संदेश

भाषाई शुचिता

 भाषाई शुचिता  *********  रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गइ सरग पताल।  आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ।।  वर्तमान समय त्रासदी का है ,सम्पूर्ण शरीर व्याधि ग्रस्त है,मन छटपटाह से भरा हुआ है ,मस्तिष्क अशान्त है,चित्त पराधीन है, यूं तो स्वतन्त्रता देह की है , और बाहर से आ रहे शब्दों की है, आज शब्दों में शुचिता, पवित्रता के अभाव ने मानवता को खोखला कर दिया है, अतीत के शब्दों में समाज की सबसे बड़ी थाती उसको झकझोरती हुई शब्दावली थी, उसके नाम को न लेने वाले को उस समय का समाज सतकर्मी कहता था  ,आज यह शब्द न जाने किस स्थान पर पहुँच गयी है,लेकिन सतकर्मियों से हट कर आम मनुष्यों की भाषा में विकार अवश्य आ गया है | प्रदेश या दुनियां का कोई भी क्षेत्र हो भाषा में जो शब्द परोसे जा रहे है,मानवता उसका चित्र अपने ऊपर अवश्य उकेर लेती है,सड़क से लेकर संसद तक जब वही शब्द चलता है,तब दु :खद लगता है,उचित होगा कि हमें अपने जीवन की शब्दावली में उचित शब्दों का कोष बनाना पड़ेगा ,जिसे समाज में परिवार में पाठ्य पुस्तकों के योग्य ही रखा जा सके ,भला हो कि अभी  पाठ्य पुस्तकों में यह शब्द नहीं है,कविता ,कहानी ,नाटक और फिल्मों के

सूरज और चन्दा

  सूरज और चन्दा सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई । बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । सूरज ने रार कुछ यूँ समझाई । दिन भर उधम बहुत मचाई । चन्दा भी करती खेल खिलाई । माँ उसको देती मोती भरी मलाई । सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई। बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । माँ मैंने पीछे जब भी कदम बढ़ाई । मोती राख बन तेरे आँचल है समाई । अनुगामी रहा फिर भी इसकी ढिठाई । इसको दया कभी न मुझ पर आई । सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई । बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । माँ बोली शीतलता है इसकी कमाई । तुम करते अकुलित जीवन तरुणाई । चन्दा से सीखो शान्ति सजलता सुघराई । अहर्निश सेवा ही मेवा देती आई ।   सूरज और चन्दा की हुई लड़ाई । बातें बढ़ती धरती माँ तक आई । -------0-------  डाँ० करुणा शंकर  

तरई के गाँव में

  तरई के गाँव में *********** तरई के गाँव में   , चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   जिनगी के ककहरा में देस अऊ गांव समाय रहा ।   अइसन मोह अऊ बिछोह जियरा छटपटाय रहा ।   तरई के गाँव में   , चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   मनवा क गतिया दिनवा -रतिया   ,  अटपटाय रहा ।   किस्सा अऊ बतिया हियरा में लहराय रहा । तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   उतान सेवारे क मचान पनिया में बनाय रहा ।   पात बीच बेरा के फूल जइसन गमगमाय रहा ।   तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।   मन मगन सेवा सहचरी में तन कुनमुनाय रहा ।     सुख शान्ति अशीष सब जन पे गुनगुनाय रहा । तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा । निर्मोही मनवा बैरी पपीहवा टेर में अटकाय रहा । संगी सब लुटाय खाली हाथ गेहिया को जाय रहा । तरई के गाँव में   ,  चन्दा नहाय रहा ।   मछरी के पोखर में   , दिनकर ठंडाय रहा ।               ******  ******  

जीवन धारिणी माँ गंगे

  जीवन धारिणी माँ गंगे   जीवन धारिणी माँ गंगे अमर जल जीवन धारिणी माँ गंगे , सकल थल के बंट गए ओर छोर । स्मृतियों के जल प्लावन में  , हैं कैनवास पर टंगें लहर । धूल-धूसरित हो रहे तन के कोर-कोर । पसरता ताप बिखरता संताप रेत पर । रास्ते भटक गये जैसे टूट रहे घर-द्वार  , अब भटक गया नदियों का पारावार  , आँगन के आँगन में बनती जैसे दीवार  , अतीत अंतस्थल के मुहानों पर बसते नगर  , शिव ने कालकूट गरल लिया धर  , बनाया मनुजता का अमृत सरोवर , शहर पनारों से भरपूर बहा रहा , ज़हर का नहर । बोझिल नदी दम तोड़ती जो कभी थी जीवों का घर । सैकत शैय्या पसरी श्वास प्रश्वास निसि - बासर , सुनी है सरसराहट भरी घुटती श्वास अक्सर  , अल्प बसेरे खगकुल के ,  शान्त हो गया कल-कल  , माँ की भला कोई आह सुने क्योंकर  , गंगा सागर अपलक पाप गठरिया रही निहार  , पुकार जह्नुसुता का रुधित हृदय बार-बार  , सदियों से कर रही मानवता का संस्कार । कोई तो सुन ले माँ की प्रतीक्षित पुकार , मलिन घट-तट  , घाट का कर दे उध्दार  , सदियों से कर रही मानवता का संस्कार । सदियों से कर रही मानवता का संस्कार ।।   ----0----

चुड़ैल

चुड़ैल **** प्रकृति मौन। कौन , धरातल , चुड़ैल, बन आया । छाया के, पारावार मध्य, उलझा जीवन-आधार, आत्म परमात्म में न आया । प्रकृति मौन । पंचवटी की, अटवी में , सप्तर्षि, हो रहे बेहाल । झुरमुट- झंझावात, बसेरों में विप्लव, दु:स्वप्न सदृश, सहज मनुज , अचल अडिग सवाल । गण्डा -धागा टोना-टोटका, सुरक्षा कवच बनते जंजाल । तृषित मानवता बुन लेती , विराग जाल । प्रकृति अंश । घनेरे वट -वृक्षों से, पा रहे दंश । कर लेती स्वभाव क्रूर, बन जाती चुड़ैल । प्रकृति मौन , यायावरी , नाच नचाती , छप्पर -नदी और शैल । नियति संत्रास क्रीडा , मन का मिटा न हो मैल । असंतुष्ट -असंतृप्त मानवता , आकार ले होती चुड़ैल । घनियारे अन्हियारे , बबूल -बड़ नहीं ढूढ़ पाए हल । भटकती आत्मा की परिणति , समय का खेल । वीभत्स घिनौने रूप का मेल । बना देती चुड़ैल ।। प्रकृति मौन, चीत्कार फुत्कार, भाषा हो जाती सत्कार , जोग -विराग माया । जतन से, वशीभूत हो आया, आत्म-परमात्म में, नश्वरता विलीन हो रही काया। तपसी के वश में बस, हाहाकार सीत्कार स्वीकार, प्रकृति मौन । छोड़ क्रूर -कल्मष अभिशाप , अन्हियार परमात्म, प्रकाश बन आया, योगी ही विरही , क्षुधित को स

घुटना

  जीवन का पल - पल जब लगने लगे अपना । थाम लेता मोह से घट   ,  घुटन और घुटना । घुट - घुट जीवन चलता   , जैसे चलता सपना । भ्रमित मन कहता   , कपोल कल्पित कल्पना । घुटरन रेनु तन मण्डित   , वन्दित शोभित वदना । आधार बन आयाम दिखे है   , जीवन का घुटना । व्यायाम - प्राणायाम गुह्य तथ्य है मनना जपना । घट का संकट भवसागर के मझधार में पड़ना । केशों से होता परिवर्तन ,  सजना और संवरना । असमय घुटेकेश हो जाता कातर मनुज मना । अटल चक्र आकर्षक पद   , मोह और गहना । माया जगत सब झूठे   ,  जब रूठ गये घुटना । घुटता यौवन घटता जीवन क़ायम रहे टंखना। घट का क्षरण   , मरण ,  विन्यास केश करना । जय जन   , मन संग ,  सब मिल कर रहना । । -------0------- 42- घुटना

तम

  तम तम जीवन और मरण , प्रस्फुटन लरजता आवर्तन , निहित तम में परिवर्तन , प्रकृति विकास अंतरतम । कलिमा-ललिमा नित-नूतन , प्रिय उल्लास प्रियतम , तम जीवन और मरण , निहित तम में परिवर्तन।। मुठ्ठी में ले तम उधार, उज्जर विस्मृत करता भ्रष्टाचार , मधुमय देश मधुरतम । प्रकारान्तर रश्मियाँ उकेरती , अन्तस्थल तोड़ नीरवता गहनतम , तम जीवन और मरण , निहित तम में परिवर्तन ।। तम विशेष अवशेष , आगत स्वागत का प्रवेश, अंध-कूप में उजास का वेश , खद्योत द्योतित तम अंतर्मन , उजले पर उजला प्रतिबिम्बन , तम आश्रित अवलम्बन । तम जीवन और मरण , निहित तम में परिवर्तन ।। वर्ण तमिस्र किशन यमुना जल से, राधा उजली न जली बन सुन्दरतम , प्रांगण प्रभु करिया काग -पिक टेर , रामायण और मधुर गान का फेर । नगर-डगर घर-घर तम सबका आधार , अन्धकार बिन उजले को धिक्कार । तम अन्दर लघुत्तम बाहर महत्तम , तम जीवन और मरण , निहित तम में परिवर्तन।। क्यों न करे तम का आराधन , जब तम की आड़ छिपा लेते धन। अपराध अंधेरी दुनियाँ का है मन । तम की कीमत तौल रहा शातिर मन । तमतमाते यौवन का करता आकर्षण , तम जीवन और मरण , निहित तम में परिवर्तन ।। तम की जय विजय सब कर ल

उड़गन की बात निराली

  उड़गन की बात निराली , ढूंढ रहे निशीथ में सारा संसार   ******************************************* उड़गन की बात निराली , ढूंढ रहे निशीथ में सारा संसार ।   जीव जगत और प्रकृति पुरुष की  ,  महिमा अपरम्पार ।। खनिज  ,  नदियाँ और पहाड़  , धरती का आगार । सूरज चन्दा अहर्निश निगरानी  ,  देते ऊर्जा बारम्बार । । उड़गन की बात निराली , ढूंढ रहे निशीथ में सारा संसार । कलियों में मदन क्यारी रसिकन को माली की लगे है मार । हरियाली वृक्षों का श्रृंगार  , सुमनों में भौंरो का गुंजार । । गगन में पक्षी कलरव करते  ,  मेघ धरा पर करत फुहार । जूही  - चम्पा क्यारी - क्यारी झूमें  ,  लहराये राजमार्ग कचनार । । उड़गन की बात निराली , ढूंढ रहे निशीथ में सारा संसार । ग्रीष्म ताप आतप धूसरित धूर  ,  नदियाँ भई कछार । पुरवाई की मस्तानी में , लबालब बहै शीतल मंद बयार ।। धान - किसान कहे गेंहू में हमहूँ  , अरहर जीवन करै संवार । शीत की भीत खानपान से जब्बर , जीव रखे साधु विचार । । उड़गन की बात निराली , ढूंढ रहे निशीथ में सारा संसार । सावन  - भादों जीवन यौवन संग साथ रहे सदा बहार । सौमनस्य व्रत ले मनुज , सीख दे मानवता का उध्दार । । सब

सड़क

सड़क सड़कें चौड़ी, ------------------------------ ----------------------------- कोलतार और रोड़ी हो गयी सड़कें चौड़ी, शहरों के हो गए छोटे -छोटे मकान | अट्टालिकाओं और कोटरों में गुम , वाशिंदों का मुस्कान भरा वितान || बढ़ रही सिर्फ सबकी भाषाई जुबान , शान्ति घट छोटी पडी अपनी जहान | आशायें खोजती हर पल निशां में , अपने -अपने सपनों के आसमान || भीड़ और यातायात की आपाधापी में , रौदें जाते निशिदिन सब अरमान | शोर तले बंट जाता निज का ध्यान , जेठ दुपहरी ढूंढ रहीं उपवन बचाने निज प्रान || बचाने को मर्यादा और क्षण भर की थकान , कालचक्र के अजब कड़ाहे का देखो ये पकवान | पकते नश्वरजीव जगत के नर-नारी और जवान , सिमटता चरित्र बल बढ़ती उम्मीदें सारी || साकार बन खड़ी विषय उधारी सामान , इबारती जीवन लेख विलास की मारी | दुःख खरोंचने को जीवन सारा लगता बलवान , सुख सहलाने को अपलक पल बिचारी ।  मृगमरीचिका देखना दिन में हो रहा आसान , रोड़ी की सड़कें चौड़ी शहरों के हो गये छोटे मकान || ---------0----------

कविता

  कविता **** व्याकृत नहीं  , वर्तमान कविता  , प्रगति प्रयोग  , बन परिणिता , उन्मुक्त मुक्तक  , नामकविता, कर्मेन्द्रियोंमेंसिमटा अलंकार  , ज्ञानेन्द्रियों को भा रहा श्रृंगार  , छल-छंद छानते रहे शब्द बौछार  , रस बरसा न सकी कविता , सुहाने रालों पर हो मन मीता  , झट-पट का ज़माना  , क्यों बांधें छंदों में , कविता के पंख लगे है , जैसे परिंदों में  , अब रचना रच ना  , पर भार हुई , कविता कविता  , दुधार हुई , जो भास् रही कविता  , कवि बखान रहे  , अब कर ताल रही ,  कर ताली रही , कविता कवि को , निहार रही , राह किनारों में  , कविता कराह रही ,     *** ****