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जिनमें कोयल की कला है, पुरस्कृत हो रहें है

  जिनमें कोयल की कला है ,  पुरस्कृत हो रहें है    ----------------------------------------------------   सच जानिये , पितामह भीष्म   अभी भी जीवित हैं , कर्म क्षेत्र में   युध्द चल रहा है , योध्दा बदल रहा है , मैदान बदल गया है  , समर में न जाने कौन मर रहा है | आज किसकी बारी मंच कोई हो   , सब में   सब सवाली है , धुंधलका गहरा रहा है , जैसे सब कुछ खाली-खाली हैं  |  कौवे भी तिरस्कृत हो रहे  , जिनमें कोयल की कला है , वही पुरस्कृत हो रहें है , सज्जनता धूल धूसरित हो रही है   |  नीड़ में घुसा  अनभला   है   , मुक्त जो मंच पा गया   , आहत कर  , छन्दबध्द   पंक्तियों को खा गया   | बेसुरे मंच से   चटखारे पा   रहे , सस्वर किस्मत पर गा रहे हैं   | गीत क्यों लिखूं  , चुरभईये दम ख़म से जी रहे हैं   | छंद अज्ञातवास कर रही  , वाह की कराह श्रोता भर रहा हैं   , नहीं चेते   तो जानों  , कविता कराह भर रही हैं   | कौवे भी तिरस्कृत हो रहे   , जिनमें कोयल की कला है , वही पुरस्कृत हो रहें है  , सज्जनता धूल धूसरित हो रही है   |  कर्म क्षेत्र में   युध्द

लंका

लंका युद्ध, युग युगों से चल रहा है | काल में , सब कुछ ढल रहा है | देव के साथ , दनुज भी पल रहा है | सीता का बयान , चल रहा है | कृषक के पीछे , सब चल रहा है | किसान का गरीबी से , जनम - मरण का नाता है । सीता यक्ष प्रश्न है , लंका , सुरसा का मुंह ? पुरुषोत्तम की सीता, या लंकारि की लंका, ब्रह्मचारी दौड़े, धैर्यवान दौड़े , मर्यादा दौड़ी , रावण लगा रहा है । सीता के उपक्रम में , रात दिन थका हारा । रावण की लंका , घर- घर की लंका , सीता कृषिकर्म की रेखा , सस्य उपजते देखा । लोभ -प्रीती का , कार्य व्यापार , मन की नहीं उदर की । कल्पना लंका बन गयी , पूरी सीता हडपने की , योजना सभी बना रहे थे । सभी पेट का , कार्य व्यापार चला रहे थे । सीता जहां की थी । सीता वहां समा ही गयी । अयोध्या में भी, चरण पादुका की आड़ में, राज कर रहे जो , सो न जनता के, न हमारे , अपशब्दों में भी लंका एक शब्द । जिसका डंका इसी अब्द । कुपोषित - वीभत्स , नहीं सुशोभित , जब - जब, जर-जोरू-जमीन, जोड़ने की बात, सीता की याद , लंका के साथ, रावण का नात, नश्वर लोक, किसका शोक, लंका आज भी, सीता आज भी, मौलिकता खोज रही , आर्यावर्त, पूर्वी -बंगाल, क

तू शहर बनों बनारस की

बनारस *****   तू शहर बनो बनारस की   मैं सांझ - सबेंरे भटकूं तुझमें ,   तू गली बनो घाटों   की ,   मैं सांझ - सबेरे भटकूं तुझमें ।   तू शहर बनो बनारस की ।।   तू फूल बनो बगिया की ,   मैं भौंरा बन बस जाऊं तुझमें ,   तू शहर बनो बनारस की ,   तू मृगदांव बनो तथागत की ,   तू शहर बनो बनारस   की ।।   तू लहर बनो गंगा माँ की ,   मैं हर - हर बहता जनजीवन में ,   तू असी बनो बनारस की ,   तू शहर बनो बनारस की ।।   तू नन्दी बन जा भोले की ,   मैं बेल पत्र रखूं करतल में ,   तू शहर बनो बनारस की ,   तू घंटी बन जा मंदिर की ।   तू शहर बनो बनारस की ।   रमता - जपता फकीर बनो ,   कूंचे   गलियों से घाटों की ,   तू शहर बनो बनारस की ,   धमक धूप और मंजीर की ,   तू शहर बनो बनारस की ।   मैं सांझ - सबेरे भटकूं तुझमें   तू शहर बनो बनारस की ।।            ******

अपनों से ही देश में हिन्दी हुई बेगानी

भा षा  संस्कार देती है सभ्यता और संस्कृति का विकास करती है यहाँ जिस देश की बात की जा रही है उस देश में कितनी भाषाएँ और कितनी बोलियाँ हैं उस पर चर्चा करें तो शायद जो समय निर्धारित किया गया है वह आज के लिए कम होगा उन्नीसवीं सदीं में जब हिन्दी ने आँखे खोली तो फोर्ट विलियम कालेज   कलकत्ता में विवाद हो गया कि हिन्दी का कौन सा रूप रखा जाय वह समय अंग्रेजों के युग का था एक पक्ष संस्कृत मिश्रित हिन्दी का था तो दूसरा अरबी फारसी मिश्रित हिन्दी के पक्ष में था विषय तदभव पर आकर अटक गया , यह तदभव संस्कृत मूलक था इसी लड़ाई से दूसरी भाषाओं के लिए भी अवसर मिल गया और उसने भी हिन्दी में अपनी घुसपैठ का रास्ता खोज निकाला परिणाम यह हुआ कि समय आगे बढ़ता चला गया लोगों को पता ही नहीं चल पाया कि कितने प्रकार की भाषा हिन्दी से जुड़ गयी देश की आजादी आते - आते हिन्दवी की बातें भी चलने लगीं और हिन्दी को बचाने के लिए पुरस्कार और प्रलोभन की शुरुआत भी