संदेश

हम अपनों को ही भूलेंं

  अनजाने में कितने मिलते ही गये , हम अपनों    को ही भूलेंं । रस्ते ही तो   हमने ही बदले,  सोचते हम भी है कितने पगले । भूलने की कोशिश में ना जाने   कितनी बार पथ अपने ही बदले । सोचते-सोचते गुमसुम हो रही,  रातों की जम्हाई भरी करवटें । क्या छुप-छुपकर क्या लिख दूं , सब कोर पड़ी दीखती सिलवटें। अब छूटते यौवन में अपने ,  जीवन की भूलें   सूझती लपटें। किससे कहें    कुछ जो लग जाय , जो तुनक से भी हो हटके । निराशा डराती इस पल उस पल,  उनींदी सी हो जैसे करवटें । जिन्दगी भूलें डगर पे डराती जैसे, जंगल से आती जैसे हवा की आहटें। तुम्हारी मौन हमें भयभीत कराती , जैसे बियाबान की सनसनाहटें। टिकी आस में नई सुबह  झुरमुट में,  जो अलकों से छिपीं हैं तेरी लटें । इक खोज का सिलसिला दिखा जाती हो,  नागफनी जैसे फूल हो खिले। तारें बहुत देखें  वक्त गुजरने के बाद,  तारिका से जैसे हम मिलें।। अनजाने में कितने मिलते ही गये , हम अपनों को ही भूलें। बागबां होने की चाहत , खेत के फूल भी दिखते अधखिले।   तराशी सी मूरत तिनके पलक  ...

उजाला

  जीवन    दरख्त मानिन्द  , अंधियारे से उजाले  ,   बीज से वृक्ष  ,   हरित से पीत भी है ,    सूखने पर भी काबिल है ,    बस वही खूबसूरत है ,    और हम अक्लियत के सहारे  , उसी बीज को अंधेरे से बोते , उजाले के होते है ,   ठूंठ तो    कीमती है , अक्लियत की भी मति है , यह भटकते का भूगोल है , अटकते की गणित है ।   हम वृक्ष मानिन्द ही बढ़े है । अंधियारे से उजाले की ओर चले है । अंधेरा जहां पलता है वहीं से चले है । सूरज को भी छुपना पड़ता है । ऐसे ही खुशहाली का पल मिलता है । जीवन दरख्त मानिन्द पलता है ।।       °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

आदमी को कैसा गिरगिट का रंग भा गया

  आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया । ना जाने कैसा वक्त आ गया । श्वान सम्बोधन से उकताया हुआ । माया , मद , मोह ,  लोभ , और प्रीति में छा गया । आदमी तन मन से गिरगिट में समा गया । आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया । सर्प ,  बिच्छू के दंश से उपचारित हो सके हैं । भय की बात कौन करता है यहाँ । उभय तो रोम -रोम समा गया । आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया । इस उभयवादी से सत्य भी छला गया । दलबदल की राजनीति कल की बात थी । तन्त्र अब दिल बदलने तक तो आ गया । आदमी को गिरगिट का रंग कैसा भा गया ।।            ****** ~~~~~~~~~     

काहें को रोना

  बाबा अब पूछते नहीं -   किससे मिलने गई थी , किससे बतिया रही थी  ?   अब बोलते भी नहीं  , शब्द अब गुम से हो गए हैं ।   ज़िन्दगी कैसी हो गई , उनकी उत्तेजना खो गई है।   झुंझलाते भी नहीं बस हमसे कुछ दूर से हो गए हैं।   बाबा अब पूछते नहीं -किससे मिलने गयी थी ।   बाबा बस हम दूर तुमसे हो गये है ...........   मोबाईल अंगुलियों सहारे    है बातें भी इसी इशारे है ।   कोई आवरण नहीं है , ज़िन्दगी    किताबी अक्षर हो गई है ।     बतियाती नहीं    मानों बातें गांव से शहर हो गयी है ।   सामने की छींक कहर हो गई , लरजती किलकारी कहां खो गयी है ।   तरसते अब अपनी खुशी को हैं , पुचकार ,  ठुमके    कहां गयी है ।   मुड़कर    भी    देखने की चाहत  , सब छूटी    अपनी पुरानी आदत ।   बाबा अब पूछते नहीं -किससे मिलने गयी थी  ?   कहां    किससे मिलने गयी थी  ,  कोई नहीं सब शून्य हो गया ।   आज फिर लग रहा    जैसे  ...

विश्व कविता दिवस

  21  मार्च विश्व कविता दिवस    गाँव का जीवन याद आ गया । एक मुक्तक -- ॰॰॰॰॰॰॰॰॰ घर है द्वार है , यही जीवन संसार है । इसमें तो भिनसार है , सझियार भी है। इन सबमें सबसे अच्छा ये ओसार है। माई कहती अच्छा बिटिया के बखार है। सुख सम्मान जुटाने दुआरे पर बुहार है। घर है द्वार है। पाहुन आयें इसी पैड़ै इसी का इन्तजार है । दुआरे आम ,  नीमऔर महुआ का सिंगार है । मह-मह महक रहा मोजर का ऑगन द्वार है । गौरैया गौरव और गैय्या शोभा से पुचकार है । पोखरी पंख फुहरावे बत्तख जिनगी बनावें सयार है । जीव जगत घंटी लोरी से पावेल    दुलार है । ऐसा भैय्या गांव का अपना    घर दुआर है । घर है द्वार है ।। *****

पी कहां पी कहां

  अभी होली की राख भी बुझी भी नहीं थी ,  कि हरे-भरे गूलर के घने वृक्ष की ओट से पपीहे की निरन्तर टेर सुनाई पड़ी  , एक बार पत्तों की खड़खड़ाहट जैसी आवाज फिर दूसरी बार पीकहां- पीकहां    सब कुछ निरन्तर ,  आखिर उसने ऐसी कौन सी व्यथा देखी है ,  जो वह सदैव इसी ऋतु में मानवीय समाज को प्राकृतिक रुप से प्रस्तुत करती है ,  मर्म इस प्रकार से पता चला कि एक बार पिता अपने बेटे को लेकर महुएं के पेड़ की लकड़ी काटने जंगल गया हुआ था साथ में उसका नवविवाहित बेटा भी था ,  पिता लकड़ी काट ही रहा था ,  उसी समय एक घटना ऐसी हुई कि पिता के हाथ से कुल्हाड़ी छूट कर बेटे के गर्दन पर आ पड़ी और बेटा ,  तत्काल चल बसा ।            पिता बहुत ही भयभीत होकर उसके शरीर पर सूखे पत्ते डालकर ढक    दिया और बुझे मन से घर लौट आया ।घर आने पर बेटे की बहू ने पूछा पी कहां   ? वह निरुत्तर रहा ।बोला थोड़ी देर में आ जायेगा । जब बेटा नहीं लौटा तो बहू घर से जंगल की ओर चली गई और उसी महुए के पेड़ के नीचे गयी. पत्ते हटा कर देखा तो बहुत दुःखी हुई औ...

यमुना छठ का महत्व

                         यमुना छठ का महत्व                     ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤                                                                                                                   -  डॉ०करुणा शंकर दुबे     नमामि यमुनाम् अहं सकल सिद्धि हेतु मुदा । मुरारि पद पंकज स्फुरद् मन्द रेणुत्कटाया।।   भारतीय संस्कृति आशावादी प्रकृति की रही है ,  इसी आशावाद ने आस्था को जन्म दिया है  ,  और आस्था की पुष्टता के लिए पर्व और त्यौहार होते है ,  पर्व सामूहिक रुप से मनाया जाने वाला कार्य है जिसके पोर-पोर में सामंजस्य  ,  समग्रता ,  भाईचारा ,  ...

गणगौर त्योहार का महत्व

गणगौर त्योहार का महत्व                                                                                                                                               - डॉ०करुणा शंकर दुबे    भारत आस्था  ,  विश्वास   और भक्ति   का देश    है   ।    समस्त त्योहारों   में आस्था रखना तथा उ स के     के   अनुसार आचरण करना  ,  सामाजिक शिष्टाचार तथा उ स के    दायित्व अनुपालन करना ही विश्वास    का विषय है । वर्षों ,  से कुछ परिवर्तनों के साथ    आचार और प्रथाएँ  ,  नदी की धारा के समान कुछ छोड़ती हुई ...