सच और झूठ की दूरी

 

वो देखो मुझसे रुठकर मेरी जान जा रही है ?

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पुत्री सौदामणि दूबे के पिता महेश दास जलालुद्दीन अकबर के मन्त्री के रुप में बीरबल नाम से मशहूर थे । एक बार जलालुद्दीन अकबर ने सवाल किया कि सच और झूठ में क्या अन्तर है , तो प्रत्युत्तर बीरबल ने कहा मेरे अनुसार चार अंगुल का अन्तर है । अचानक पूरी सभा में सन्नाटा छा गया । जलसाज हमेशा उन्हें दरबार से बाहर का रास्ता दिखाने या जान से मरवाने की कोशिश में उलझन भरा प्रश्न किया करते रहते थे ,जलालुद्दीन अकबर उसमें खुश भी रहते थे । आगे मुल्ला दो प्याजा ने कहा जवाब समझ में नहीं आया, तो बीरबल ने कहा समझना क्या है ? पूरी बात को देखकर समझ जायेंगे । काना-फूंसी करने वाले बेहतर जानते है । जलालुद्दीन अकबर ने कहा साफ - साफ कहो भाई ? बीरबल ने कहा - आँख और कान दोनों के बीच की दूरी चार अंगुलियों भर की ही तो है । कान झूठ सुन सकता है और आँख वही देखता है, जो उसके सामने हो रहा होता है । यही सच है । अब कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए कि सच और झूठ की दूरी कितनी होती है । आँख के मुहावरे पानी और खून से अलग-अलग भाव प्रकट करते है । पानी मर्यादा शोक, खुशी, को भी व्यक्त कर सकते है, लेकिन खून उतरना तो क्रोध, गुस्सा,रौद्र रुप की ओर इंगित करता है । कान से मुंह सटाकर बातचीत कपट, छल, छद्म नीति का प्रतीक या असत्य सूचनात्मक बात का होना प्रतीत कराता है या फिर गोपनीय होना होता है । यह नुकसान पहुंचा सकता है

आखिर जीवन के रथ को सभी अपने-अपने ढंग से समझते और आंकते है, क्योंकि शरीर के नौ दरवाजे दो कान, दो आँख,नाक के दो छिद्र, एक मुँह,दो गुप्त द्वार,(अपान और जननेंद्रिय) ही इसे चलाते है ।

नाक का अर्थ स्वर्ग से लिया जाता है और जब मानव शरीर के नाक के दोनों छिद्रों से श्वसन कार्य करता है तो उसे खुश्बू या बदबू की गंध महसूस होती है । वह सुगन्धि जिससे उसे सुखद अनुभूति होती है, मन खुश हो जाता है । खुश्बू है और उसके विपरीत बदबू है और मनुष्य नाक बंद कर जल्द-से-जल्द वहां से चला जाना पसन्द करता है । अच्छी गंध शरीर को ताजगी भी देती है । इसके बाद शरीर के द्वार में मुंह आता है जो रसना को और दांत को छिपाये रहता है, सीधे-साधे शब्द में कहें, दांतों की रक्षा रसना के द्वारा होती है । इसलिए वाद से स्वाद तक संभाल कर अपनायें । अन्यथा अपना ही नुकसान होता है । शरीर पूरी तरह से चौपाया रथ बनकर आया था । हमने बुद्धि कौशल से अपने को दोपाया बना लिया। उसी रथ पर नव दरवाजे के महल को सजाते रहने संवारते रहने का काम स्वयं करना है । इसके बाद दो द्वार और शेष रह जाते है जो विकारों की मुक्ति के लिए होते है,इन्हें गुप्त श्रेणी प्रदान की गई है, उपस्थ और जननेंद्रिय नाम भी दिया गया है किन्तु शरीर के द्रव्य का बाहर निकल जाने का द्वार यही है इसे सुरक्षित रखना पूरे शरीर की आवश्यक मजबूरी है। अपान वायु द्वार शौच निग्रह भी इसी क्रम की आवश्यकता है, तभी जीवेम् शरदः शतम् की संकल्पना संभव कर सकेंगे। उन लोगों की व्यथा पूछियें जिन्हें अपच, अजीर्ण की समस्या से सामना करना पड़ता है, छटपटाती रातें कैसे बीत जाती है, तब अपनी गुप्त श्रेणी के क्षेत्र का माहात्म्य समझ आने लगता है और सारे आयुर्वेदिक उपचार अपनाकर स्वास्थ्य लाभ कर पाते है, वे जानते है, कि शरीर अपने प्राकृतिक तत्व की खोज और उपचार से ठीक होगा।

यह सब द्वार आत्मा के चौकीदार है , सभी आत्मिक शुद्धिकरण के लिए तत्पर होकर सतत् प्रयत्नशील रहते है, ताकि आपके संकल्प पूरे हो सकें । हमारा धर्म है कि हम इन दरवाजों पर मन-मस्तिष्क का पहरा बैठाकर सदैव अपने को स्वस्थ और सानंद रखे । यही नियमित अभ्यास हमारी सफल जीवन की खुशहाली होगी । आखिर आत्मा के किराये पर यह नौ द्वार को संजोकर ले चलने वाला रथ कैवल्य की ओर सहज नहीं पहुंचाता है, उसे इन्द्रिय निग्रह आत्मानुशासन पर परखने के बाद मुमुक्षु भावनात्मक अनभिव्यक्ति को देखकर सहज जीवन मार्ग की ओर का सुखमय रास्ता बतलाता है, जो परमपद है, परमार्थ जीवन है ।

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