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नये विहाग में होली

  नये विहाग में होली ------------------ जीवन ऋतु के नये विहाग ने  , ली अगड़ाई और हो गयी होली  | किलकारी चहुँ ओर निहारे ,  गाँव गिराव जनमन की बोली  | शीत बयार की खाट छोड़  , रंग रसिया  ले रंग की ढोली  , अर् …. र्..र्.. का स्वांग रचाती   मदमाती आ गयी होली  | प्रकृति पुजारी वृक्षों ने  , पीत पात छोड़ किसलय ओढ़ी  | सरसों की अज़ब कहानी  , खेत खलिहानों को पियराती , रंग सुहाने बंजर बीहड़ के दिन , बहुरा टेसू से कुसुमाती लाली  | काग नीड़ छोड़ कोकिल कर रही ठिठोली  , सब जग एक रंग रंगे हैं  , गुन में नेह गेह की टोली  | बूढ़ों को नौजवान कर देती  , फागुन में प्रेम प्रीत की बोली  | आई ऐसी अपनी रीत प्रीत भरी  , स्नेहिल होली  | दनुज देव भाव से मिलते , करते प्रेम ठिठोली  | अर् …. र्..र्.. का स्वांग रचाती  || मदमाती आ गयी होली   -----0------  

आचमन

आचमन ****** कल्पों से   , पुरोहित   , यज्ञ आहुति से   , ब्रह्माण्ड शोधित कराने   , प्रौक्षणि से यजमान को   , करा रहा आचमन   , प्रकृति पुरुष प्रणम्य   , आचमन आधृत , तप- आतप   , धन्य भुवन । विनायक साक्षी , विघ्न शमन    , धार कर मध्य   , अमृत आचमन   , भास्वर जीवन । जल्पों में तकता   , एकाकी मन । शुध्द हो गया   , गगन आँगन । शुध्दि    को तरसता   , चिरन्तन । मन्वन्तर में होता , आचमन   , तन लगता दूषित वसन । तृषित गल्प    जीवन-मरण   , नीर तज नहीं सकता नयन   , वेदिका पर हो रही   , प्रदक्षिणा जल सुमन   , अक्षर बन सत्पथ गमन । जाह्नवी    नीर सम    जीवन   , पुरोहित यजमान का मिलन   , प्रकृति-पुरुष का आचमन । अमृत -मंथन   , विकल्प छोड़ संकल्प को करते नमन   , शुध्दि बोध मंगल बूँद से सघन   , सरस जीवन तन औ मन । कर लो स्वच्छ निर्मल आचमन   , जीवन बगिया सुघर    बन जाय उपवन   , पुरोहित यज्ञ आहुति शुध्दि का   , आचमनी से करा रहा आचमन   , अमृत -मंथन   , विकल्प छोड़ संकल्प को करते नमन । याचना कर रहा जीव अल्प है जीवन , पुरोहित

अमरत्व

  अमरत्व प्राण भरे दो आस , थमते ही जीवन श्वास । टूटा धागा नेह विश्वास।। किसी के भाग पहुंचा , किसी को मिली हंसुली । लूट मची कुछ ऐसी , कविता के तार ताने-बाने   , पंक्ति -पंक्ति से बट गयी । पहली पंक्ति दूसरी से कट गयी ।। अर्थ अनर्थ में छट गयी । धरी रह गई धरा पर देह , पल भर पहले की छूट गई नेह । अर्थ पिशाचों की दुनियां , कभी न सोचती अपना चाल , कल अपना भी होगा यही हाल । टूट पडे़गी आने वाली पीढ़ी , निधन सुनते निर्धन कर देगी । देह छोड़ दनुज का खेल , खेल रहे जो हम । हमसे खेलेंगे भावी जन-मन। स्वार्थ परार्थ त्याग परमार्थ भाव धरो। आत्म परमात्म का ध्यान करो । आस पर विश्वास धरो । नश्वर को नया स्वर दो । जीवन में अमरत्व भर दो ।। ------0-----

भाषाई शुचिता

 भाषाई शुचिता  *********  रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गइ सरग पताल।  आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ।।  वर्तमान समय त्रासदी का है ,सम्पूर्ण शरीर व्याधि ग्रस्त है,मन छटपटाह से भरा हुआ है ,मस्तिष्क अशान्त है,चित्त पराधीन है, यूं तो स्वतन्त्रता देह की है , और बाहर से आ रहे शब्दों की है, आज शब्दों में शुचिता, पवित्रता के अभाव ने मानवता को खोखला कर दिया है, अतीत के शब्दों में समाज की सबसे बड़ी थाती उसको झकझोरती हुई शब्दावली थी, उसके नाम को न लेने वाले को उस समय का समाज सतकर्मी कहता था  ,आज यह शब्द न जाने किस स्थान पर पहुँच गयी है,लेकिन सतकर्मियों से हट कर आम मनुष्यों की भाषा में विकार अवश्य आ गया है | प्रदेश या दुनियां का कोई भी क्षेत्र हो भाषा में जो शब्द परोसे जा रहे है,मानवता उसका चित्र अपने ऊपर अवश्य उकेर लेती है,सड़क से लेकर संसद तक जब वही शब्द चलता है,तब दु :खद लगता है,उचित होगा कि हमें अपने जीवन की शब्दावली में उचित शब्दों का कोष बनाना पड़ेगा ,जिसे समाज में परिवार में पाठ्य पुस्तकों के योग्य ही रखा जा सके ,भला हो कि अभी  पाठ्य पुस्तकों में यह शब्द नहीं है,कविता ,कहानी ,नाटक और फिल्मों के

सूरज और चन्दा

  सूरज और चन्दा सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई । बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । सूरज ने रार कुछ यूँ समझाई । दिन भर उधम बहुत मचाई । चन्दा भी करती खेल खिलाई । माँ उसको देती मोती भरी मलाई । सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई। बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । माँ मैंने पीछे जब भी कदम बढ़ाई । मोती राख बन तेरे आँचल है समाई । अनुगामी रहा फिर भी इसकी ढिठाई । इसको दया कभी न मुझ पर आई । सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई । बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । माँ बोली शीतलता है इसकी कमाई । तुम करते अकुलित जीवन तरुणाई । चन्दा से सीखो शान्ति सजलता सुघराई । अहर्निश सेवा ही मेवा देती आई ।   सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई । बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । -------0-------  डाँ० करुणा शंकर  

तरई के गाँव में

  तरई के गाँव में *********** तरई के गाँव में   , चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   जिनगी के ककहरा में देस अऊ गांव समाय रहा ।   अइसन मोह अऊ बिछोह जियरा छटपटाय रहा ।   तरई के गाँव में   , चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   मनवा क गतिया दिनवा -रतिया   ,  अटपटाय रहा ।   किस्सा अऊ बतिया हियरा में लहराय रहा । तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   उतान सेवारे क मचान पनिया में बनाय रहा ।   पात बीच बेरा के फूल जइसन गमगमाय रहा ।   तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   मन मगन सेवा सहचरी में तन कुनमुनाय रहा ।     सुख शान्ति अशीष सब जन पे गुनगुनाय रहा । तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा । निर्मोही मनवा बैरी पपीहवा टेर में अटकाय रहा । संगी सब लुटाय खाली हाथ गेहिया को जाय रहा । तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।               ******  ******  

जीवन धारिणी माँ गंगे

  जीवन धारिणी माँ गंगे   जीवन धारिणी माँ गंगे अमर जल जीवन धारिणी माँ गंगे , सकल थल के बंट गए ओर छोर । स्मृतियों के जल प्लावन में  , हैं कैनवास पर टंगें लहर । धूल-धूसरित हो रहे तन के कोर-कोर । पसरता ताप बिखरता संताप रेत पर । रास्ते भटक गये जैसे टूट रहे घर-द्वार  , अब भटक गया नदियों का पारावार  , आँगन के आँगन में बनती जैसे दीवार  , अतीत अंतस्थल के मुहानों पर बसते नगर  , शिव ने कालकूट गरल लिया धर  , बनाया मनुजता का अमृत सरोवर , शहर पनारों से भरपूर बहा रहा , ज़हर का नहर । बोझिल नदी दम तोड़ती जो कभी थी जीवों का घर । सैकत शैय्या पसरी श्वास प्रश्वास निसि - बासर , सुनी है सरसराहट भरी घुटती श्वास अक्सर  , अल्प बसेरे खगकुल के ,  शान्त हो गया कल-कल  , माँ की भला कोई आह सुने क्योंकर  , गंगा सागर अपलक पाप गठरिया रही निहार  , पुकार जह्नुसुता का रुधित हृदय बार-बार  , सदियों से कर रही मानवता का संस्कार । कोई तो सुन ले माँ की प्रतीक्षित पुकार , मलिन घट-तट  , घाट का कर दे उध्दार  , सदियों से कर रही मानवता का संस्कार । सदियों से कर रही मानवता का संस्कार ।।   ----0----

चुड़ैल

चुड़ैल **** प्रकृति मौन। कौन , धरातल , चुड़ैल, बन आया । छाया के, पारावार मध्य, उलझा जीवन-आधार, आत्म परमात्म में न आया । प्रकृति मौन । पंचवटी की, अटवी में , सप्तर्षि, हो रहे बेहाल । झुरमुट- झंझावात, बसेरों में विप्लव, दु:स्वप्न सदृश, सहज मनुज , अचल अडिग सवाल । गण्डा -धागा टोना-टोटका, सुरक्षा कवच बनते जंजाल । तृषित मानवता बुन लेती , विराग जाल । प्रकृति अंश । घनेरे वट -वृक्षों से, पा रहे दंश । कर लेती स्वभाव क्रूर, बन जाती चुड़ैल । प्रकृति मौन , यायावरी , नाच नचाती , छप्पर -नदी और शैल । नियति संत्रास क्रीडा , मन का मिटा न हो मैल । असंतुष्ट -असंतृप्त मानवता , आकार ले होती चुड़ैल । घनियारे अन्हियारे , बबूल -बड़ नहीं ढूढ़ पाए हल । भटकती आत्मा की परिणति , समय का खेल । वीभत्स घिनौने रूप का मेल । बना देती चुड़ैल ।। प्रकृति मौन, चीत्कार फुत्कार, भाषा हो जाती सत्कार , जोग -विराग माया । जतन से, वशीभूत हो आया, आत्म-परमात्म में, नश्वरता विलीन हो रही काया। तपसी के वश में बस, हाहाकार सीत्कार स्वीकार, प्रकृति मौन । छोड़ क्रूर -कल्मष अभिशाप , अन्हियार परमात्म, प्रकाश बन आया, योगी ही विरही , क्षुधित को स

घुटना

  जीवन का पल - पल जब लगने लगे अपना । थाम लेता मोह से घट   ,  घुटन और घुटना । घुट - घुट जीवन चलता   , जैसे चलता सपना । भ्रमित मन कहता   , कपोल कल्पित कल्पना । घुटरन रेनु तन मण्डित   , वन्दित शोभित वदना । आधार बन आयाम दिखे है   , जीवन का घुटना । व्यायाम - प्राणायाम गुह्य तथ्य है मनना जपना । घट का संकट भवसागर के मझधार में पड़ना । केशों से होता परिवर्तन ,  सजना और संवरना । असमय घुटेकेश हो जाता कातर मनुज मना । अटल चक्र आकर्षक पद   , मोह और गहना । माया जगत सब झूठे   ,  जब रूठ गये घुटना । घुटता यौवन घटता जीवन क़ायम रहे टंखना। घट का क्षरण   , मरण ,  विन्यास केश करना । जय जन   , मन संग ,  सब मिल कर रहना । । -------0------- 42- घुटना