श्वान व्यथा


श्वान व्यथा

शीत आतप बरखा करते सहन,

मिल श्वान कर बैठे सम्मेलन ।

गंभीर विषय पर करते आकलन ,

युग परिवर्तन का आ गया चलन ।

चिंतन अस्तित्व का हो रहा गहन ,

प्रतिरोध मानव के आहूत सदन ।

शुनि छौनों के लिए पाठन-पठन ,

जात मानवों की हो गयी बद-चलन ।

पोर-पोर विकसित होता जीवन ,

खोद-खोद कूप का हो जाता खनन ।

क्षीण कर जाता मन को मनुज दर्शन ,

त्याग राह दो-पाये से भयभीत है मिलन ।

भूकना छोड़ दो भोकने का है चलन,

चौपाये की कौन सुनता अब सरीसृप भी ओझिल नयन।

मांसातुर रुधिर पिपासु जिनके हो गये तन,

जंजीर -सीखचों से ही जो करते आकलन ।

रौदती सडकों पर चौपहियों से आवागमन ,

भाग्य में बदा सिर्फ मरण या पतन ।

चकाचौध की झलक कर गयी अन्धेरा गगन ,

श्वान अपने आप ठिठक एकाकी रह गया मगन ।

प्रवेश से पहले दबा दिया द्वार का बटन,

पहरेदार की पूछे कौन ? लगी पट्टिका का हो गया दर्शन,।

लिखा अन्दर कुत्ता रहता है दबी घंटी बोल पड़ी घन-घन ।।









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