जीवनरेख  पढ़ जाते  भविष्य वेत्ता   मस्तक का  लेख अमिट  सब  संकेत  भेंट । -------0------

नये विहाग में होली

  नये विहाग में होली ------------------ जीवन ऋतु के नये विहाग ने  , ली अगड़ाई और हो गयी होली  | किलकारी चहुँ ओर निहारे ,  गाँव गिराव जनमन की बोली  | शीत बयार की खाट छोड़  , रंग रसिया  ले रंग की ढोली  , अर् …. र्..र्.. का स्वांग रचाती   मदमाती आ गयी होली  | प्रकृति पुजारी वृक्षों ने  , पीत पात छोड़ किसलय ओढ़ी  | सरसों की अज़ब कहानी  , खेत खलिहानों को पियराती , रंग सुहाने बंजर बीहड़ के दिन , बहुरा टेसू से कुसुमाती लाली  | काग नीड़ छोड़ कोकिल कर रही ठिठोली  , सब जग एक रंग रंगे हैं  , गुन में नेह गेह की टोली  | बूढ़ों को नौजवान कर देती  , फागुन में प्रेम प्रीत की बोली  | आई ऐसी अपनी रीत प्रीत भरी  , स्नेहिल होली  | दनुज देव भाव से मिलते , करते प्रेम ठिठोली  | अर् …. र्..र्.. का स्वांग रचाती  || मदमाती आ गयी होली   -----0------  

आचमन

आचमन ****** कल्पों से   , पुरोहित   , यज्ञ आहुति से   , ब्रह्माण्ड शोधित कराने   , प्रौक्षणि से यजमान को   , करा रहा आचमन   , प्रकृति पुरुष प्रणम्य   , आचमन आधृत , तप- आतप   , धन्य भुवन । विनायक साक्षी , विघ्न शमन    , धार कर मध्य   , अमृत आचमन   , भास्वर जीवन । जल्पों में तकता   , एकाकी मन । शुध्द हो गया   , गगन आँगन । शुध्दि    को तरसता   , चिरन्तन । मन्वन्तर में होता , आचमन   , तन लगता दूषित वसन । तृषित गल्प    जीवन-मरण   , नीर तज नहीं सकता नयन   , वेदिका पर हो रही   , प्रदक्षिणा जल सुमन   , अक्षर बन सत्पथ गमन । जाह्नवी    नीर सम    जीवन   , पुरोहित यजमान का मिलन   , प्रकृति-पुरुष का आचमन । अमृत -मंथन   , विकल्प छोड़ संकल्प को करते नमन   , शुध्दि बोध मंगल बूँद से सघन   , सरस जीवन तन औ मन । कर लो स्वच्छ निर्मल आचमन   , जीवन बगिया सुघर  ...

अमरत्व

  अमरत्व प्राण भरे दो आस , थमते ही जीवन श्वास । टूटा धागा नेह विश्वास।। किसी के भाग पहुंचा , किसी को मिली हंसुली । लूट मची कुछ ऐसी , कविता के तार ताने-बाने   , पंक्ति -पंक्ति से बट गयी । पहली पंक्ति दूसरी से कट गयी ।। अर्थ अनर्थ में छट गयी । धरी रह गई धरा पर देह , पल भर पहले की छूट गई नेह । अर्थ पिशाचों की दुनियां , कभी न सोचती अपना चाल , कल अपना भी होगा यही हाल । टूट पडे़गी आने वाली पीढ़ी , निधन सुनते निर्धन कर देगी । देह छोड़ दनुज का खेल , खेल रहे जो हम । हमसे खेलेंगे भावी जन-मन। स्वार्थ परार्थ त्याग परमार्थ भाव धरो। आत्म परमात्म का ध्यान करो । आस पर विश्वास धरो । नश्वर को नया स्वर दो । जीवन में अमरत्व भर दो ।। ------0-----

भाषाई शुचिता

 भाषाई शुचिता  *********  रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गइ सरग पताल।  आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ।।  वर्तमान समय त्रासदी का है ,सम्पूर्ण शरीर व्याधि ग्रस्त है,मन छटपटाह से भरा हुआ है ,मस्तिष्क अशान्त है,चित्त पराधीन है, यूं तो स्वतन्त्रता देह की है , और बाहर से आ रहे शब्दों की है, आज शब्दों में शुचिता, पवित्रता के अभाव ने मानवता को खोखला कर दिया है, अतीत के शब्दों में समाज की सबसे बड़ी थाती उसको झकझोरती हुई शब्दावली थी, उसके नाम को न लेने वाले को उस समय का समाज सतकर्मी कहता था  ,आज यह शब्द न जाने किस स्थान पर पहुँच गयी है,लेकिन सतकर्मियों से हट कर आम मनुष्यों की भाषा में विकार अवश्य आ गया है | प्रदेश या दुनियां का कोई भी क्षेत्र हो भाषा में जो शब्द परोसे जा रहे है,मानवता उसका चित्र अपने ऊपर अवश्य उकेर लेती है,सड़क से लेकर संसद तक जब वही शब्द चलता है,तब दु :खद लगता है,उचित होगा कि हमें अपने जीवन की शब्दावली में उचित शब्दों का कोष बनाना पड़ेगा ,जिसे समाज में परिवार में पाठ्य पुस्तकों के योग्य ही रखा जा सके ,भला हो कि अभी  पाठ्य पुस्तकों में यह शब्द नहीं ह...

सूरज और चन्दा

  सूरज और चन्दा सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई । बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । सूरज ने रार कुछ यूँ समझाई । दिन भर उधम बहुत मचाई । चन्दा भी करती खेल खिलाई । माँ उसको देती मोती भरी मलाई । सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई। बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । माँ मैंने पीछे जब भी कदम बढ़ाई । मोती राख बन तेरे आँचल है समाई । अनुगामी रहा फिर भी इसकी ढिठाई । इसको दया कभी न मुझ पर आई । सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई । बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । माँ बोली शीतलता है इसकी कमाई । तुम करते अकुलित जीवन तरुणाई । चन्दा से सीखो शान्ति सजलता सुघराई । अहर्निश सेवा ही मेवा देती आई ।   सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई । बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । -------0-------  डाँ० करुणा शंकर  

तरई के गाँव में

  तरई के गाँव में *********** तरई के गाँव में   , चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   जिनगी के ककहरा में देस अऊ गांव समाय रहा ।   अइसन मोह अऊ बिछोह जियरा छटपटाय रहा ।   तरई के गाँव में   , चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   मनवा क गतिया दिनवा -रतिया   ,  अटपटाय रहा ।   किस्सा अऊ बतिया हियरा में लहराय रहा । तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   उतान सेवारे क मचान पनिया में बनाय रहा ।   पात बीच बेरा के फूल जइसन गमगमाय रहा ।   तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   मन मगन सेवा सहचरी में तन कुनमुनाय रहा ।     सुख शान्ति अशीष सब जन पे गुनगुनाय रहा । तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा । निर्मोही मनवा बैरी पपीहवा टेर में अटकाय रहा । संगी सब ल...

जीवन धारिणी माँ गंगे

  जीवन धारिणी माँ गंगे   जीवन धारिणी माँ गंगे अमर जल जीवन धारिणी माँ गंगे , सकल थल के बंट गए ओर छोर । स्मृतियों के जल प्लावन में  , हैं कैनवास पर टंगें लहर । धूल-धूसरित हो रहे तन के कोर-कोर । पसरता ताप बिखरता संताप रेत पर । रास्ते भटक गये जैसे टूट रहे घर-द्वार  , अब भटक गया नदियों का पारावार  , आँगन के आँगन में बनती जैसे दीवार  , अतीत अंतस्थल के मुहानों पर बसते नगर  , शिव ने कालकूट गरल लिया धर  , बनाया मनुजता का अमृत सरोवर , शहर पनारों से भरपूर बहा रहा , ज़हर का नहर । बोझिल नदी दम तोड़ती जो कभी थी जीवों का घर । सैकत शैय्या पसरी श्वास प्रश्वास निसि - बासर , सुनी है सरसराहट भरी घुटती श्वास अक्सर  , अल्प बसेरे खगकुल के ,  शान्त हो गया कल-कल  , माँ की भला कोई आह सुने क्योंकर  , गंगा सागर अपलक पाप गठरिया रही निहार  , पुकार जह्नुसुता का रुधित हृदय बार-बार  , सदियों से कर रही मानवता का संस्कार । कोई तो सुन ले माँ की प्रतीक्षित पुकार , मलिन घट-तट  , घाट का कर दे उध्दार  , सदियों से कर रही म...