यक्ष युधिष्ठिर संवाद

 यक्ष युधिष्ठिर संवाद

-ड़ा करुणा शंकर दुबे 

 

महाभारत , भारतीय संस्कृति का एक मुख्य स्रोत हैं , इसके विषय में कहा जाता है जो कुछ पूरे विश्व में है , वह महाभारत में है , और कदाचित् जो महाभारत में नहीं हैं , वह विश्व में कहीं भी नहीं है | रामायण और महाभारत को भारत के लोक मानस की सांस्कृतिक समृद्धि का कारण समझा जाता है , यह जन-जीवन की स्मृति झाँकी है |

     महाभारत महर्षि वेदव्यास की रचना है , महर्षि व्यास का जन्म नाम कृष्ण था क्योंकि उनका रंग सांवला था , उनका जन्म  यमुना नदी की धारा के बीच एक द्वीप में हुआ था ,इस कारण उन्हें द्वैपायन भी कहा जाता है , उनकी माता का नाम सत्यवती और पिता का नाम पराशर था | व्यास का एक आश्रम हिमालय के पास अलकनंदा नदी के समीप बद्रीनाथ के तट पर भी था , जहाँ महाभारत की रचना की गयी |                                           कहा जाता है कि महाभारत का  मूल ग्रन्थ नाम जय था , बाद में भारत फिर महाभारत प्रसिध्द हुआ |

       महाभारत कौरव और पांडवों के चरित्र का विशद वर्णन है , कौरव और पाण्डव दोनों भरतवंशी थे , इसलिये भरतवंशियों के युध्द को भारत कहा गया है | महाभारत के आदि पर्व में आख्यान शब्द का प्रयोग हुआ है , जिसका अर्थ – महान संग्राम की कहानी है |

    महाभारत एक महाकाव्य है , इसमें अठारह पर्व हैं और सब पर्वों को मिलाकर उन्नीस  सौ  अड़तालीस अध्याय हैं , एक समय महाभारत में एक लाख श्लोक थे , इसमें कथा - कहानियों के रूप में धर्म,नीति,सदाचार,और लोकव्यवहार की बातें भरी पड़ीं हैं |

                      एक ओर इसमें मानव चरित्र की उदारता , त्याग , दान , उपकार , न्याय , सत्य , प्रेम ,वीरता , धैर्य का वर्णन है तो दूसरी ओर मोह , लोभ ,स्वार्थ, इर्ष्या ,निर्दयता , कुटिलता , चतुराई , घृणा ,षड्यंत्र , का भी वर्णन है |

           नि:संदेह महाभारत भारतीय चिन्तन और संस्कृति का अक्षय भण्डार है,एवं लोक मानस का समृध्द आधार है , यह वीरों की यशोगाथा का आगार है , इसमें चारों पुरुषार्थों-धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष का सार तत्व पाया जाता है , यह महाकाव्य धर्म,दर्शन,नीति,समाजविज्ञान,मानव विज्ञान और युध्द्विज्ञान का  संगम है |

     महाभारत के वनपर्व में एक कथा आती है कि युधिष्ठिर द्यूत क्रीडा में  सब कुछ हार चुके थे ,जुए की शर्त  के अनुसार उन्हें बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञात वास बिताना था | माता कुन्ती वृध्द हो चली  थी ,इस कारण युधिष्ठिर ने उन्हें समझाकर महात्मा विदुर के घर पहुँचा दिया था और द्रौपदी सहित पाँचों पाण्डव अपने पुरोहित धौम्य के साथ वन के लिये चल दिए,सुभद्रा अपने पुत्र अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पाँचों पुत्रों के साथ अपने मायके द्वारिका चली गयी | पांडवों के वन जाने का समाचार सुनते ही हस्तिनापुर के निवासी दुर्योधन और धृतराष्ट्र की कटु आलोचना करने लगे , अनेक ब्राह्मण तथा नगरवासी युधिष्ठिर के पास पहुँचे और प्रार्थना करने लगे कि वे भी पाण्डवों के साथ वन को चलेंगे |  

           युधिष्ठिर ने उन्हें समझाकर लौट जाने के लिए कहा | ब्राह्मणों को छोड़ अन्य लौट गये ,पुरोहित धौम्य ने युधिष्ठिर को भगवान सूर्य की उपासना करने  की सलाह दी ,क्योंकि सूर्य ही जगत को अन्न और फल प्रदान करते है,सूर्य देव प्रकट हुए उन्होंने युधिष्ठिर को अक्षय पात्र दिया ,और कहा इसका भोजन कभी भी समाप्त नहीं होगा |

    युधिष्ठिर योग्य ब्राह्मणों की सेवा करते और द्रौपदी भोजन पकाकर पहले ब्राह्मणों को फिर पाण्डवों को और अन्त में स्वयं भोजन करती थी  ,तब-तक अक्षय पात्र से भोजन निकलता रहता था | धीरे-धीरे पांडवों के बारह वर्ष समाप्त हो गये ,अब उन्हें  एक वर्ष के अज्ञातवास की चिंता होने लगी |

         एक दिन युधिष्ठिर ,द्रौपदी तथा भाइयों के साथ  विचार मन्त्रणा कर रहे थे ,उसी समय एक रोता हुआ ब्राह्मण उनके सामने आ खड़ा हुआ ,युधिष्ठिर ने उसके रोने का कारण पूछा | उसने बतलाया – कि उसकी झोपड़ी के बाहर अरणी की लकड़ी टंगी हुई थी एक हिरन आया और वह इस लकड़ी से अपना शरीर खुजलाने लगा ,अरणी की लकड़ी उसके सींग में अटक गई इससे वह घबरा कर बड़ी तेजी से भागा |

                     अब मेरी चिंता है कि मै होम की अग्नि कैसे उत्पन्न करूँगा | इतना सुनते ही पाँचों पाण्डव भाई हिरन के पीछे हो लिये ,हिरन भागता हुआ आँखों से ओझल हो गया ,पांचों पाण्डव थके प्यासे एक वट वृक्ष की छाया में बैठ गये | उन्हें इस बात की लज्जा सता  रही थी कि एक साधारण काम नहीं कर सके ,प्यास के कारण उनका कंठ  भी सूख रहा था | इतने में भाई नकुल पानी की खोज में निकल पड़े कुछ ही दूरी पर एक साफ़ जल से भरा सरोवर मिला , नकुल ज्यों ही सरोवर में पानी पीनें के लिये प्रयासित हुए ,उन्हें एक आवाज़ सुनाई पड़ी – माद्री के पुत्र नकुल दुस्साहस न करो !यह जलाशय मेरे अधीन है,पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो,फिर पानी पीओं | नकुल चौंक पड़ें ,परन्तु उन्हें प्यास इतनी तेज थी कि उस आवाज़ की उन्होंने कोई परवाह नहीं की ,और पानी पी लिया | पानी पीते  ही नकुल चक्कर खाकर गिर पड़े ,देर तक नकुल के वापस न आने पर भाईयों में युधिष्ठिर को चिन्ता हुई उन्होंने सहदेव को भेजा ,सहदेव के साथ भी वही घटना हुई ,सहदेव के न लौटने पर अर्जुन उस सरोवर के पास गये |

          वहाँ दोनों भाईयों को मूर्छित देखकर उनकी मूर्च्छा का कारण सोचते हुए प्यास बुझाने की सोच ही रहे थे कि उन्हें उसी प्रकार की वाणी सुनाई पड़ी जैसी नकुल और सहदेव ने सुनी थी | अर्जुन क्रोध में धनुष पर बाण रखकर चलाने लगे परन्तु निष्फल रहे , कुछ देर बाद उन्होंने भी पानी पी लिया और अपनी चेतना वहीं खो बैठे , अर्जुन की प्रतीक्षा करते-करते युधिष्ठिर व्याकुल हो गये उन्होंने भाईयों की खोज के लिए भीम को भी भेजा ,भीम ने तीन अचेत भाईयों को देखकर समझ लिया कि यह किसी अदृश्य यक्ष की करतूत है,पहले पानी पी लूँ फिर देखता हूँ कौन सामने आता है ,यह सोच कर भीम जैसे ही तालाब में उतरे आवाज़ आई – भीम मेरे प्रश्नों के उत्तर दिए बिना पानी पीने का साहस न करों नहीं तो तुम्हारी भी वही गति होगी जो तुम्हारे भाइयों की हुई ,भीम ने कहा तू कौन है मुझे रोकने वाला सामने आ | यह कहते हुए भीम पानी पीने लगे ,पानी पीते ही भीम अचेत हो गये |  चारो भाईयों के न लौटने से युधिष्ठिर चिन्तित हो उठे ,और उन्हें खोजते हुए जलाशय की ओर चल पड़े |

         निर्जन वन में युधिष्ठिर ने सरोवर के पास चारो भाईयों को अचेतावस्था में देखकर कारण को सोचा किन्तु तबतक उनकी पिपासा भी चरम पर थी ,वह भी सरोवर में पानी पीने ही वाले थे कि आवाज़ आई –तुम्हारे भाईयों ने भी मेरी बात नहीं सुनी और पानी पीया अचेत हो गये ,यह सरोवर मेरे अधीन हैं पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो फिर पानी पीयों ,युधिष्ठिर समझ  गये यह यक्ष वाणी है | उन्होंने कहा महोदय आप प्रश्न कर सकते है- यक्ष ने संस्कृत में कहा ---

 

का वार्ता किम् आश्चर्यम् क:पन्था:कश्चमोदते |


 इति  में  चतुर: प्रश्नान् पूरियित्वा जलं पिब् |

यक्ष ने प्रश्न कियाधर्मराज मनुष्य का सदैव कौन साथ देता है ?

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया – महोदय धैर्य ही मनुष्य का साथ देता है |

यक्ष ने पुन: प्रश्न किया –धर्मराज  यश लाभ का एकमात्र उपाय क्या है ?

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया – महोदय यश लाभ का एकमात्र उपाय दान है |

यक्ष ने प्रश्न किया –धर्मराज  हवा से भी तेज चलने वाला कौन है ?

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया – महोदय हवा से भी तेज चलने वाला मन है |

यक्ष ने पूछा   –धर्मराज मनुष्य का विदेश में कौन साथी होता  है ?

युधिष्ठिर ने प्रत्युत्तर कहा  – अपनी अर्जित विद्या ही विदेश  जाने वाले की साथी होती है |   

यक्ष ने एक प्रश्न और  किया –युधिष्ठिर किसे त्याग कर  मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता  है ?

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया – यक्ष महोदय अहंकार को त्याग कर  मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता  है |

 

 

यक्ष ने कहाकिस चीज के खो जाने पर दु:ख  नहीं होता  है ?

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया – क्रोध के खो जाने पर दु:ख  नहीं होता  है |

यक्ष ने प्रश्न किया –धर्मराज किस चीज को गँवा कर मनुष्य धनी बनता  है ?

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया – महोदय लोभ को गँवा कर मनुष्य धनी बनता  है |

 

यक्ष ने प्रश्न किया –धर्मराज मनुष्य ब्राह्मण होना किस बात पर निर्भर है ,जन्म पर ? विद्या पर ?शील पर ?

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया –  मनुष्य का ब्राह्मण होना उसके शील पर निर्भर करता है |

यक्ष ने प्रश्न किया-धर्म से बढ़कर संसार में और क्या है ?

युधिष्ठिर ने कहा-उदारता महाशय |

 

यक्ष ने पूछा –कैसे व्यक्ति से की गयी मित्रता कभी पुरानी नहीं पड़ती ?

युधिष्ठिर ने कहा-सज्जनों से की गयी मित्रता कभी  पुरानी नहीं पड़ती है |

यक्ष ने आगे पूछा –इस संसार में  आश्चर्य क्या है ?

युधिष्ठिर ने कहा –श्रीमन् प्रतिदिन हजारों लोग मर रहें हैं फिर भी लोग चाहते हैं कि अनन्तकाल तक जीवित रहें इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है |

         यक्ष युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट होकर बोले हे राजन् ! मैं तुम्हारे इन भाईयों में से एक को ही जीवित कर सकता हूँ ,तुम जिसे कहो वह जीवित हो जाएगा |

    युधिष्ठिर एक पल विचार किये फिर बोले – नकुल को जीवित कर दें महाराज , इस प्रकार सुनते ही यक्ष युधिष्ठिर के सामने उपस्थित हुआ बोला धर्मराज आप भीम और अर्जुन को छोड़ नकुल को क्यों जीवित कराना चाहते हैं |

 

        युधिष्ठिर ने कहा ,महाराज – मनुष्य की रक्षा न तो भूमि से होति है और न अर्जुन से ,धर्म ही मनुष्य की रक्षा करता है और धर्म से विमुख होने पर मनुष्य का नाश होता है | मेरे पिता की दो पत्नियों में से कुन्ती का एक पुत्र मैं शेष आपके सम्मुख हूँ ,मैं चाहता हूँ कि माद्री का भी एक पुत्र जीवित रहे | यक्ष ने कहा पक्षपात रहित राजन ! आपने जो निर्णय दिया है उससे मैं प्रसन्न हूँ | मेरे प्यारे पुत्र – तुम्हारे चारों भाई सचेत हो जायें , यक्ष ने ऐसा वर दिया | वह यक्ष कोई और नहीं स्वयं यमराज थे , उन्होंने ही हिरन का रूप धारण कर युधिष्ठिर को अपने सम्मुख देखने और उनसे शास्त्र सम्मत चर्चा की इच्छा से यह किया जिससे उनका मन शान्त और आँखें तृप्त हो सकें |

 

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