बादलों की खेती
बादलों की खेती
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यान वायु में कर रहा घमासान ,
ऊँचे नींचे बीच की ले कमान ।
भूखण्ड में संचरित ,
दीखते स्वच्छ आसमान ,
मेखला मार्ग जन अवलोकती ,
मेघों की खेती ,
सूरज के हाथों जिनकी कमान ।
कुछ उजले ,मटियारे कुछ के निशान ,
प्रतिपल भाष्कर सिझराता ,
निगराता एकाकार कराता ,
मेघों की खेती में हाथ बंटाता ।
फिर भी मनुज ,बिन तन ढ़के सो जाता ।
कहीं लिहाफ़ सहेजे जाते है ,
कहीं धुनियाँ सरीखे फ़ाहे बंटे जाते है ।
उजले-उजले मेघ ऊँचे ऊँचे तन जाते है
।
मटियारी नीचे नीचे छन जाते है ,
पुरातन भी यहां नूतन बन जाते है ।
किन्तु ,
मानवता की खेती में परिवर्तन तजे जाते है ।
प्रकृति के बियावान में वायुयान सरीखे ,
हम अकेले ठगे जाते है ।
व्यभिचार ,विकार व्यापार ,
सभी छोड़ मेघ एकाकार हुए जाते हैं,
मेघों की खेती में जीवन का ,
जन-तोष लिए जाते है ,
अब तो दूब भी चुभती है ।
हम काँटों का कारोबार किये जाते है ।
स्वयं उठो एकबार ,
देखो मेघों का उजलापन ,
मलिनों को करते एकाकार ,
कैसे किया जाता है
और वे कैसे करते है,
बारिश के इस मौसम में ,
सब पापों को धूल डालों ।
सिहर जाय बदन अपना ही नहीं ।
उनका भी तन कुछ ऐसा जीवन में कर डालों ।
छोड़ो चिंतन की अब तो दूब भी चुभती है ,
हम काँटों का व्यापार किये जाते है ।
घट -घाट की
दूरी क्या ?
इंसान का इन्सान ही होना ज़रूरी क्या ,
सम्मान करों व्यापार नहीं ,
व्यवहार करों बारिश के मौसम में,
सब कटुता धुल डालों ।
सिहर जाय बदन ,
अपना ही नहीं उनका भी तन ,
कुछ ऐसा जीवन में कर डालों ।।
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