काग
रहते जरद्गव बाबा के गाँव ।
एक
आँख है दो पाँव ,तिमिरपर्यन्त
जल्पना
काँव -काँव ,
जीवन
यथार्थ की कल्पना नाव।
आदि व्यंजन बदनाम नयन ,
खेचर
काग चपल घूमता गगन ,
सियार
हिरन धोखा वृक्ष की छाँव ।
कौवा
पंचतंत्र चतुरता की ठांव ।
सृष्टि
काल से सफलता का यही दांव ।
सुधर जाने का सहज मार्ग चेष्टा काग ।
श्रद्धा मुक्ति भाव से तर जाते लोग ,
पितर
काग के भाग ।।
मीठी बोली कर अपनी ,
तज
औरों को करते निहाल ।
काग खरी -खरी कहने वाला ,
कभी
नहीं रहा माया जाल ।
चाहे विष वमन करता सर्प ,
चाहे
कोकिल की हो चाल,
कृष्ण
राम के आंगन से सुलभ ,
मामा
की करते पुकार सभी बाल ,
कहां
हो कहां हो खोजते ,
मुंडेरे
चाहत का मनुहार ,
नश्वर
जगत बिसात में,
चिरन्तन
चलता है संसार ,
काग
कर रहे जरद् गव की पीढी
से ,
अस्तित्व
बचाने का है सहकार ।।
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