वाणी
वाणी
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मनुष्य की सुन्दरता गले में माला पहनने से नही होती है , माथे पर चन्दन लगाने से नही होती है , बहुत साफ़-सफाई करके स्नान करने से भी सुन्दरता नहीं होती है , चन्दन हल्दी का उबटन भी सुन्दरता की वृध्दि नहीं करते है बालों में सुंदर फूल लगाने से सुन्दरता नही बढ़ जाती है । यह सब साज-संवार का प्रयास मात्र कहलाता है , जो क्षणिक है,जिसे कभी भी उतारा जा सकता है अथवा जो कभी भी उतर सकता है , अथवा जो नष्ट प्राय है , मूलत:मानव जीवन में संस्कार की वाणी ही सुशोभित रहती है , जो शुध्द,प्रिय,और मधुर हो,इसलिए उसे ही धारण करना मनुष्य का परम कर्तव्य होना चाहिए,कबीर दास जी ने भी कहा है-
वाणी एक अमोल है जो कोई बोलहि जानि ।
हिये तराजू तौलिके तब मुख बाहरि आनि ।
ह्रदय के दोनों पक्षों को तराजू मानकर तौल लेना चाहिए कि इसके अच्छे बुरे पक्ष क्या होगे , उसके बाद ही मुख से बाहर वाणी का निकलना उचित है , इस प्रकार की वाणी लोगों के लिए सुख कारक ,हितकारक होती है,तभी तो कहते है -
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय ।
औरन को सीतल करे आपहु सीतल होय ।
समाज में बढती विसंगतियों को ध्यान में रखकर वैदिक मन्त्र के रूप में कहा गया है -
सत्यम ब्रूयात प्रियम ब्रूयात न ब्रूयात सत्यमप्रियम ।
कवियों ने अपनी दृष्टि को सहेजते हुए कहा है -
फीकी पे नीकी लगे कहिए समय विचारि ।
सबका मन हर्षित करे ज्यों विवाह में गारि ।
वाणी का समय निर्धारित है , कब,कहाँ,क्या,बोलना है,उचित-अनुचित का निर्धारण करके ही बोलना चाहिए,समाज की यही गरिमा रही है कि बड़े-छोटे स्त्री-पुरुष का ध्यान रखकर ही बोला जाय तो उससे स्वयं की मर्यादा बढती है-
शब्द सम्हारे बोलिए ,शब्द के हाथ न पाँव ।
एक शब्द औषधि करे ,एक शब्द करे घाव ।
शब्दों का अपना अनुशासन भी होता है,अपना नियम भी होता है,देश,काल,स्थिति,परिस्थिति के अनुकूल ही उसका उचित प्रयोग होता है,अन्यथा उसे उपयुक्त नही माना जा सकता है,आप अनर्गल प्रलापवाद से लेकर मिथ्यारोप तक के शिकार भी हो सकते है,कहा भी गया है-
आब गई आदर गया, नैनन गया सनेह ।
ये तीनों तबहि गये ,जबहि कहा कछु देह ।
और तो और -
बातहि हाथी पाइए, बातहि हाथी पाँव ।
उचित होगा सुनने में प्रिय ,अपमान भाव से रहित ,प्रेमयुक्त, सरल-वचन ,हितकारी, हिंसा ,द्वेष ,वैररहित ,दयायुक्त वाणी को अपनाया जाय | यही जीवन की सार्थकता है।
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