भाषाई शुचिता
भाषाई शुचिता ********* रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गइ सरग पताल। आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ।। वर्तमान समय त्रासदी का है ,सम्पूर्ण शरीर व्याधि ग्रस्त है,मन छटपटाह से भरा हुआ है ,मस्तिष्क अशान्त है,चित्त पराधीन है, यूं तो स्वतन्त्रता देह की है , और बाहर से आ रहे शब्दों की है, आज शब्दों में शुचिता, पवित्रता के अभाव ने मानवता को खोखला कर दिया है, अतीत के शब्दों में समाज की सबसे बड़ी थाती उसको झकझोरती हुई शब्दावली थी, उसके नाम को न लेने वाले को उस समय का समाज सतकर्मी कहता था ,आज यह शब्द न जाने किस स्थान पर पहुँच गयी है,लेकिन सतकर्मियों से हट कर आम मनुष्यों की भाषा में विकार अवश्य आ गया है | प्रदेश या दुनियां का कोई भी क्षेत्र हो भाषा में जो शब्द परोसे जा रहे है,मानवता उसका चित्र अपने ऊपर अवश्य उकेर लेती है,सड़क से लेकर संसद तक जब वही शब्द चलता है,तब दु :खद लगता है,उचित होगा कि हमें अपने जीवन की शब्दावली में उचित शब्दों का कोष बनाना पड़ेगा ,जिसे समाज में परिवार में पाठ्य पुस्तकों के योग्य ही रखा जा सके ,भला हो कि अभी पाठ्य पुस्तकों में यह शब्द नहीं ह...