कर्कशा
डाँ रमेश चन्द्र शुक्ल के आदेश पर लिखी गई मुक्तक -
कर्कशा
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अबला जीवन रुप सिझाती जाती, अविश्वासी मन को ही उरझा जाती। काय रुप जीवन नाम रुप मर्म सुहाती, रेखाऐं प्रगति की नूतन उत्कर्ष जगाती। उकेरे ललाट के भावों में पीड़ा दिख जाती,
ईर्ष्या, अन्तर्द्वन्द्वों के अन्ध कूप में बलखाती।
आत्मभीरु दशा वाली कैसे मधुर प्रेम रमाती,
तृषिता ग्रास ही लेती है उन्मुक्त जीवन धार।
शापित काया करती वर्णनाद बंधितवार।
निष्ठुर प्राणहीन के कोमल नहीं होते प्रहार,
कड़क जिह्वा कोर चुभते शब्द लगते कटार। लोक लाज फूटते शब्दों के कहर लगते ज़हर।
कर्कशा के मस्तक पर नदियों सरीखे लहर। साहस नहीं नाम लेवा हो सके कोई नर,
कह सके कोई प्रिये या फिर कोई सुघर।
चित्त लोच में रखो जीवन जायगा संवर,
रुचे न रुचे सत्य प्रिय के बीच ही रहो मगर।
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