गणगौर त्योहार का महत्व
गणगौर त्योहार का महत्व
- डॉ०करुणा शंकर दुबे
भारत आस्था , विश्वास और भक्ति का देश है । समस्त त्योहारों में आस्था रखना तथा उसके के अनुसार आचरण करना , सामाजिक शिष्टाचार तथा उसके दायित्व अनुपालन करना ही विश्वास का विषय है । वर्षों, से कुछ परिवर्तनों के साथ आचार और प्रथाएँ , नदी की धारा के समान कुछ छोड़ती हुई , कुछ जोड़ती हुई चली आ रही हैं । भारतीय नारियां आस्था और विश्वास के सहारे ईश्वर से सदैव अपनी मनोकामना पूर्ण कराने में सफल रही हैं।
राजस्थान , हरियाणा , गुजरात , उत्तर प्रदेश , मध्यप्रदेश ही नहीं अब तो लगभग पूरे देश के लिए गणगौर त्योहार कोई नया नहीं रह गया है । इसे गणगौरी व्रत भी कहते हैं । यह भारतीय हिन्दू नारियों का विशेष त्योहार है । राजस्थान का यह राष्ट्रीय पर्व है , स्थान भेद से इसके पूजन विधि विधान में थोड़ा बहुत अन्तर जान पड़ता है , किन्तु मूल भावना सर्वत्र एक ही होती है।
भारतीय समाज एक खुशहाल परिवार की मान्यता का रहा है उसी कड़ी में प्रत्येक अविवाहित और विवाहित नारी समाज यही कामना करता हैं कि उसका जीवन सुखकर होवें । इसीलिए कुवांरी लड़की योग्य पति और विवाहिता सुयोग्य पति की कामना से गणगौर की आराधना करती है , उसके पीछे उसका एक आध्यात्मिक संकट है कि इस त्योहार के कुछ महीनों तक वह अपनी अरज किसके सामने रखेंगी , उसके जीवन की आस्था और विश्वास की डोर ईश्वर के पास है , क्योंकि गणगौर के बाद चार महीनें तक राजस्थान में कोई त्योहार नहीं आता है ।
कहावत है कि :- तीज लुहारा बावड़ी ,लै डूबी गणगौर ।
अर्थात् श्रावण तृतीया तीज त्योहारों की बावड़ी है और गणगौर उसी बावड़ी में त्योहार को ले डूबती है ।
और मन में जो भावी विचार आते है उसे एक बेटी , अपने गणगौर से कह सकती हैं । गणगौर , इसी का अवसर है , जब कन्या अपने मनोवांछित पति के लिए कामना करती है , और एक विवाहिता अपने सुहाग और परिवार के वैभव के लिए मनोकामना करती है । राजस्थान में यह व्रत कहीं तीन दिन तो कहीं सोलह दिन किया जाता है , कहीं चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को विधान और रीतियों से सम्पन्न होता है , वास्तव में वहाँ इस व्रत का आरम्भ होलिका जलने के बाद सुबह जाकर वहां की राख ,और कुम्हार के घर से मिट्टी लाकर उसी मिट्टी से शिव पार्वती की मूर्ति बनाकर पूजन किया जाता है । कहीं होली जलाने के दूसरे दिन से गौरी पूजन आरम्भ हो जाता है और शुक्ल चतुर्थी और कहीं -कहीं गौरी पूजन के लिए शीतलाष्टमी तक चलता है । इस तिथि को सौभाग्यवती नारियाँ मध्याह्न तक व्रत रखती हैं । कहीं बालू की प्रतिमा बनाकर उस पर कांच की चूड़ियाँ ,महावर, सिन्दूर और नवीन वस्त्र जैसी सौभाग्य सम्बन्धी सभी वस्तुएं चढ़ा कर चन्दन ,अक्षत, धूप-दीप एवं नैवेद्य आदि सुहाग सामग्री अर्पित की जाती है । शिव पार्वती की कथा कही -सुनीं जाती है,और बाद में पूजा वाला सिन्दूर सौभाग्यवती नारियाँ अपनी मांग में लगाती हैं । एक मिट्टी के बर्तन में गेंहू या जौ बो दिये जाते हैं , इन्हीं जवारों से गौरी की पूजा की जाती है । गौरी को कन्या जीवन का आदर्श माना जाता है ,क्योंकि गौरी ने पति के लिए कठोर तप किया था । जवारे के कलश को कन्या सिर पर रखकर तालाब, नदी, कूप पर जाकर पूजन करती है । लौटते समय दूब ,फूल, जल लेकर लौटती है , और घर पर जो गौरी की प्रतिमा होती है, उसकी पूजा करती है । इसे गणगौर की सवारी के नाम से जाना जाता है । इस तिथि को भगवान् शंकर ने अपनी प्रिया पार्वतीजी के बहाने सम्पूर्ण नारी समाज को सदा-सदा के लिए सौभाग्यवती रहने का वर दिया था । तब से लेकर आजतक यह व्रत ,यह पूजा, यह उत्सव एवं यह त्योहार बड़ी श्रद्धा-भक्ति ,महिमा, गरिमा तथा आस्था-विश्वास से सम्पन्न होता चला आ रहा है । पूजा में चढ़ा प्रसाद पुरुषों और बच्चों को नहीं दिया जाता है । तृतीया या चतुर्थी के दिन घर में ढोकले बनायें जाते हैं, पानी और जवारे से ढोकले के चूरमे का भोग गणगौर को लगाया जाता है । उस समय एक गीत महिलाएं गाती हैं-
म्हे तो सासू जसोदा एक किसन बर मांग रही।
थाने सासू जसोदा एक किसन बर देस्यां।।
(जसोदा जैसी सासू और कृष्ण जैसा वर की गौरी से स्वीकृति मांगती है। ) गणगौर यात्रा महोत्सव है, जिसमें मेले का आयोजन किया जाता है, इसमें
गौरी तथा ईश्वर(महादेव) की युगल मूर्ति धूमधाम के साथ निकाली जाती है।
कहीं-कहीं तो ऊटों और घोड़ों की दौड़ का आयोजन होता है।
कहावत है:-गणगौरियों ही घोड़ा न दौडे़ला तो दौडे़ला कद।
इस गणगौर यात्रा में कुमारी कन्या गीत गाती है-
कान्ह कंवर सी वीरो मांगा,राई सी भौजाई।
जतहर जामी वावल मांगा, राता देई मायड़।
बड़ो दुमालिक काको मांगा, चुड़ला वाली काकी।
हाड़ा धोवड़ फूफो मांगा, झाड़ू देवड़ भूवा ।
कजल्यो बहनोई मांगा, सदा सुहागण बहना।
अर्थात् कृष्ण के समान भाई मांगा,राधा जैसी भौजाई मांगा, योद्धा पिता मांगा ममतामयी माता, बड़ा वीर काका, चुड़ले वाली काकी, बर्तन साफ करने वाला फूफा, झाड़ू लगाने वाली भुआ, सुन्दर बहनोई सदा सुहागन बहन मांगा ।
विवाहित स्त्रियाँ गाती हैं-
खेलण द्यौ गणगौर भवर, म्हाने पूजण द्यौ गणगौर ।
ओ म्हारी नणद रा वीर, म्हाने रमणे द्यौ गणगौर।।
अर्थात् हे भंवर जी मुझे गणगौर खेलने दो ,पूजने दो, मेरी ननद के भैय्या खेलने दो ।
इसी क्रम में गरबा नृत्य भी करती हैं ।
गणगौर में आस्था का सम्बन्ध संवेदना से होता है, किन्तु वास्तव में आस्था व्यक्ति को अपने परिवेश से, अपने समाज से जोड़ती है ।
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