राधाष्टमी RADHASHTMI
राधाष्टमी
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भारतीय संस्कृति सदनीरा है । पुण्य दायिका है । मानवीय सरोकारों को सहेजने का आधार रही है । मानवीय जीवन के वैराग्य भाव से अनुराग भाव की ओर ले चलने की संस्कृति ही भारतीय है। मनुष्य जीवन ही संसार में कर्म आधारित है , अपने कर्म के अनुसार ही इच्छित प्राप्ति संभव है। इसी क्रम में मनुष्य को आस्था के स्वरुप देव- देवी सुदृढ़ता प्रदान करते हैं । भारतवर्ष प्रति-दिन पर्व के रुप में जीवनचर्या को चलायमान रखता है। आने वाला दिन, समय, नये और पुराने को आधार बनाकर संबल का कार्य कराते हैं।
परम्परागत मान्य रुप से राधा जी का जन्म भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को प्राकट्य दिवस के रुप में मनाया जाता है । राधा कृष्णप्रिया के रुप में जयदेव के गीतगोविन्द में दिखाई पड़ती हैं। एक जनश्रुति के अनुसार राधा वृषभानु की पुत्री और कीर्ति की बेटी वृन्दावन वासिनी है। कहा जाता है कि श्री कृष्ण की पूर्व जन्म की गोपी की आराधना में रत रहने के कारण ही राधा का प्राकट्य सम्भव हुआ। यह उनके जन्म के पन्द्रह दिन के बाद की तिथि रही है। एक अन्य कथा के अनुसार ब्रह्मा जी के द्वारा वरदान प्राप्त कर राजा सुचन्द्र एवं उनकी पत्नी कलावती ही कालान्तर में वृषभानु एवं कीर्ति हुए । जब ये भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को एक सरोवर के पास से जा रहे थे तो उन्हें एक कुंज की झुकी वृक्षावली के पास एक बालिका कमल के फूल पर तैरती हुई मिली जिसे उन्होंने अपनी पुत्री के रुप में अपना लिया। यही पुत्री राधारानी मथुरा के गोकुल महावन कस्बे के निकट रावल ग्राम की जन्मी कही गई।
भगवान श्री कृष्ण अंधेरा पक्ष की अष्टमी और राधा शुक्ल पक्ष की अष्टमी से संबंधित हैं ,आखिर अष्टमी में खास क्या है ?
भारतीय चिंतन परम्परा एक माह को दो पक्ष और उन्हें भी शुक्ल तथा कृष्ण रुप अमावस्या और पूर्णिमा से आधार प्रदान करती है। प्रतिपदा से लेकर पखवाड़े की समाप्ति तक का महत्व है। अष्टमी तिथि का पारम्परिक नाम कलावती है । इसमें नयी कलाएं और विद्याएं सीखना लाभकारी होता है।
इस तिथि को अठमी या आठों भी कहते है । यह तिथि चन्द्रमा की आठवीं कला है । देवता इस कला में अमृत का पान करते हैं इस तिथि के स्वामी शिव माने गये है , देवी दुर्गा के लिये यह तिथि महत्वपूर्ण है इस तिथि के जातक की पूजा करनी चाहिए। ज्योतिष के अनुसार इस तिथि के दयावान, सत्यप्रिय, और विद्वान होते है इस तिथि पर राधा की पूजा करने वाले को श्रीकृष्ण का भी पुण्य मिल जाता है।
नन्द बाबा और वृषभानु में घनिष्ठ मित्रता थी । कंस के आतंक से नंदबाबा महावन और वृषभानु रावलगाँव छोड़कर नन्दगाँव रहने लगे ।
एक बार जब कंस, वृषभानु जी को मारने के लिए अपनी सेना सहित बरसाना की ओर चला तो वह बरसाना की सीमा में घुसते ही स्त्री बन गया और उसकी सारी सेना पत्थर की बन गई।
जब देवर्षि नारद बरसाना आए तो कंस ने उनके पैरों पर पड़कर सारी घटना सुनाई। नारद जी ने इसे राधा जी की महिमा बताई। वे उसे वृषभानु जी के महल में ले गए।
कंस के क्षमा मांगने पर राधा ने उससे कहा कि अब तुम यहां छह महीने गोपियों के घरेलू कामों में मदद करो । कंस ने ऐसा ही किया ।
छह माह बाद उसने जैसे ही वृषभानु कुंड में स्नान किया, वह अपने पुरुष वेश में आ गया, फिर कभी उसने बरसाना की ओर मुड़कर नहीं देखा।
रास रानी राधा ने नंदगांव में नंद बाबा के पुत्र के रूप में रह रहे भगवान श्रीकृष्ण के साथ समूचे ब्रज में आलौकिक लीलाएं कीं, जिन्हें पुराणों में माया के आवरण से रहित जीव का ब्रह्म के साथ विलास बताया गया है।
एक किंवदंती के अनुसार, एक बार जब ब्रह्मा जी बरसाना स्थित ब्रह्मा गिरि पर गोपी भाव से विचरण कर रहे थे, उन्होंने देखा कि राधा रानी श्रीकृष्ण के साथ विचरण कर रही हैं।
उसी पर्वत पर राधा जी की एक प्रतिमा विराजित देख , लोग अभिषेकादि कर पूजन करने लगे। इसके बाद ब्रह्मा गिरि पर राधा रानी का भव्य मंदिर बनवाया गया, जिसे श्रीजी का मंदिर या लाडिली महल भी कहते हैं।
राधा रानी की श्रीकृष्ण में अनन्य आस्था थी। सम्भवत: साथ का स्नेह ही कृष्ण राधा की धारा बनीं। राधा सम्पूर्ण कामनाओं का राधन करने वाली हैं। इसलिए उन्हें राधा कहते है। पद्मपुराण ब्रह्म वैवर्त पुराण विस्तार से राधा और श्रीकृष्ण के प्रसंगों का बखान करते है।
भाद्रपद हमें प्रेरणा देता है कि हमें अपने कर्तव्यों और बुद्धि का सामन्जस्य कैसे रखना है, इसी कारण दो दिव्य अष्टमी भादों महीने में आती है, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कर्म सन्देश का तो राधाष्टमी मनोभावों को धैर्य दीक्षा की सीख देने के लिए आते हैं। यह मानवीय जीवन शैली में संयम और अनुशासन को अपनाने का मार्ग प्रशस्त कराते हैं।
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