वामन जयन्ती

 वामन जयन्ती 

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भारतीय संस्कृति में  देव राज इन्द्र सदैव अपने पद के प्रति शंकालु रहा है। समुद्र मंथन में देव और असुर के मध्य अमृत को लेकर उपजे विवाद का प्रसंग ही दो धाराओं में बांटने का काम करता है,

उसके बाद आधिपत्य और अधिकार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। देवों ने असुरों को बुरी तरह से नष्ट कर दिया था। शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या से बलि के साथ अन्य असुरों को जीवनदान दिया फ़िर क्या आसुरी सेना ने अमरावती पर चढ़ाई कर दी देवराज इन्द्र समझ गये कि राजा बलि ब्रह्मतेज़ से पोषित हो चुका है। 

देवगुरु के आदेश से देवता स्वर्ग छोड़कर भाग गए । अमर धाम अब असुर राजधानी बन गया । शुक्राचार्य ने राजा बलि का इन्द्रत्व स्थिर करने के लिए अश्वमेध यज्ञ कराना आरम्भ किया । सौ अश्वमेध करके राजा बलि नियम सम्मत इन्द्र बन जायेंगे फ़िर उन्हें कौन हटा सकता है। 

      विष्णु भक्त प्रहलाद के पौत्र ने जब अश्वमेध यज्ञ करना आरम्भ किया । उसी समय इन्द्र देव की मां अदिति घबरा चुकी थी । उन्हें विश्वास हो गया था कि असुर  राजा बलि अपना सौ यज्ञ पूरा करके इन्द्र की पदवीं प्राप्त कर लेगा। राजा बलि विष्णु भक्त विरोचन का पुत्र भी था। उसे सहज मारना दुष्कर कार्य था।  वस्तुतः भगवान विष्णु नियमबद्ध कराने वाले देव रहे है। पौराणिक कथा के अनुसार देव माता अदिति ने विष्णु की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर विष्णु जी ने उन्हें वरदान दिया। वे अदिति के पुत्र रुप में जन्म लेकर देवताओं को असुरों के राजा बलि  से मुक्त करेंगे।

देवराज इन्द्र की  माता अदिति ने समय रहते अपने गर्भ में विष्णु के पांचवें अवतार त्रेतायुग के पहले मानवावतार वामन पुत्र को जन्म दिया। दक्षिण भारत में इन्हें उपेन्द्र नाम से  ख्याति प्राप्त हुई ।

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को वामन द्वादशी या वामन जयंती के रूप में मनाया जाता है। खजुराहो में वामन देव की मूर्ति दर्शनीय है। प्राचीन धर्मग्रंथों के अनुसार भादों द्वादशी की शुभ तिथि को श्री विष्णु के अन्य रुप भगवान वामन का अवतार हुआ था । यह उनका पहला मानव अवतार था । 

धार्मिक पुराणों  में  इस दिन व्रत-उपवास करके भगवान वामन की  प्रतिमा पर पंचोपचार गंध ,पत्रपुष्प , नैवेद्य, दीप, धूप से पूजा करने का विधान है  । ऐसी मान्यता है कि जो भक्ति पूर्वक इस दिन भगवान वामन की पूजा करते हैं, उनके सभी कष्ट दूर होते हैं ।

उनके ब्रह्मचारी रूप को देखकर सभी देवता और ऋषि-मुनि आनंदित हो उठे।

एक दिन उन्हें पता चला कि राजा बलि स्वर्ग पर स्थायी अधिकार जमाने के लिए अश्वमेध यज्ञ कर रहा है।

नर्मदा के उत्तर तट पर असुरेन्द्र बलि का यह अन्तिम अश्वमेघ था । छत्र, पलाश, दण्ड तथा कमण्डलु लिये, जटाधारी, अग्नि के समान तेजस्वी वामन ब्रह्मचारी वहाँ पहुँचे । बलि शुक्राचार्य, ऋषिगण सभी उस तेज से अभिभूत अपनी अग्नियों के साथ उठ खड़े हुए । राजा बलि ने उनके चरण धोयें, पूजन किया और प्रार्थना की कि जो भी इच्छा हो वे माँग लें ।

बलि के कुल की शूरता, उदारता आदि की प्रशंसा करके वामन ने माँगा-'मुझे अपने पैरों से तीन पद भूमि चाहिए !'

बलि ने बहुत आग्रह किया कि और कुछ माँगा जाय ; पर वामन ने जो माँगना था, वही माँगा था।

आचार्य शुक्र ने सावधान किया-'ये साक्षात विष्णु हैं !'इनके छल में आने से सर्वस्व चला जायगा।

बलि स्थिर रहे 'ये कोई हों ' प्रह्लाद का पौत्र देने को कहकर अस्वीकार नहीं करेगा !  

शुक्राचार्य ने असुर अधिपति बलि को ऐश्वर्य नाश का शाप दे दिया ।

बलि ने भूमि दान का संकल्प किया और वामन अवामन हो गये । विराट हो गये। एक पद में पृथ्वी, एक में स्वर्ग आदि लोक तथा शरीर से समस्त नभ व्याप्त कर लिया। उनका वाम पद ब्रह्म लोक से ऊपर तक गया। उसके पैर के अंगूठे के नाखून से ब्रह्माण्ड का आवरण तनिक टूट गया। ब्रह्मद्रव वहाँ से ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान का चरण धोया। और चरणोदक के साथ उस ब्रह्म द्रव को अपने कमण्डलु में ले लिया। वही ब्रह्मद्रव गंगा जी बना।

भगवान ने बलि से पूछा -तीसरा पद रखने का स्थान कहाँ हैं?

बलि ने मस्तक झुकाते हुए  कहा-' इसे मेरे मस्तक पर रख लें  !'

बलि गरुड़ द्वारा बाँध लिये गये ।

दयामय भगवान विष्णु द्रवित हुए -बोले 'तुम अगले मन्वन्तर में इन्द्र बनोगे। तबतक सुतल में निवास करो। मैं नित्य तुम्हारे द्वार पर गदापाणि उपस्थित रहूँगा। शुक्राचार्य के द्वारा 

बलि का यज्ञ पूरा हुआ। सब कुछ गवां चुके बलि को अपने वचन से न फिरते हुए देख वामन देव विष्णु भगवान् प्रसन्न हो गये उन्होंने असुर बलि को पाताल लोक का अधिपति बना दिया और देवताओं को असुरों के भय से मुक्ति दिलाई। 


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