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जून, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तम

  तम तम जीवन और मरण , प्रस्फुटन लरजता आवर्तन , निहित तम में परिवर्तन , प्रकृति विकास अंतरतम । कलिमा-ललिमा नित-नूतन , प्रिय उल्लास प्रियतम , तम जीवन और मरण , निहित तम में परिवर्तन।। मुठ्ठी में ले तम उधार, उज्जर विस्मृत करता भ्रष्टाचार , मधुमय देश मधुरतम । प्रकारान्तर रश्मियाँ उकेरती , अन्तस्थल तोड़ नीरवता गहनतम , तम जीवन और मरण , निहित तम में परिवर्तन ।। तम विशेष अवशेष , आगत स्वागत का प्रवेश, अंध-कूप में उजास का वेश , खद्योत द्योतित तम अंतर्मन , उजले पर उजला प्रतिबिम्बन , तम आश्रित अवलम्बन । तम जीवन और मरण , निहित तम में परिवर्तन ।। वर्ण तमिस्र किशन यमुना जल से, राधा उजली न जली बन सुन्दरतम , प्रांगण प्रभु करिया काग -पिक टेर , रामायण और मधुर गान का फेर । नगर-डगर घर-घर तम सबका आधार , अन्धकार बिन उजले को धिक्कार । तम अन्दर लघुत्तम बाहर महत्तम , तम जीवन और मरण , निहित तम में परिवर्तन।। क्यों न करे तम का आराधन , जब तम की आड़ छिपा लेते धन। अपराध अंधेरी दुनियाँ का है मन । तम की कीमत तौल रहा शातिर मन । तमतमाते यौवन का करता आकर्षण , तम जीवन और मरण , निहित तम में परिवर्तन ।। तम की जय विजय सब ...

उड़गन की बात निराली

  उड़गन की बात निराली , ढूंढ रहे निशीथ में सारा संसार   ******************************************* उड़गन की बात निराली , ढूंढ रहे निशीथ में सारा संसार ।   जीव जगत और प्रकृति पुरुष की  ,  महिमा अपरम्पार ।। खनिज  ,  नदियाँ और पहाड़  , धरती का आगार । सूरज चन्दा अहर्निश निगरानी  ,  देते ऊर्जा बारम्बार । । उड़गन की बात निराली , ढूंढ रहे निशीथ में सारा संसार । कलियों में मदन क्यारी रसिकन को माली की लगे है मार । हरियाली वृक्षों का श्रृंगार  , सुमनों में भौंरो का गुंजार । । गगन में पक्षी कलरव करते  ,  मेघ धरा पर करत फुहार । जूही  - चम्पा क्यारी - क्यारी झूमें  ,  लहराये राजमार्ग कचनार । । उड़गन की बात निराली , ढूंढ रहे निशीथ में सारा संसार । ग्रीष्म ताप आतप धूसरित धूर  ,  नदियाँ भई कछार । पुरवाई की मस्तानी में , लबालब बहै शीतल मंद बयार ।। धान - किसान कहे गेंहू में हमहूँ  , अरहर जीवन करै संवार । शीत की भीत खानपान से जब्बर , जीव रखे साधु विचार । । उड़गन की बात निराली , ढूंढ रहे निशीथ में सारा संसार । सावन ...

सड़क

सड़क सड़कें चौड़ी, ------------------------------ ----------------------------- कोलतार और रोड़ी हो गयी सड़कें चौड़ी, शहरों के हो गए छोटे -छोटे मकान | अट्टालिकाओं और कोटरों में गुम , वाशिंदों का मुस्कान भरा वितान || बढ़ रही सिर्फ सबकी भाषाई जुबान , शान्ति घट छोटी पडी अपनी जहान | आशायें खोजती हर पल निशां में , अपने -अपने सपनों के आसमान || भीड़ और यातायात की आपाधापी में , रौदें जाते निशिदिन सब अरमान | शोर तले बंट जाता निज का ध्यान , जेठ दुपहरी ढूंढ रहीं उपवन बचाने निज प्रान || बचाने को मर्यादा और क्षण भर की थकान , कालचक्र के अजब कड़ाहे का देखो ये पकवान | पकते नश्वरजीव जगत के नर-नारी और जवान , सिमटता चरित्र बल बढ़ती उम्मीदें सारी || साकार बन खड़ी विषय उधारी सामान , इबारती जीवन लेख विलास की मारी | दुःख खरोंचने को जीवन सारा लगता बलवान , सुख सहलाने को अपलक पल बिचारी ।  मृगमरीचिका देखना दिन में हो रहा आसान , रोड़ी की सड़कें चौड़ी शहरों के हो गये छोटे मकान || ---------0----------

कविता

  कविता **** व्याकृत नहीं  , वर्तमान कविता  , प्रगति प्रयोग  , बन परिणिता , उन्मुक्त मुक्तक  , नामकविता, कर्मेन्द्रियोंमेंसिमटा अलंकार  , ज्ञानेन्द्रियों को भा रहा श्रृंगार  , छल-छंद छानते रहे शब्द बौछार  , रस बरसा न सकी कविता , सुहाने रालों पर हो मन मीता  , झट-पट का ज़माना  , क्यों बांधें छंदों में , कविता के पंख लगे है , जैसे परिंदों में  , अब रचना रच ना  , पर भार हुई , कविता कविता  , दुधार हुई , जो भास् रही कविता  , कवि बखान रहे  , अब कर ताल रही ,  कर ताली रही , कविता कवि को , निहार रही , राह किनारों में  , कविता कराह रही ,     *** ****  

तुकान्त कलि

 तुकान्त कलि तृषित मन हर्षित, तन कलि का यौवन , प्रभुता पल्लवित, मनुज ढूंढ रहा प्रकृति उपवन । धरती का स्वर्ग है यहीं पर , यहीं है गंगों –जमन, अट्टालिका के अट्टहासों में , बुझी- अनबुझी मानवता का नयन । कल-कल नदियों में शांत , हो गया कलरव खंजन ।।  पवन को क्यों कोसते , मसोसते क्यों अपने मन । प्रतिकूल परोसने का प्रतिफल , जहरीला हो रहा आँगन , नयी सोच में नये फलक में , खो गया कान्तार -वन -कानन ।। अब पूजन कहाँ ? पूरब के सूरज का , किसको प्रतीक्षा संध्या वंदन । चकाचौध में भूल गया , वेश - भाषा और अपना चाल-चलन , बदले नाम गलियों के, गलों के सुर बदले, बदल रहा चमन ।। प्रगति के नाम कुछ भी मिल जाय, जयकारा करो नमन । दुर्गति अब है सझियारा , बांट जोहती घटना और मरण , मनु सन्तति सचेत हो कब ? मानवता का करे वरण , प्रांगण हर घर बाग़ -बगीचे हो , कब होगा शुध्द सपन ? सझौती होगी प्रेम भाव संग,  मिल जिए करे गन्तव्य गमन । एकता के संकल्पों का व्रत , जीवन में ले करें आचमन ।।   आगत का करते स्वागत, तथागत , बोधि बुध्द, न्यग्रोध शुध्द, प्रबुध्द बन ।।      *****