सूर्य मन्दिर कटारमल SunTemple
मेहल का जंगल : कटारमल का सूर्य मन्दिर
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मेहल का जंगल : कटारमल का सूर्य मन्दिर
(Sun Temple Kosi KatarMal Near HawalBagAlmora Uttarakhand)
हिमालय की उपत्यका में बसे कुमाऊँ के मन्दिरों में उत्तराखण्ड राज्य के अल्मोड़ा जनपद से सत्रह किलोमीटर दूर एक हज़ार आठ सौ मीटर की उंचाई पर स्थित मन्दिर समूह का अपना अलग स्थान है , मेहल यानि जंगली सेब के घने फलदार वनों के मध्य यह मन्दिर कुमाऊँ क्षेत्र में अपनी नागर स्थापत्य कला के विकास की पूरी कहानी को चित्ताकर्षक चिरस्थायी बनाये हुये है । मंदिर कला नागर अर्थात् नगरीय शैली, द्रविड़ अर्थात् दक्षिण भारत की शैली और बेसर अर्थात् दोनों की मिलीजुली संस्कृति के मंदिर की कला होती है ।
हिमालय क्षेत्र में स्थित इस मन्दिर का कुछ भाग तो दर्शनीय है,और कुछ खण्डहर के रूप में अतीत की स्मृतियों को संजोये हुये इतिहास के मूक गवाह की साक्षी भी है ।
लगभग पचास से भी अधिक मन्दिर समूहों में भगवान लक्ष्मी नारायण से लेकर ,शिव ,कार्तिकेय ,गणेश आदि की मूर्तियों को भली प्रकार से यहाँ देखा जा सकता है । इन मन्दिरों में छोटे – बड़े अनेक देव स्थापित है ,किन्तु स्थानीयता के रूप में यह मन्दिर बड़ादित्य के नाम से भी जाना जाता है इसके पीछे जो रहस्य है उसकी कथा की तथ्यपरक जानकारी यह है कि यहाँ के आदित्य देव की मूर्ति बड़ वृक्ष की लकड़ी से बनी हुई है ,और यह मूर्ति ही सूर्य देव की मूर्ति है इस कारण स्थानीय तौर पर इसका नाम बड़ादित्य भी प्रचलन में है ।
कोसी – कटारमल में स्थित सूर्य मन्दिर कत्यूर राजवंश की गौरव गाथा और अस्मिता का प्रतीक भी है । यह मन्दिर अपनी रचनात्मकता ,कलात्मकता की की दृष्टि से उत्कृष्ट है ।
वस्तुत: इस युग में इसी क्षेत्र में बहुत से मन्दिर स्थापित हो चुके थे जिसके लिये इस युग के मन्दिर में लोग जहां उत्कृष्ट श्रेणी के पत्थर मिले वहां पर बड़ी-बड़ी शिलाओं को काटकर उसकी नक्काशी करते थे ,फिर मन्दिर निर्माण स्थल पर ले जाते थे उसके बाद उसे एक के ऊपर दूसरे पत्थर को रखकर जोड़ने का काम करते थे,अल्मोड़ा के ही जागेश्वर बैजनाथ आदि स्थानों में भी आप इसी शैली के मन्दिर को पायेंगे ।
सभी जानते हैं कि सृष्टि के समस्त क्रिया-कलापों का केन्द्र बिन्दु सूर्य ही है ,रात-दिन एवं ऋतु परिवर्तन में भगवान् भाष्कर की मुख्य भूमिका रहती है , सम्पूर्ण विश्व में सूर्य के बिना जीवन में गहन अन्धकार है,ऐसे सूर्य भगवान की मूर्ति – मन्दिर की संकल्पना विश्व के देशों के साथ भारत में काशी ,ओडिशा ही नहीं हिमालय की उपत्यका में बसे अल्मोड़ा जनपद में भी रही है,आदि गुरु शंकराचार्य जी ने जब “नागेशं दारुका वने” की अवधारणा की ,तब किसी ने नहीं सोचा था कि यह जनपद केवल जागेश्वर के लिए है अपितु यहाँ एक और तीर्थ है जो सम्भवत: विश्व में सबसे उंचाई पर स्थित सूर्य मन्दिर बन जायगा । यह पर्वत पर स्थित श्रेष्ठ उत्कृष्ट दर्शनीय है,इसके निर्माण की शिल्पकला भी भव्य और आकर्षक है ।
कोणार्क जैसा सूर्य मन्दिर आपने सुना होगा वर्तमान में कटारमल का सूर्य मन्दिर अल्मोड़ा शहर से कौसानी –अल्मोड़ा मार्ग पर 13 किलोमीटर जाने के बाद कोसी नामक स्थान से बायें ओर जी० बी० पन्त पर्यावरण संस्थान के मार्ग को तीन किलोमीटर पार करने के बाद यह देव स्थल आता है ,इसकी पहचान है कि यह पाइरस पेशिया यानि मेहल या मेलु या नेपाली मलय फल के जंगलों से घिरा हुआ है ,जिसे स्थानीय सेब भी माना जा सकता है , इन्हीं जंगलों में दूर से मन्दिर के दृश्य दिखलाई पड़ने लगते है , अब सरकार द्वारा इस मन्दिर को संरक्षण प्राप्त हो चुका है किन्तु मन्दिर की मान्यता प्रतिष्ठा पूर्ववत् स्थापित चली आ रही है । पुरातत्व विभाग के अधिकारी श्री चतुर सिंह नेगी जी बहुत ही बारीकी से मन्दिर की वास्तुकला की जानकारी के साथ ऐतिहासिकता की भी जानकारी देते हैं साथ ही अनुरोध करते है की कोई मन्दिर के अन्दर गर्भ गृह क्षेत्र का कोई चित्र नहीं खीच लें यानि फोटोग्राफी मना है ,क्योंकि पूर्व में कुछ मूर्तियाँ चोरी हो चुकी है ,सबसे अच्छी बात है कि मन्दिर के सुरक्षा कार्यों में पर्याप्त जनसहयोग स्थानीय जनता और समाज से मिल रहा है,जिसके कारण मन्दिर समूह आज सुरक्षित और संरक्षित भी है ।
जब आप मन्दिर परिसर में प्रवेश करते हैं तो अपने को अलग-अलग साइज़ के मन्दिर के बीच अपने को घिरा पायेंगे सभी लगभग 45मन्दिर तो अपने स्वरूप को बचाए रखने में सफल हैं ,सभी नागर शैली के हैं । कुछ महत्त्व की चीजें राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में सुरक्षित है ,जिसमें मुख्य दरवाजा प्रमुख है ,एवं पवनदेव की प्रतिमा जागेश्वर संग्रहालय में सुरक्षित है ।
नागर शैली के मन्दिरों में गर्भ गृह के बाद थोड़ा सा अंतराल करके मण्डप होता है उसके बाद अर्द्धमण्डप होता है । पहले इस प्रकार के मन्दिर नगर में ही बनते थे ,इसलिये नागर कहते थे और उनकी शैली को नागर शैली कहने लगे ।
भारत वर्ष में यह कला सातवीं सदीं के बाद से ही प्रचलित है ,पुरातत्व विभाग ने वास्तु लक्षणों के आधार इस मन्दिर को तेरहवीं सदीं का माना है ,मन्दिर के कुछ देवी-देवताओं का निर्माण अलग-अलग समय पर हुआ है इसके आधार स्थानीय मान्यता अधिक पुष्ट है, जिसके कारण मन्दिर को और अधिक प्राचीन माना गया है,और कहा जाता है-कि मन्दिर के देवी- देवता शिव ,पार्वती ,कार्तिकेय ,नृसिंह और गणेश आदि की मूर्ति की स्थापना का समय अलग-अलग हो सकता है किन्तु यह मन्दिर कत्यूर राजवंश के राजाओं ने बनवाया जो नौवीं सदीं से ग्यारहवीं सदीं के बीच का विषय है । महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने कत्यूर राजवंश का समय ई० 850 से 1060 ई० का माना है ,मुख्य मन्दिर का छत्र शिखर खण्डित है और कुछ भग्नावशेष यहाँ आज भी सुरक्षित हैं ।
इस मन्दिर की स्थापना पूर्वाभिमुख की गयी है,,जिसके कारण इस मन्दिर के अन्दर सूर्य की पहली किरण गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंग पर पड़ती है,यहाँ प्रस्तर खण्डों से बनी दीवारें और स्तम्भों की शोभा दर्शनीय है । इस स्थान पर पहुंचने के लिए भारतीय रेल सेवा दिल्ली और लखनऊ से काठगोदाम तक सीधे जुडी हुई है ,जहां से निजी टैक्सी या राजकीय बस कुमाऊ मण्डल की हमेशा उपलब्ध रहती है , जहां से सीधे अल्मोड़ा पहुंचा जा सकता है । इस स्थल के लिए मार्च से सितम्बर का महीना उपयुक्त होता है,वैसे हल्की ठंड सदैव रहती है ।
वस्तुत : पर्वतों के अंचल में प्रत्येक आगन्तुक दर्शनार्थी को कटारमल का सूर्य मन्दिर अपनी सांस्कृतिक सात्विकता से साक्षात्कार का एक पुनीत अवसर प्रदान कराता है ।
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