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श्वान व्यथा

श्वान व्यथा शीत आतप बरखा करते सहन, मिल श्वान कर बैठे सम्मेलन । गंभीर विषय पर करते आकलन , युग परिवर्तन का आ गया चलन । चिंतन अस्तित्व का हो रहा गहन , प्रतिरोध मानव के आहूत सदन । शुनि छौनों के लिए पाठन-पठन , जात मानवों की हो गयी बद-चलन । पोर-पोर विकसित होता जीवन , खोद-खोद कूप का हो जाता खनन । क्षीण कर जाता मन को मनुज दर्शन , त्याग राह दो-पाये से भयभीत है मिलन । भूकना छोड़ दो भोकने का है चलन, चौपाये की कौन सुनता अब सरीसृप भी ओझिल नयन। मांसातुर रुधिर पिपासु जिनके हो गये तन, जंजीर -सीखचों से ही जो करते आकलन । रौदती सडकों पर चौपहियों से आवागमन , भाग्य में बदा सिर्फ मरण या पतन । चकाचौध की झलक कर गयी अन्धेरा गगन , श्वान अपने आप ठिठक एकाकी रह गया मगन । प्रवेश से पहले दबा दिया द्वार का बटन, पहरेदार की पूछे कौन ? लगी पट्टिका का हो गया दर्शन,। लिखा अन्दर कुत्ता रहता है दबी घंटी बोल पड़ी घन-घन ।।

चिंगारी

 चिंगारी अटवी  के प्रस्तर , खंड -खंड घर्षण,  चकमक चकाचौध , जठरानल को शान्ति दे , अखंड जीवन की,  लौ चिंगारी । बन मशाल, प्रेरणा की मिसाल , मंगल की, चमकी चिंगारी । चहुँ ओर  , तम का डेरा। जन सैलाब चिंगारी से, अभिभूत वडवानल  घेरा । व्याकुल आने को नया सवेरा, रानी के खडगों की चिंगारी । अमर कर गई , जन-जन में जोश भर गई , सत्य अहिंसा प्रेम दीवानी, बापू की स्वराज चिंगारी ।। नूतन  अलख जगा गई , देशभक्त बलिदानी, चिंगारी दावानल फैला गई । युग - युग के ज़ुल्मों को सुलझा गई । नई रात , नई प्रात: करा गयी । चिंगारी  मशाल, मिसाल  बन , स्वाभिमान बन, राष्ट्र गीत सुना  गयी ।। -------0--------

माँ गंगे तरल तरंगे

  माँ गँगें तरल तरंगें                *************                            माँ गँगें तरल तरंगें अविरल धारा  , जीवन संगे   । रूप निखारें लहर  - लहर में रवि रश्मियों के   रंगें   ।   जीवन संगे  , माँ गंगे  , तरल तरंगें   । रूप सुनहरा निखर रहा माँ जग कहता सारा   । बूँद  –  बूँद पर सूरज  , चांद  , सितारे देते पहरा   । जीवन संगे  , माँ गंगे  , तरल तरंगें   । उच्छल जलधितरंग निशदिन जन कल्याणक गंगा   । सैकत मध्य विचरती नर - मुनियों की आश्रय गंगा   । जीवन संगे  , माँ गंगे  , तरल तरंगें   । ऊँच  –  नीच छोड़कर धर्म कर्म संस्कार जगाती   । दीनों – दुखियों में हर - पल माँ अमृत रस बरसाती   । जीवन संगे  , माँ गंगे  , तरल तरंगें   । गंगा सागर तक बस इसी तरह बहती रहना   । धराधाम पर माँ अजस्र स्रोत सी बहती रहन...

लोरिक मन्जरी

                           लोरिक मन्जरी                                                   ************   मीरजापुर जनपद के विभाजन के बाद कैमूर घाटी में सोनभद्र नाम से प्रसिध्द क्षेत्र का विस्तार मघ्यप्रदेश और बिहार प्रदेश की सीमाओं तक रहा हैं जिसमे जंगल , पठार , ही प्रमुख हैं , यहाँ बाघ , भालू , चीते आसानी से आज भी घूमते मिल जाते हैं , यह वन्य-प्राणियों का खुला अभयारण्य क्षेत्र है , यहाँ अतीत काल में छोटे-छोटे राजा राज्य किया करते थे , यहाँ का मार्ग दुर्गम होता था , आज भी है , क्योंकि समूचा क्षेत्र विन्ध्य पर्वत माला क्षेत्र से आच्छादित है , सोन क्षेत्र में विजयगढ़ का राज्य , रामगढ़ का राज्य  , कोटा का राज्य और अगोरी राजा का राज्य था  |  राजाओं के अधीन जंगल के निवासी प्रजा के रूप में रहा करते थे  |            ...

पढ़ाई

 नदी में तैरता हुआ तैराक हाथ-पैर मारते हुए अपने कार्य को कठिन बताता है, और अपने पास वाले को यह कहते हुए आगे बढ़ जाता है कि संसार का यह सबसे कठिन काम है,इग्लिश चैनल पार करना अब उसका आख़िरी मुकाम है,बाबा भारती का घोड़ा धोखे से झटकने वाला डाकू खड्ग सिंह यह चालबाजी चलने में सफल रहा था कि अपाहिज की भूमिका में उसने बाबा का घोड़ा हथिया लिया था | उस समय उसे लगा था कि उसका यह दांव कारगर निकला किन्तु बाबा का जो दाँव समाज पर उपयुक्त रहा आज भी उस विश्वासघात का मरहम नहीं बन सका है,आदमी एक समय में कई चालें चल सकता है,फिराके बना सकता है,जुगत लगा सकता है,काम करते हुए बतिया सकता है,दुनियाँ के सारे एशों आराम कर सकता है,किन्तु चाणक्य महाराज के अनुसार  विद्यार्थिन : कुतो  सुखं , की बात अलग थलग रह जाती है, यदि आप विद्यार्थीं है तो निश्चित जानिये शिक्षा का कोई आख़िरी मुकाम नहीं होता है,यह कोई इग्लिश चैनल पार करना जैसा कार्य नहीं होता है,जीवन के अनेक क्षेत्र है , अनेक विषय है ,किन्तु जीवन ही छोटा होता है,पढ़ाई में मनन है,चिंतन है,इसके साथ आप तैराकी नहीं कर सकते है,चालबाजी नहीं कर सकते है,कलाबाज...

वृक्ष

वृक्षों की शान्ति । तप की भ्रान्ति। नहीं बन रही है । चेतावनी मनुज को है ।। अनायास तोड़कर पहाड़ अपनी मौज को नहीं भविष्य के लिए मौत द्वार खोल रहे हो । नदियों का निर्बाध रुप बांध कर सही नही है । भयावह यातना पंचेश्वर क्या सरयू अलकनंदा है । निशिदिन बहता पर्वत जल सूख रहे होने को बंजर उड़ेंगे रेत पहाड़ों में सैलाब होगी मैदानों में ईको का बैनर छोड़ो वृक्षों को जड़ से जोड़ो । पर्यावरण शेष रहे । हरित देश का वेश रहे ।।

ऐरे गैरे

    ऐरे गैरे  , गर्दिश के सितारे , असंतुलित मस्तिष्क , बिखर जाते शब्द , लिखा कुछ होता , कह   कुछ जाते । सोरे -सोरे , बातें चुभ जाती  , पोरे -पोरे  , छोरे-छोरे सुमरति भोरे। और अँधेरे , ऐरे गैरे नत्थू खैरे   मोरे  , सब छोरे , ऐसे   वैसे मानव   बना , जैसे तैसे , जीवन कटता , प्रतिपल , पैसे-पैसे ।। बेलगाम  , जिह्वा के टोरे  , कह जाती , मोरे-तोरे  , करियारे , कर्कश , ठूँठ के ठौरे , ना मधुमास , ना भौरे , अक्षर -अक्षर , विध जाते , तन पर , लगे हो , कंकडिया के कोरे । हम पर , चाहे कितना फेंको , मन पर , न फेंको , आग लगे कौरे । नदी में तैरे , पनसुइया  , जैसे बंधी हो डोरे , विवश जीवन , पतवारे , मझधारे , जाय उबारे , कैसे उस पारे। गौरव   मोरे दुःख हरे , सुख भरे , ऐरे गैरे  , गर्दिश के सितारे , शब्द बिखर जाते , लिखा कुछ होता , कह   कुछ जाते , बातें चुभ जाती , पोरे -पोरे । ऐरे गैरे  , नत्थू खैरे ।।...

देहरी का सूरज

देहरी का सूरज देहरी का सूरज आदमी की परछाइयों को , तिर्यक बढ़ा गया | कद में आदमी छोटा हो गया || धीमान , तिर्यक हो गया | सूरज का देहरी पर आना , शायद , परिवर्तन है , प्रकृति का , जीवन का स्पंदन का , क्रन्दन में हास - परिहास, सम्वेदना , मरती जाती है , देहरी से बाहर, मानवीयता सूरज की ओट , किसी छाँह में , जहां अन्धकार है , आदमीयता, प्यार है , ठंडी, दुलार है , कोटर में रहने लगी है , परछाई , औसत से बड़ी होती है || उसमें, छहास होती है , ठंडक होती है , परछाई, सम्वेदना का नीड़ है , तिर्यक होने का सेहरा, किसी और के माथे है , अब तो नदियाँ , सडक, सब, हांफने लगे है | लपटें उठनें लगीं है, उनके हृदय पटल से , उन्हें रौद रहा है , आदमी ! सिर्फ आदमी !! || -------0------