चुड़ैल


चुड़ैल

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प्रकृति मौन।

कौन ,

धरातल ,

चुड़ैल,

बन आया ।

छाया के,

पारावार मध्य,

उलझा जीवन-आधार,

आत्म परमात्म में न आया ।

प्रकृति मौन ।

पंचवटी की,

अटवी में ,

सप्तर्षि,

हो रहे बेहाल ।

झुरमुट- झंझावात,

बसेरों में विप्लव,

दु:स्वप्न सदृश,

सहज मनुज ,

अचल अडिग सवाल ।

गण्डा -धागा टोना-टोटका,

सुरक्षा कवच बनते जंजाल ।

तृषित मानवता बुन लेती ,

विराग जाल ।

प्रकृति अंश ।

घनेरे वट -वृक्षों से,

पा रहे दंश ।

कर लेती स्वभाव क्रूर,

बन जाती चुड़ैल ।

प्रकृति मौन ,

यायावरी ,

नाच नचाती ,

छप्पर -नदी और शैल ।

नियति संत्रास क्रीडा ,

मन का मिटा न हो मैल ।

असंतुष्ट -असंतृप्त मानवता ,

आकार ले होती चुड़ैल ।

घनियारे अन्हियारे ,

बबूल -बड़ नहीं ढूढ़ पाए हल ।

भटकती आत्मा की परिणति ,

समय का खेल ।

वीभत्स घिनौने रूप का मेल ।

बना देती चुड़ैल ।।

प्रकृति मौन,

चीत्कार फुत्कार,

भाषा हो जाती सत्कार ,

जोग -विराग माया ।

जतन से,

वशीभूत हो आया,

आत्म-परमात्म में,

नश्वरता विलीन हो रही काया।

तपसी के वश में बस,

हाहाकार सीत्कार स्वीकार,

प्रकृति मौन ।

छोड़ क्रूर -कल्मष अभिशाप ,

अन्हियार परमात्म,

प्रकाश बन आया,

योगी ही विरही ,

क्षुधित को संतृप्त कर पाया ।

जग भरमाया भटकी काया ,

परमात्म की माया,

कपोल कल्पित,

क्रूरता की असहज लकीर,

चुड़ैल नाम से जाया ,

कलि के युग में ,

परमात्म मिलन से स्वर्गिक सुख पाया ।।

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