जसुली लला ,जसुली बुड़ी या जसुली शौक्याणी

                                                हम जी कर क्या करेंगे!

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                             जब दिल ही टूट गया ?

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# भले ही आपने यह गीत स्वर्गीय कुन्दन लाल सहगल साहब की आवाज में सुना हो। शौक्यानी दांतू गाँव के अन्तरात्मा में भी यह बोल उस समय नहीं आया था।

मैं अपनी यायावरी तो नहीं सेवानिवृत्ति के आखिर के दिनों में मुन्स्यारी की यात्रा पर अपने शुभचिंतक श्री जगदीश सिंह खाती और श्रीमती मधुसनवाल, पूरन सिंह मेहता,के साथ खलिया टाॅप होते हुए आगे बढ़कर निकला ही था कि दाहिनी ओर गायत्री मंदिर का नवनिर्मित भवन देखकर मन प्रसन्न हुआ। भयानक झरने,बुग्याल, शोर मचाती नदियां टूटे पहाड़ रोंगटे खड़े कर देते आगे दाहिनी ओर लो पावर टेलीविजन सेन्टर पता चला कभी(1962) यहाँ आकाशवाणी केन्द्र से अनुप्रसारण होता था । मेरा मन ठहर गया । उसी के समीप नीचे की ओर जाता हुआ रास्ता लगता था कि कोई बाजार क्षेत्र है, पता करने पर ज्ञात हुआ कि जोहार घाटी है, तिब्बती बाजार लगता है । आगे रालम, मिलम ग्लेशियर से पहले मुन्स्यारी चौक टैक्सी स्टैंड ऊपर की ओर बालिका स्कूल सब कुछ अच्छा लगा लौटते समय मन की प्राकृतिक सुषमा की लालसा अधूरी रह गई वापिस अल्मोड़ा लौट आये। आज अकस्मात् एक शुभचिंतक ने प्रश्न किया यह कौन सा अज्ञातवास है ? सहसा उत्तर की अपेक्षा विस्मण से स्मरण की ओर मन को लेकर आप तक विषय पर चर्चा कर सका हूं।

अपने आकाशवाणी अल्मोड़ा की सेवा के समय प्रायः कैचीधाम जाना आना होता,वही सुरक्षित मार्ग भी है, इसी के रास्ते का एक धर्मशाला आकर्षित भी करता रहता था । अपने शुभ चिंतक श्री जगदीश सिंह खाती जी से चर्चा करता , तो बतलाते ऐसे बहुतेरे आपको धर्मशाला अल्मोड़ा में मिलेंगे ,जिसने इसे बनाए, ये मैडम हमारे पिथौरागढ की थी । इसे दारमा घाटी की जसुली शौक्याणी ने बनवाईं । बात आई और गम्भीर रुप में नहीं सोचा।

मैंने जो देखा था वह कैंचीधाम से आगे अल्मोड़ा पर नीचे साइड़ पहाड़ पर देखा, पर गरमपानी के पास खीनापानी के निकट लावारिस हो रही, एक इमारत जो तकरीबन डेढ़ सौ वर्ष पुरानी धरोहर है । इस पर हमने एक बार श्री ललित मोहन जोशी जी से थोड़ा-बहुत जानकारी ली थी,हमारे भारतवर्ष की यह इमारत मजबूत पत्थर और पटाल के छत से ढकी हुई की बेहतरीन कारीगरी का नमूना है । किसी समय, आंधी बारिश बर्फबारी, तूफान जैसी प्राकृतिक विपदा में राहगीर यहां आश्रय लेते थे, उस समय पहाड़ , जंगल व जंगली जानवरों से भरपूर रहे होंगे, हिमालय की इन सुंदर वादियों में, जिन्हें अब हम प्राकृतिक आपदा कहते है और आजकल तो इसमें गुलदार, तेंदुए, जंगली बिल्ली या फिर जंगली सूअरों का कब्जा है जो रात भर बाद दिन को गायब हो जाते है। घात लगाकर टैक्सी ड्राइवर पर आक्रमण भी कर देते है

ऐसे हालातों में इन निर्जन व पहाड़ी रास्तों पर इन कारवाँ का ठहराव स्थान होना अद्भुत और जिज्ञासा पैदा करता है कि कौन होगा वह जिसने इन रास्तों पर सुरक्षा देने वाले ये धर्मशाला बनवाएं होंगे. कुमाऊं में यह वही दौर की बात भी है जब कुमायूं नरभक्षी बाघों और तेंदुओं के लिए विश्वप्रसिद्ध हुआ, ऐसे में जसुली के बनवाए ये सराय राहगीरों की जिन्दगियों को पनाह देते आए. सोचिए महीनों की पैदल घोड़ों आदि से यात्राएं करते तीर्थ यात्री रात गहराते ही पहाड़ी जंगलों में एक कदम न चल पाने की स्थित में होते रहे होंगे, तो यही शौक्याणी की ठहराव स्थली उन्हें पनाह देती होगी । दांतू गाँव में जसुली शौका की भव्य मूर्ति है। यह मूर्ति अब टूट फट की स्थिति में आ गई है।

दरअसल जसुली शौक्याणी द्वारा बनवाई स्मृतियां, सुनसान कुमांऊनी इलाकों में ठीक राजमार्गों के किनारे हैं, वह धर्मशालाएं न होकर आश्रयस्थल ही प्रतीत होती हैं. जिनमें देश-विदेश का कोई भी यात्री बिना किसी देश जाति और धर्म के भावों से ठहर सकता था। कुमायूं की भौगोलिक स्थित इन इमारतों की स्थिति यही बतला रही है, पहाड़ की इस अतीत की कहानी यहीं नहीं खत्म होती।

अभी कुछ ही किलोमीटर चले होंगे कि आसपास फिर वही आकृति दिखाई दी, कहते है ऐसी सैकड़ों धर्मशाला कुमायूं से नेपाल तक बनी ।

पिथौरागढ़ जनपद उत्तराखण्ड के दांतू,बूड़ारथ,गाँव ,जोहार घाटी क्षेत्र में है, जसुली विवाह के बाद दारमा के लासुली दताल गाँव आयी थी, विवाह से पहले ही वह बहुत बड़ी सेठानी थी और विवाह भी उसी दताल परिवार के बड़े सेठ परिवार में हुआ था । सामाजिक जीवन में उसे जसुली लला ,जसुली बुड़ी या जसुली शौक्याणी नाम से प्रसिद्धि प्राप्त महिला का सम्मान मिला हुआ था । दारमा और निकटवर्ती घाटियों में रहने वाले शौका समुदाय के लोग शताब्दियों से तिब्बत के साथ व्यापार करते रहे थे जिसके चलते वे पूरे कुमाऊं-गढ़वाल इलाके के सबसे संपन्न लोगों में गिने जाते थे । धनसम्पदा की इकलौती मालकिन जसुली माँ बनी थी, किन्तु वह अल्पायु में विधवा हो गयी, और उसके इकलौते पुत्र की भी असमय मृत्यु हो जाने के कारण निःसन्तान रह गयी थीं। इस कारण अकेलापन और हताशा उनकी वृद्धावस्था के दिनों के दुःख के सहभागी बन गए । एक दिन हताशा की मनःस्थिति में उसने अपना सारा धन धौलीगंगा नदी में बहा देना तय किया ।

सौभाग्यवश उसी दौरान उस दुर्गम इलाके से लम्बे समय तक कुमाऊँ अल्मोड़ा के कमिश्नर रहे अँगरेज़ अफसर हैनरी रैमजे (कमिश्नर अल्मोड़ा 1856-1887)का काफिला का गुज़र रहा था । हैनरी रैमजे को जसुली दताल के मंसूबों का पता चला तो वह दौड़कर उन तक पहुंचा । यह जानकर रैमजे ने जसुली से कहा कि पैसे को नदी में बहा देने के बजाय किसी जन कल्याण के काम में लगाना बेहतर होगा, अफसर का विचार जसुली को अच्छा लगा । दारमा घाटी से वापस लौट रहे अँगरेज़ अफसर के पीछे जसुली का धन लादे खच्चरों का काफिला चल पड़ा, इस पैसे से कुमाऊँ, गढ़वाल और नेपाल-तिब्बत तक में व्यापारियों और तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अनेक धर्मशालाओं का निर्माण करवाया गया, जो आज धरोहर रुप में है । बहुत कुछ जानकारी हमें सहयोगी श्री नीरज भट्ट जी से मिली जिसे संजोकर रखा था उनका आभारी हूँ ।

उत्तराखण्ड देवभूमि है ,नमन है।

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