पी कहां पी कहां

 अभी होली की राख भी बुझी भी नहीं थीकि हरे-भरे गूलर के घने वृक्ष की ओट से पपीहे की निरन्तर टेर सुनाई पड़ी ,एक बार पत्तों की खड़खड़ाहट जैसी आवाज फिर दूसरी बार पीकहां- पीकहां  सब कुछ निरन्तरआखिर उसने ऐसी कौन सी व्यथा देखी हैजो वह सदैव इसी ऋतु में मानवीय समाज को प्राकृतिक रुप से प्रस्तुत करती हैमर्म इस प्रकार से पता चला कि एक बार पिता अपने बेटे को लेकर महुएं के पेड़ की लकड़ी काटने जंगल गया हुआ था साथ में उसका नवविवाहित बेटा भी थापिता लकड़ी काट ही रहा थाउसी समय एक घटना ऐसी हुई कि पिता के हाथ से कुल्हाड़ी छूट कर बेटे के गर्दन पर आ पड़ी और बेटातत्काल चल बसा ।

          पिता बहुत ही भयभीत होकर उसके शरीर पर सूखे पत्ते डालकर ढक  दिया और बुझे मन से घर लौट आया ।घर आने पर बेटे की बहू ने पूछा पी कहां  ?वह निरुत्तर रहा ।बोला थोड़ी देर में आ जायेगा ।

जब बेटा नहीं लौटा तो बहू घर से जंगल की ओर चली गई और उसी महुए के पेड़ के नीचे गयी. पत्ते हटा कर देखा तो बहुत दुःखी हुई और तुरन्त अपने प्राण त्याग दिए ।

उसी समय से उस लकड़हारे को याद दिलाने के लिए पपीहे का जन्म लेकर आजतक वह वृक्ष पर बैठ कर यही प्रश्न पूछा करती हैपहले पत्तों की खड़खड़ाहट और फिर पी कहां पी कहां .....


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