सांवरा तू वृन्दावन की कुंजगली में हो !

सांवरा तू वृन्दावन की कुंजगली में हो ।

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सांवरा तू  तो वृन्दावन की कुंजगली   हो ।

मैं भी तो कुसुमित बागों की एक कली हूं ।

तू इन गलियों में अलि बन आ जाते हो  ।

मैं उन राहों की  गुंजारों से  झूमा करती हूं ।

मैं तो  यमुना में  जल की बहती लहर  हूं ।

तू पुलिन पर आहट बन कर आते हो ।

सांवरा तू  तो वृन्दावन की कुंजगली  हो ।

तू पनघट की बजती सबरस बांसुरी हो ।

मैं झुरमुट से बहती रुनझुन  तान हूं । 

सांवरा तू तो वृन्दावन की कुंजगली  हो ।

सावरे तू तो रंग संग रास रचाते जाते हो ।

मैं तेरी  राह मन ही मन  खींचती  आती हूं ।।

सांवरा तू तो वृन्दावन की कुंजगली  हो ।

आस तुम्हारी विश्वास तुझी में लगाये बैठी हूं ।

तुम्हीं मझधार की  नौका पार कराते हो।।

 सांवरा तू तो वृन्दावन की कुंजगली  हो ।

फिर काँहे अंधियारी रात बात बनाते हो ।

हिया को सपने में  भी तुम तो  डराते हो ।।

सांवरा तू  तो वृन्दावन की कुंजगली   हो ।

मैं भी तो कुसुमित बागों की एक कली हूं ।

        

 रचना -डाॅक्टर करुणा शंकर दुबे


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